महाराष्ट्र के पुणे के नजदीक कोरेगांव भीमा में दलितों पर हुए कथित हिंसा और हमले की बात उसी बोए हुए बीज का अंकुरण है । एक तरफ हम तरक्की और विकास की बात कर रहे हैं । भारत को हम सवा सौ अरब वाला देश कह रहे हैं । न्यू इंडिया , डिजिटल और स्किल इंडिया की बात कर रहे हैं, दूसरी ओर उसी देश में अपनों के खिलाफ जीत का जश्न मनाया जा रहा है । फिर हम किस भारत के विकास और उसमें निहित सामजिक समरसता की बात करते हैं । यहाँ देश पीछे है , पहली कतार में जाति , धर्म , भाषा और सम्प्रदाय है । अंग्रेज अच्छी तरह जानते थे कि भारत में जाति और धर्म का मसला इतना ज्वलनशील है कि सिर्फ एक तीली भारत को आजीवन जलाती रहेगी।

अनावश्यक तरीके से भड़की इस जातीय हिंसा में करोड़ों स्वाहा हो गया। मुम्बई की लाइफ लाइन कहीं जाने वाली लोकल ट्रेन और मेट्रो भी प्रभावित हुईं। काफी संख्या में बसों को आग के हवाले कर दिया गया। आर्थिक नगरी मुम्बई थम गई। आखिर यह सब क्यों हुआ । इसका असली गुनहगार कौन है ? किसने यह साजिश रची। उसका काला चेहरा बेनकाब होना चाहिए। काफी हद तक फड़नवीस सरकार भी जिम्मेदार है । पुणे में हुईं घटना के बाद वक्त रहते अगर कदम उठाए लिए गए होते तो आग इतनी न फैलती।

अहम सवाल है कि कोरेगांव भीमा में यह आयोजन पिछले कई सालों से होता चला आ रहा है । तब कभी इस तरह की हिंसा नहीँ भड़की , फिर इस बार आखिर ऐसा क्या हुआ कि विजय दिवस की बरसी हिंसा और आगजनी की बलि चढ़ गई। यह विवाद हिंदुत्व , आरएसएस , दक्षिण और वामपंथ को कैसे जद में लिया। विजय दिवस के पीछे का छुपा इतिहास क्या है । क्या है भीमा-कोरेगांव की लड़ाई। कई सवाल हैं जो आम देशवासी के जेहन में उठ खड़े हुए हैं ।

इतिहास की माने तो 1 जनवरी 1818 में ब्रिटिश की ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट के बीच, कोरेगाँव भीमा में जंग लड़ी गई थी। इस लड़ाई में अंग्रेजों और आठ सौ महारों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के सैनिकों को पराजित कर दिया था। महार सैनिक यानी दलित ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से लड़े थे और कहा जाता है। उस दौर देश में ऊंच - नीच और अस्पृश्यता का विकास अधिक था। अंगडी जातियां दलितों को अछूत मानती थी । महाराष्ट्र में मराठा अंगडी जाति से है जबकि महार समुदाय दलित वर्ग से है । बाद में अंग्रेजों ने युध्द में शहीद हुए लोगों के सम्मान में भीमा नदी के किनारे बसे कोरेगाँव में एक स्मारक बनवाया। दलित उस जीत को विजय दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं । जबकि कुछ हिंदूवादी संगठन इसका विरोध करते हैं । आरोप हैं कि पहली जनवरी को भीमा गाँव में जमा हो रहे दलितों को रोका गया। जिसके बाद एक व्यक्ति की मौत के बाद पूरे महाराष्ट्र में हिंसा भड़क गई। उस आग में घी का काम डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के पोते और एक्टिविस्ट प्रकाश आंबेडकर की महाराष्ट्र बंद के आह्वान ने भी किया। इस पूरे घटना से एक बात साफ जाहिर होती हैं कि यह पूर्व नियोजित थी, हालांकि यह बात जाँच के बाद साफ होगी। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं। मुख्यमंत्री ने कहा है कि पुणे में कोरेगांव हिंसा की न्यायिक जांच कराई जाएगी। राज्य सरकार ने सीसी फूटेज के आधार पर जाँच कराने की बात कहीं है ।

यह बात सच है कि वहाँ लाखों की संख्या में दलित समुदाय के लोग जमा होते हैं । कभी किसी तरह की बात सामने नहीँ आयी। लेकिन इस बार के आयोजन में कई दलित संगठनों के शिवाय जिग्नेश मेवानी औए उमर खालिद के अलावा वामपंथ के लोग भी वहाँ मौजूद थे । सवाल इस तरह के विवादित छवि के लोगों को आमंत्रित क्यों किया गया था। दूसरी तरफ उमर खालिद और जिग्नेश मेवानी किस तरह के नेता हैं , यह पूरा देश जानता है । जिग्नेश प्रधानमंत्री मोदी पर विधायक बनने के बाद किस तरह का बयान दिया यह जग जाहिर है। वही जेएनयू के छात्रनेता उमर खालिद भी मौजूद थे उन पर भी भड़काऊ बयान देने का आरोप है। जेएनयू में जिस तरह भारत विरोधी नारे लगे उसके केंद्र में यहीं उमर खालिद थे जो देश के बंटवारे की बात करता हो , उसे इस तरह के आयोजन में आमंत्रित कर महार या दलित संगठन के लोग समाज को क्या संदेश देना चाहते थे। उनसे कौन सी उम्मीद रखी गई थी।

हालांकि इस हिंसा के पीछे हिंदू एकता अघाड़ी के मिलिंद एकबोते व शिवराज प्रतिष्ठान के संभाजी भिड़े का भी नाम आ रहा है । दोनों संगठनों ने भीमा-कोरेगांव युद्ध में अंग्रेजों की जीत को शौर्य दिवस के रूप में मनाने का विरोध किया था।

उधर इस पर संसद से सड़क तक राजनीति गरमा गई है । काँग्रेस और राहुल गाँधी ने जहाँ भाजपा और आरएसएस पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाया है, वहीं भाजपा ने इसे लिए काँग्रेस की फूट डालो और राज करो नीति का परिणाम बताया है । उनका आरोप है कि संघ और भाजपा दलितों को समाज में सबसे नीचे पायदान पर रखना चाहती है। ऊना, रोहित वेमुला और भीमा-कोरेगांव की हिंसा दलितों के प्रतिरोध के उदाहरण हैं। जब बात दलितों से जुड़ी हो फिर मायावती कब पीछे रह सकती हैं । उन्होंने ने हिंसा में भाजपा का हाथ बताते हुए सारा दोष महाराष्ट्र की भाजपा सरकार पर मढ़ दिया । जबकि आरएसए नए इस घटना को दुखद और दर्दनाक बताया हैं। लेकिन इस पर राजनीति खूब हो रही है ।

सवाल उभर कर आता है कि आजाद भारत में गुलामी के प्रतीक इस तरह के शौर्य दिवस मनाने की जरूरत क्या है ? 200 साल पहले का भारत पूरी तरह बदल चुका है। फिर उस घाव को शौर्य दिवस के रुप में हरा करने की बात समझ में नहीँ आती। वह दौर था जब दलितों के साथ अत्याचार होते रहे थे , समाज की ऊँची जातियां उनसे भेद - भाव कराती थी। लेकिन आज का वक्त बदल गया है । अंगेरजी हुकूमत का दौर नहीँ रहा । देश विकास की तरफ बढ़ रहा है। उस स्थिति में अगर हम जाति और धर्म की बात करते रहेंगे तो यह बात अच्छी नहीँ। संसद में दलित उत्पीड़न का राग अलापने वालों को यह नहीँ दिखता कि आधुनिक भारत का दलित समाज इतना मजबूत हो चला है कि वह अपनी तागत से महाराष्ट्र सरकार को हिला देता है। हिंसा और आगजनी की बदौलत सारी व्यवस्था ठप कर देता है । करोड़ों की सम्पत्ति आग की भेंट चढ़ा देता है । यह बात सच है कि दलितों के साथ कुछ घटनाएं सभ्य समाज में निंदनीय हैं । लेकिन यह भी सच है कि वह आजादी भी किस काम जिस शौर्य दिवस से पूरा देश जलने लगे। देश की सरकार को इस तरह के जातिवादी, धार्मिक संगठनों और संस्थाओं पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए , जिससे देश की एकता और अखंडता को खतरा हो। इस तरह के सभी आयोजन प्रतिबंधित कर देने चाहिए। (संवाद)