पर स्थानीय निकायों के चुनावों के नतीजों से जो सुर संकेत निकल कर सामने आये हैं वे भी काबिलेगौर हैं। पहला तो ये कि बेशक यू पी सरकार की कमान योगी आदित्यनाथ और भाजपा की कमान डाक्टर महेन्द्रनाथ पाण्डेय के हाथों में है तो श्रेय भी उन्ही को दिया जाना चाहिए। पर असल में मोदी फैक्टर को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। बेईमानी पर हमला बोल कर और साढ़े तीन सालों में खुद बेदाग रह कर मोदी आज भी बकायदा गरीब से कनेक्शन जोड़ने में कामयाब हैं इससे इंकार करना विरोधियों के लिए भी थोडा मुश्किल है। खाते में दस दस लाख क्यों नहीं आया जैसे विपक्ष के रसीले सवाल भी गरीब को मोदी से विमुख नही कर पा रहे। शायद इसलिए कि उन्हें मोदी की सदिच्छा पर संदेह नहीं है।जोश में अक्सर होश खो जाता है। वही आने वाले समय में विनर भाजपा के साथ हो सकता है। भाजपा को यह चिंतन जरूर करना होगा कि अभी ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में जो नाकामयाबी हासिल हुई है उसके पीछे उनके विधायकों या सांसदों की काहिली या दगाबाजी का कितना हाथ है।

नतीजों का पैटर्न ये बताता है कि गरीबी की रेखा से नीचे वाला ही नहीं शहरी निम्न और मध्यम वर्ग भी तमाम परेशानियाँ उठा कर फिर से सपाई दादागिरी के चंगुल में फंसना नहीं चाहता। बेशक सपा के नए सुप्रीमो अखिलेश यादव आगरा एक्सप्रेसवे और लखनऊ मेट्रो को अपने पांच साल के कार्यकाल में विकास के चमकदार आयाम बता कर मैदान में ताल ठोकते रहे हों। पर सच ये भी कि वो अपने कैडर की गुंडई पर लगाम लगा पाने में नाकामयाब रहे। सपा का कैडर शहरों और गांवों में आम आदमी को धोंसियाता और डराता ही रहा और प्रशासन उनकी पीठ पर हाथ रखे रहा। कहावत है कि सियासत का पहला सबक घर से ही शुरू होता है और जो अपना घर नहीं संभाल सकता वो प्रदेश या देश कैसे संभालेगा। गद्दी के पिता और चाचा को ही बुलडोज कर डालने का अखिलेश का अंदाज आम घरेलू मतदाता को पसंद नहीं आया और उन्हें औरंगजेब के खांचे में फिट कर गया।

अब रहा सवाल दूसरे लड़के का, अगर अब भी वो लड़के रह गए हैं, तो श्रीमान राहुल गाँधी आज की तारीख में जिस कांग्रेस के डिप्टी कमांडर हैं उसकी खटिया यू पी में फिलहाल खड़ी हो गयी है। आज से तीस साल पहले तक के गाँधी टोपी पहनने वाले कांग्रेस के खांटी कार्यकर्ता सेवानिवृत्ति की कगार पर हैं। यू पी की कांग्रेस में बस बूढ़े नेता ही नेता बचे हैं, दरी बिछाने वाले या बस्ता थामने वाला नौजवान कार्यकर्त्ता एक नहीं दिखाई पड़ता। नए नेता हैं भी तो वो राहुल जैसे कान्वेंटी अँगरेज टाइप हैं जिन्हें अनपढ़ गरीब से कम्यूनिकेट करने का शऊर नहीं है। बेशक इधर राहुल ने गुजरात के चुनाव में चुटीली भाषण कला का मुजाहिरा करना शुरू किया है पर उनके पास जो रोड मैप दिखा भी वो वही पुराना राजाओं की तरह फ्री में रेवड़ियां बाँट कर रिझाने वाला है लोगों को स्वावलंबन की राह सिखा कर देश को आगे बढ़ने वाला नहीं। सो यू पी की जनता ने विधानसभा चुनाव की तरह उन पर फिर यकीन न करने की मुहर लगा दी। ऐसा लगता है कि राहुल को अभी तब तक इंतजार करना होगा जब तक उनको मोदी या योगी के खिलाफ मजबूत मुद्दे न मिल जाएँ और सोनिया की नहीं उनकी अपनी कांग्रेस न बन जाये।

इस चुनाव में सबसे ज्यादा राहत की साँस अगर किसी ने ली होगी तो वो हैं मायावती जिनकी बहुजन समाज पार्टी की मान्यता तक खतरे में पड़ गयी थी। एक तो इसलिए कि उसने पहली बार अपने हाथी को लोकल बाडी चुनाव मैदान में उतारा। नतीजों ने बहन जी को बता है दिया कि उनका दलित वोटर उनके साथ खड़ा है। उस पर सोने में सुहागा ये कि मुसलमान वोटर ने बसपा पर कांग्रेस या सपा से ज्यादा भरोसा किया है। ऐसा न होता तो कैसे बसपा भाजपा के दो मजबूत गढ़ अलीगढ और मेरठ को ढहा पाती। बसपा के लिए बेशक यह एक बड़ी कामयाबी है और थोड़े बेहतर भविष्य का संकेत भी कि आने वाले चुनावों में दलित-मुस्लिम गठजोड़ मायावती के पैर जमाने में मददगार साबित हो सकता है। वैसे भी बसपा और सपा में सबसे बड़ा गुणात्मक फर्क भी यही कि जहाँ सपा का कैडर क्रूर और बेलगाम है वहां बसपा का कैडर भ्रष्टाचारी हो सकता है आम आदमी को परेशान नहीं करता। स्थानीय चुनाव से पहले ऐसा लग रहा था कि मायावती का आत्मविश्वास डगमगाने लगा है और वो वजूद की खातिर अखिलेश या राहुल की गठबंधन की पेशकशों पर गौर फरमाने के लिए मजबूर हो सकती हैं। पर अब 2019 में वो एकला चलो की धुन पर कदम ताल करती दिखाई पड़ें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा।

यू पी के स्थानीय निकाय के नतीजे ताजा ताजा गुजरात और 2018 में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विधानसभा चुनावों में भी भाजपा के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं पर वहां का नतीजा क्या निकलेगा ये आने वाला समय बताएगा। (संवाद)