हालांकि उस समय के प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई, जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, मधु लिमये, मधु दंडवते समेत कई नेता नहीं चाहते थे इंदिरा गांधी के खिलाफ इस तरह का कदम उठाया जाए। उनका मानना था कि ऐसा करना न सिर्फ अलोकतांत्रिक होगा, बल्कि इससे लोगों में इंदिरा गांधी के प्रति सहानुभूति पैदा होगी और जनता पार्टी को राजनीतिक नुकसान होगा। लेकिन विवेक के मुकाबले बदला लेने की जिद भारी रही और लोकसभा ने बहुमत से प्रस्ताव पारित कर इंदिरा गांधी को सदन से निष्कासित कर दिया। इतना ही नहीं, उन्हें गिरफ्तार कर जेल भी भेजा गया। अंततरू विवेक सही साबित हुआ। अन्यान्य कारणों के चलते जनता पार्टी टूट गई। देश की जनता ने इंदिरा गांधी को आपातकाल के लिए माफ कर दिया और वे फिर भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौट आई।
लगता है इतिहास अपने का दोहरा रहा है, कुछ अलग तरीके से ही सही। जनता पार्टी की सरकार ने जैसा इंदिरा गांधी के साथ किया था, वैसा ही मौजूदा भाजपा सरकार के दबाव में समाजवादी नेता और संसद के वरिष्ठतम सदस्य शरद यादव के साथ किया है। इंदिरा गांधी को बहुमत के दम पर संसद से बाहर किया था तो शरद यादव को बाहर करने के लिए दलबदल विरोधी कानून का नाजायज सहारा लिया गया।
शरद यादव अब संसद के सदस्य नहीं रहे। राज्यसभा के सभापति एम.वेंकैया नायडू ने दलबदल निरोधक कानून की मनमानी व्याख्या करते हुए संसद के इस वरिष्ठतम सदस्य को राज्यसभा की सदस्यता के लिए अयोग्य करार दे दिया। शरद यादव के साथ ही उनके एक अन्य सहयोगी अली अनवर की भी राज्यसभा की सदस्यता निर्ममतापूर्वक समाप्त कर दी गई। यह सही है कि दलबदल करने या सदन में किसी मसले पर पार्टी द्वारा व्हिप का उल्लंघन करने पर किसी भी सांसद या विधायक को कानून के तहत अयोग्य ठहराने का अधिकार संबंधित सदन के अध्यक्ष या सभापति को होता है। पहले भी लोकसभा, राज्यसभा और कई राज्यों में विधानसभा सदस्यों की सदस्यता दलबदल विरोधी कानून के तहत समाप्त हुई है, लेकिन उन मामलों में संबंधित सदनों के अध्यक्ष या सभापति ने निर्धारित कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए ऐसा किया है। लेकिन शरद यादव और अली अनवर के बारे में सभापति ने दोनों का पक्ष सुने बगैर ही उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया। जबकि दोनों सदस्यों ने मौखिक या लिखित तौर पर न तो अपनी पार्टी से इस्तीफा देने का एलान किया था और न ही सदन के भीतर किसी मसले पर अपनी पार्टी द्वारा जारी व्हिप का उल्लंघन किया था।
दरअसल यह पूरा विवाद जनता दल यू के विभाजन से जुडा हुआ है, जो फिलहाल दिल्ली हाई कोर्ट के समक्ष विचाराधीन है। इसी विवाद के चलते नीतीश कुमार की अगुवाई वाले धडे ने राज्यसभा के सभापति के समक्ष एक याचिका पेश करते हुए उनसे मांग की थी कि शरद यादव और अली अनवर अब उनकी पार्टी में नहीं हैं, लिहाजा उनकी राज्यसभा की सदस्यता समाप्त की जाए। सभापति ने इसी याचिका के आधार पर शरद यादव और अली अनवार को सदन की सदस्यता के अयोग्य करार दे दिया। यह फैसला देने में राज्यसभा के सभापति ने जिस तरह की फुर्ती दिखाई, वह हैरान करने वाली है।
शरद यादव और अली अनवर के अलावा कुछ अन्य सांसदों के ऐसे ही मामले लंबे समय से राज्यसभा की आचार समिति के समक्ष विचारधीन हैं। विजय माल्या जैसे आर्थिक अपराधी का मामला तो ऐसा था कि बिना किसी विलंब के उसकी सदस्यता समाप्त हो जानी चाहिए थी लेकिन उसका मामला भी सदन की आचार समिति के पास गया और आचार समिति की सिफारिश पर सभापति ने उसकी सदस्यता समाप्त करने का फैसला किया। धोखाधडी और भ्रष्टाचरण के आरोपी कुछ अन्य सांसदों के मामलों में भी इतनी जल्दी फैसला नहीं सुनाया गया जितनी जल्दबाजी शरद यादव और अली अनवर के मामले में दिखाई गई।
दरअसल, नियम और परंपरा के मुताबिक जब भी ऐसा कोई मामला सभापति के समक्ष आता है तो वे उसे सदन की आचार समिति को विचारार्थ भेजते हैं। आचार समिति उस पर विचार कर अपनी रिपोर्ट सभापति को देती है, जिसके आधार पर सभापति अपना फैसला सुनाते हैं। लेकिन यादव और अनवर के मामले में सभापति ने ऐसा नहीं हो सका। राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलामनबी आजाद के नेतृत्व में विभिन्न विपक्षी दलों के लगभग डेढ दर्जन सदस्यों ने इस बारे में सभापति से मुलाकात कर शरद यादव और अली अनवर से जुडे मामले को सदन की आचार समिति के पास भेजने का अनुरोध भी किया था लेकिन सभापति ने उस अनुरोध की अनदेखी करते हुए मामले को आचार समिति को न भेजते हुए उस पर खुद ही फैसला ले लिया।
आमतौर पर न्यायपालिका संसद या विधानमंडलों से जुडे ऐसे मामलों में सदन के मुखिया यानी स्पीकर या सभापति के फैसले में कोई दखल नहीं देती है, लेकिन शरद यादव को राज्यसभा की सदस्यता के हाई कोर्ट ने यद्यपि शरद यादव को संसद के शीतकालीन सत्र में भाग लेने की अनुमति नहीं दी है लेकिन अपने अगले आदेश तक शरद यादव को सांसद होने के नाते मिल रही आवास सुविधा तथा वेतन-भत्ते जारी रखने का आदेश दिया है। हाई कोर्ट का यह आदेश अंतरिम है लेकिन तात्कालिक तौर पर राज्यसभा के सभापति के फैसले पर एक प्रतिकूल टिप्पणी और जद यू के नीतीश खेमे के लिए स्पष्ट तौर पर झटका तो है ही।
शरद यादव के साथ ही राज्यसभा की सदस्यता के लिए अयोग्य करार दिए गए अली अनवर ने भी सभापति के फैसले को अदालत में चुनौती दी है, जिस पर अभी सुनवाई होना है। यादव और अली अनवर की याचिका पर अदालत का अंतिम फैसला चाहे जो आए, बहरहाल इस प्रकरण ने सत्ता में बैठे लोगों द्वारा दलबदल कानून के दुरुपयोग की बढती प्रवृत्ति और इस कानून की विसंगतियों को एक बार फिर शिद्दत से रेखांकित किया है। इस कानून को लेकर वे सारी शंकाएं अब अपने साकार रुप में लगातार सामने आ रही हैं, जो इस कानून के बनते वक्त मधु लिमये जैसे चिंतक राजनेताओं और विधि वेत्ताओं ने जताई थीं। (संवाद)
शरद और अनवर की राज्यसभा की सदस्यता समाप्ति का मामला
अनिल जैन - 2018-01-01 11:38
बात 1978 की है। केंद्र सहित कई राज्यों में जनता पार्टी की सरकारें थीं। कांग्रेस विपक्ष में थी। उसकी शीर्ष नेता इंदिरा गांधी 1977 का चुनाव हार चुकने के बाद कर्नाटक के चिकमंगलूर से उपचुनाव जीतकर लोकसभा में आ चुकी थीं। उनकी लोकसभा में वापसी जनता पार्टी के कई नेताओं को नहीं सुहा रही थी। तत्कालीन गृह मंत्री चैधरी चरण सिंह के साथ ही राजनारायण, जार्ज फर्नांडीस और जनता पार्टी में जनसंघ घटक के नेता इंदिरा गांधी को आपातकाल की ज्यादतियों के लिए श्सबक’ सिखाने की गरज से उन्हें लोकसभा से निष्कासित करने पर आमादा थे।