क्या सुप्रीम कोर्ट को चार वरिष्ठतम जजों के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ लगाए गए आरोपों को महज उनकी ‘शिकायतों और असंतोष’ की संज्ञा दी जा सकती है? क्या वे कुछ खास मुकदमों की सुनवाई अपने न्यायालय में करना और उन पर फैसला देना चाहते थे, जिसे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने किसी और की अदालत में भेज कर ऐसा करने से रोक दिया? क्या अपनी पसंदीदा अदालत में उन मामलों का भेजने के पीछे मुख्य न्यायाधीश की मंशा कुछ और थी? लोगों के बीच आम भावना है कि ‘अनुकूल’ या ‘प्रतिकूल’ जज की अदालत में किसी मामले की सुनवाई कराई जा सकती है और इच्छा के मुताबिक फैसला पाया जा सकता है या न्याय की हत्या की जा सकती है। इस पृष्टभूमि में न्याय व्यवस्था में लोगों का भरोसा बहाल करने के लिए ऐसे अनेक सवालों का उत्तर देना जरूरी है।

निष्पक्ष न्याय के लिए, परंपरा तथा न्यायशास्त्र मुख्य न्यायाधीश को यह अधिकार नहीं देता कि वह अपनी पसंदीदा अदालतों को मामला सौंपे ताकि वह किसी के खिलाफ या पक्ष की पार्टी बनकर न्याय के गेटकीपर की भूमिका अदा करने लगे। इसलिए एक व्यवस्था बनी हुई है जिसके तहत अदालतों को मामले सौंप जाते हैं जो अन्याय के खतरे कम कर देता है। मौजूदा न्यायाधीश ने इस नियम का साफतौर पर उल्लंघन किया है। इसका कारण वह खुद ही बता सकते हैं। क्या हमारे जज कुछ नहीं कर सकते अगर नियम तथा कानून का सर्वोच्य रखवाले खास नियमों तथा मानदंडों का उल्लंघन करते हैं? अगर हम चार वरिष्ठ न्यायाधीशों की ओर से व्यक्त की गई ‘बेचारगी’ पर विश्वास करें तो न्यायापालिका के भीतर ऐसे नियमों के उल्लंघन के खिलाफ कुछ नहीं किया जा सकता है। अगर ऐसा है तो हमारी न्यायपालिका उस स्थिति में न्याय नहीं दे सकता अगर मुख्य न्यायाधीश उल्लंघन करने वाला बन जाए। इस विसंगति को दूर करना चाहिए कि नियमों या मानदंड का उल्लंघन मुख्य न्यायाधीश का काम नहीं है और इसलिए इसे उसका विशेषाधिकार नहीं मानना चाहिए, बल्कि न्यायपालिका के भीतर ही इसका निवारण करना चाहिए। लाचारी व्यक्त करना और लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर प्रेस के समने आना स्वीकार करने योग्य नहीं है। हमारे माननीय न्यायाधीशों ने न्यायपालिका के मुखिया की सत्ता को चुनौती देकर एकदम सही किया है, उन्हें ‘नियमों के उल्लंघन’, जो किसी का विशेषाधिकार नही है, के खिलाफ कार्यवाही करनी चाहिए थी। कोई भी उल्लंघन, ‘मनमाने ढंग से केस सौंपना या स्थानांतरित करना’ मुख्य न्यायाधीश का ‘आधिकारिक कर्तव्य’ नहीं है। हालांकि यह विवाद का विषय है जिसका कानूनी प्रावधान के रूप में उत्तर होना चाहिए ताकि किसी जज को भविष्य में यह शिकायत लेकर आना नहीं पड़े कि न्यायपालिका के भीतर न्याय पाने में वह असहाय है। जजों ने खुद कहा है कि ‘मुख्य न्यायाधीश सिर्फ बराबरी वालों में प्रथम हैं, न उससे कम और न ज्यादा’ और इसलिए न्याय के लिए उन्हें ‘किसी नियम के उल्लंघन’ का कोई विशेषाधिकार नही है।

लोकतंत्र तभी बच सकता है जब न्यायपालिका निष्पक्ष होकर काम करे। इसका भरोसा दिलाने के लिए न्यायापालिका के व्यापक कामकाज पर विपरीत असर डालने वाले उन ‘न्यायिक आदेशों’ को रोकने के लिए देश को कदम उठाना चाहिए जिसका दावा जजों ने उस पत्र में किया है जो मुख्य न्यायाधीश को दिया गया और ‘जिनकी चिंताओं को सुनने से’ उन्होंने कथित तौर पर मना कर दिया। इस परिस्थिति में जजों, विधायिका के सदस्यों, प्रशासनिक अधिकारियों , न्यायविदों तथा लोकप्रशासन के विशेषज्ञों तथा महत्वपूर्ण हस्तियों की एक उच्चस्तरीय कमेटी मामले की पड़ताल करे और कुछ ठोस उपाय सुझाए।

पूरे मामले की जांच तथा आरोपों के सही पाए जाने के पहले मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का विचार जल्दबाजी होगी।

यह सभी को पता है कि न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद भी सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से कार्य सौंपे जाते हैं। यह आरोप है कि कुछ लोगों को ऐसी नियुक्तियां अनुकूल फैसलों के बदले मिलता है। पहले भी कुछ जजों के खिलाफ आरोप लगे हैं कि उन्होंने अपने या अपने परिवार वालों के लिए वित्तीय लाभ प्राप्त किया है। अब यह वक्त आ गया है जब निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करने के लिए इन चीजों पर बहस की जाए।

न्यायाधीशों पर जान गंवाने का खतरा भी है। यह जजों के पत्र से स्पष्ट होता है जिन्होंने सोहराबुद्दीन फर्जा मुठभेड़ की सुनवाई कर रहे जस्टिस बीएच लोया की संदेहास्पद मौत का मुद्दा उठाया है। जजों ने कहा है कि इस ‘केस को सौंपे जाने’ को लेकर भी उन्हें शिकायत है। यह एक अत्यंत गंभीर आरोप है क्योंकि महत्वपूर्ण राजनीतिक हस्तियां इससे जुडी हैं। जजों ने कहा कि मेडिकल कालेज एडमिशन के मामले को अदालत नंबर सात को भेज दिया गया जबकि जस्टिस चेलमेश्वर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने इसे पांच सदस्यीय खंडपीठ को भेजा था जिसमें वह खुद, मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोगोई, जस्टिस लोकुर तथा जस्टिस जोसेफ थे।

उन अनियमितताओं के बारे में, जिनके बारे में जजों ने राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर कुछ नहीं बताया, की पड़ताल भी सक्षम अधिकारियों को करनी चाहिए। इतना ही नहीं, जजों ने कहा कि हाल में कई ‘अवांछित’ चीजें न्यायपालिका में घटी हैं। सुप्रीम कोर्ट का प्रशासन व्यवस्थित नहीं है और पिछले दो महीनों में न्यायपालिका में कई ऐसी चीजें हुई हैं जिनका होना जरूरी नहीं था।

स्पष्ट तौर पर, न्यायिक प्रशासन तथा जजों की नियुक्तियों की व्यवस्था में सुधार की जरूरत है। जज, जिनके बारे में समझा जाता है कि वे न्यायपालिका की रक्षा करते हैं, भी एक दूसरे पर विश्वास नहीं करते। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर इस उच्चतम संस्था के प्रति लोगों का विश्वास नहीं हटे, इसके लिए न्याय प्रदान करने के पक्के नियम बनाकर न्यायिक अनुशासन सुनिश्चित करना चाहिए। संस्था की निष्पक्षता दांव पर है। इसकी हर कीमत पर रक्षा होनी चाहिए। (संवाद)