जाहिर है कि राहुल के इस पद पर आने से सबसे ज्यादा बेचैनी भारतीय जनता पार्टी को हुई है क्योंकि कंाग्रेस को मिटाने की कसम खानेवाली इस पार्टी को यह हजम नहीं हो रहा है कि कांग्रेस में एक नई पीढ़ी सत्ता संभाले। पीढ़ी के इस परिवर्तन को बेअसर साबित करने के लिए वह उस समय से लगी है जब से राहुल को पद पर बिठाने की चर्चा शुरू हुई थी। पार्टी का फैसला आने के बाद पार्टी की बौखलाहट काफी बढ गई है। लेकिन उनका निशाना सिर्फ खानदानी विरासत नहीं है। वे राहुल पर व्यक्तिगत हमले से भी नहीं चूके हैं।
पार्टी के नए चेहरे के रूप में उभर रहे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भाजपा की बेचैनी का इजहार तीखे शब्दों के जरिए किया। उन्होेंने कह डाला कि कंाग्रेस अध्यक्ष बनकर राहुल गंाधी भाजपा के कंाग्रेस मुक्त भारत बनाने के लक्ष्य को आसान बना देगें’’।
नेहरू-गंाधी खानदान की विरासत को चुनौती देने का काम विपक्ष काफी पहले से ही करता आया है और इसमें समाजवादी काफी आगे रहे हैं। लेकिन भाजपा ने इस हमले का स्तर काफी नीचे किया है। उसने सोनिया गंाधी पर भी उनके विदेशी होने को लेकर कई टिप्पणियां की और राहुल गंाधी को नकारने की कोशिश में उन्हें पप्पू, तथा ‘शहजादा’ आदि नामों से पुकारती रही है। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। दूसरी ओर, राहुल गंाधी ने भाजपा के खिलाफ अपने प्रचार को ज्यादातर प्रतीकात्मक बनाए रखने की कोशिश की है और इसका स्तर नीचे नहीं आने दिया है। वे अपनी नीतियों तथा प्राथमिकताओं को ही रेखांकित करते रहे हैं। उनका प्रसिद्ध बयान ‘सूट-बूट की सरकार’ भी प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत निशाना कम और कारपोरेट-विरोधी तथा गरीब समर्थक ज्यादा है और यह विषमता को ही सामने लाता है।
क्या राहुल गंाधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर सवाल उठाने का हक भाजपा को है ? देश के संविधान ने हर पार्टी को अपने संविधान के जरिए अपना नेता चुनने का हक दिया है। सच्चाई तो यह है कि देश की हर पार्टी में चुनाव की प्रकिया इन दिनों कमोबेश एक ही है। भाजपा भी इसमें अपवाद नहीं है। कंाग्रेस के प्रवक्ता रणदीय सुरजेवाला ने यह सपाल उठाया भी। सीधे मतदान के जरिए कई उम्मीदवारों में से किसी एक को चुनने की प्रकिया अब लगभग समाप्त हो चुकी है और इसके लिए सिर्फ कंाग्रेस को दोषी नहीं करार दिया जा सकता है। भाजपा का अध्यक्ष चुनने में तो आरएसएस की अहम भूमिका होती है जो अपने को सांस्कृृतिक संगठन बताता है और राजनीति से अपने रिश्ते से इंकार करता है।
राजनीतिक हलकों में जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल राहुल के अध्यक्ष बनने को लेकर किए जा रहे हैं वे यही हैं कि क्या वह कंाग्रेस का कायापलट कर पाएंगे और चुनावों में हो रही पराजय से उसे मुक्त कराएंगे? यह सवाल सिर्फ कंाग्रेस के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए भी। कंाग्रेस केवल देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी नहीं है, बल्कि एकमात्र ऐसी पार्टी है जो सही मायनों में राष्ट्रीय है। उसका ताकतवर होना अत्यंत जरूरी है।
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गंाधी की क्षमता पर सवाल उठाने के कई वस्तविक कारण हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण कंागे्रस को मिल रही चुनावी विफलताएं है। मीडिया में बनाई गई उनकी छवि भी इस तरह के सवालों की गुंजाईश बनाती है।
सवाल उठता है कि क्या पार्टी की इन विफलताओं का ठीकरा राहुल गांधी के सिर फोड़ना जायज है ? यह सही है कि कंाग्रेस एक व्यक्ति या परिवार के नेतृत्व में चलने वाली पार्टी है। इसलिए हार की जिम्मेदारी उन्हें ही लेनी पड़ेगी। लेकिन अगर देश भर की राजनीति पर नजर दौड़ाई जाए तो यह साफ हो जाएगा कि ममता बनर्जी, नवीन पटनायक तथा नीतीश कुमार जैसे कुछ क्षेत्रीय नेताओं को छोड़ दें तो भाजपा बाकी पार्टियों को चुनौती देने में कामयाब रही है। ऐसे में राहुल गंाधी की पराजय को सीधे-सीधे उनकी व्यक्तिगत विफलता नहीं बताया जा सकता है।
दूसरा सवाल उनकी छवि को लेकर है। गौर करने पर पता चलता है कि राहुल की छवि को एक नौसिखुआ राजनीतिज्ञ को बनाने में भाजपा को बड़े पैमाने पर सफलता मिली है। विज्ञापन और मीडिया प्रबंधन के इस युग में यह कोई मुश्किल काम नहीं था। भाजपा ने सभी माध्यमों जिसमंे सोशल मीडिया शामिल है का सहारा लेकर उनकी छवि एक नकारे राजनीतिज्ञ की बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन हम देख सकते हैं कि जब सोशल मीडिया के इस युद्ध में राहुल उतर गए तो उन्होंने इसमें काफी कामयाबी हासिल कर ली है। ट्विटर तथा सोशल मीडिया नेटवर्क के आंकड़े बताते हैं कि उन्होंने पिछले दिनों रिकार्ड लोकप्रियता हासिल की है। गुजरात चुनावों में लोगों ने उन्हें जिस गंभीरता से लिया है, वह यही दिखाता है कि उनका रास्ता ज्यादा कठिन नहीं है।
राहुल गंाधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद पर विराजमान होने पर यह सवाल उठेगा ही कि राहुल किस राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके नेतृत्व में आने का अर्थ क्या है ? अगर गौर से देखें तो यह अंदाजा मिलता है कि वह लगातार इस कोशिश में है कि अपनी छवि एक कारपोरेट विरोधी तथा गरीब समर्थक नेता की बनाएं। इन नीतियों से विषमता तथा बेरोजगारी बढी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हीं नीतियों को आक्रामक रूप से लागू कर रहे हैं। राहुल की धारा इंदिरा गंाधी वाली बायीं ओर झुकी धारा से मिलती-जुलती है।
मनमोहन सिंह की उदारीकरण वाली आर्थिक नीतियों की धारा के साथ भ्रष्टाचार की एक धारा भी जुड़ी रही है और इसने कंाग्रेस की पराजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राहुल ने इससे अलग रहने में सफलता पाई है।
गुजरात के चुनावों में भी उनका अभियान इस किस्से से अलग है कि विकास के मामले में कंाग्रेस भाजपा को पछाड़ सकती है। वह प्रकारांतर से विकास की चालू अवधारणाओं को चुनौती दे रहे हैं और बता रहे हैं कि इस विकास ने गरीबी तथा बेरोजगारी लाई है।
उनके नेतृृत्व में कांग्रेस की विचारधारा में यह परिवत्र्तन दिखाई देगा, यह तय है। लेकिन क्या यह इतना आसान है ? कांग्रेस में अभी भी कपिल सिब्बल तथा चिंदबरस जैसे नेता हैं जो उदारीकरण की नीतियों के प्रबल समर्थक हैं। उससे भी बड़ी चुनौती होगी राजस्थान,मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के अगले साल आ रहे चुनावों में पार्टी को सफलता दिलाना। लोकतंत्र में चुनावी सफलता ही असली मायने रखता है। (सवाद)
राहुल के हाथ कांग्रेस की कमान
क्या भाजपा को सवाल उठाने का हक है?
अनिल सिन्हा - 2017-11-29 12:08
राहुल गंाधी का कंाग्रेस अध्यक्ष बनना तो सिर्फ समय की बात थी। लेकिन सवाल उठता है कि पार्टी की नेता सोनिया गांधी ने यही वक्त क्यों चुना। एक ऐसे वक्त में जब राहुल पिछले दिनों हुए सभी विधान सभा चुनावों में महत्वपूर्ण गुजरात चुनावों का अभियान चला रहे थे तो अध्यक्ष बनाने का फैसला किया गया। एकदम युद्ध के बीच उन्हें आधिकारिक रूप से कांग्रेस का सेनापति बना दिया गया।