स्वास्थ्य पर हमारे देश में कुल सकल घरेलू उत्पाद का 4 फीसदी खर्च होता है और इसमें सरकार का योगदान मात्र 1 फीसदी ही है। इसके कारण 6 करोड़ 30 लाख लोग प्रति साल गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। इस तथ्य को राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में स्वीकार किया गया है। यह बहुत ही उदास करने वाली बात है कि लोगों को अपना इलाज करने के लिए कर्ज भी लेना पड़ जाता है। गंभीर बीमारियों की स्थिति में उन्हें अपना घर व अन्य संपत्तियां बेचनी पड़ जाती हैं।

यही कारण है कि हमारे देश के सभी नागरिकों के लिए स्वास्थ्य एक महत्वपूर्ण मसला होना चाहिए। लेकिन यह राजनैतिक और सामाजिक बहसों का हिस्सा नहीं बन सका है। चुनाव के समय कोई भी पार्टी इस मसले को नहीं उठाती। गौरतलब हो कि बराक ओबामा ने अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव स्वास्थ्य के मसले पर ही जीता था। इसके अलावा अब अमेरिका की किसी भी पार्टी को यह हिम्मत नहीं हो रही है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा को वह पलीता लगा दे, क्योंकि ऐसा करने पर वहां के लोगों की कड़ी प्रतिक्रिया होगी।

अपने देश में हम लोगों को अनेक मसलों पर आंदोलन करते देख सकते हैं। लेकिन इनमें से लगभग सभी मांगें आर्थिक मसलों तक सीमित रहती हैं। मजदूर संगठन मजदूरी की मांग के लिए आंदोलन करते हैं। वे श्रम कानूनों के लिए भी आंदोलनरत रहते हैं। विधवा पेंशन और वृद्घावस्था पेंशन के लिए भी मांग की जाती रही है, लेकिन कोई भी देश में स्वास्थ सेवा की स्थिति बेहतर करने के लिए आंदोलन नहीं करता। इंडिया मेडिकल एसोसिएशन तक सिर्फ अपने मसले को उठाते रहते हैं, लोगों के स्वास्थ्य पर उनका ध्यान नहीं रहता। लेकिन कुछ मेडिकल संगठन हैं जो समय समय पर स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित मांग उठाते रहते हैं।

स्वास्थ्य से संबंधित नीतियों के सारे निर्णय राजनैतिक स्तर पर ही होते हैं। शासकों की राजनैतिक विचारधारा के अनुसार स्वास्थ्य की नीतियों का निर्धारण होता है। इसलिए यह जरूरी है कि सार्वजनिक मंचों पर स्वास्थ्य से संबंधित मसलों पर बहस होपी चाहिए और इसे राजनैतिक मुद्दा भी बनाया जाना चाहिए। सिविल सोसायटी में इस मसले पर गहमागहमी नहीं है और इसके कारण सरकार भी इस मसले पर खास ध्यान नहीं देती है। परिणाम यह हुआ है कि वह इस मद पर खर्च करना अपनी प्राथमिकताओं में शामिल नहीं करती। (संवाद)