यह बजट वित्त मंत्री सामान्य परिस्थितियों में नहीं पेश कर रहे हैं। उनके सामने असामान्य परिस्थितिया हैं। विश्व की आर्थिक मंदी अभी समाप्त नहीं हुई है। भारत ने मंदी के प्रभाव को कम करने में सफलता तो पाई है, लेकिन अभी भी इसका निर्यात सेक्टर उसके प्रभाव से मुक्त नहीं हुआ है। भारतीय मालों की मांग अंतरराष्ट्रीय बाजार में कमजोर पड़ी हुई है। और इस सेक्टर से जुड़ी उत्पादक ईकाइयों में बेरोजबारी की समस्या व्याप्त है।
अंतरराष्ट्रीय माहौल खराब होने के बावजूद भारत का औद्योगिक सेक्टर अब अच्छा प्रदर्शन कर रहा है। इसका एक कारण तो यह है कि भारत का अंतरराष्ट्रीय व्याापार बहुत छोटा है और इसका अपना खुद का घरेलू बाजार बहुत ही बड़ा। केन्द्र सरकार ने प्रोत्साहन उपायों से इा बाजार को और भी समृद्ध बनाया है, जिसके कारण इसमें मांग और भी मजबूत हुई है। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी अपनी नीतियों से आपूर्ति पक्ष को सशक्त बनाने का काम किया है। छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू कर तथा नरेगा जैसी योजनाओ की सहायता से बाजार में क्रयशक्ति को मजबूत बनाने में सरकार सफल रही और इसके कारण मांग पक्ष मजबूत बना रहा। इस तरह मंदी की समस्या से निबटने में भारत सरकार को सफलता प्राप्त हुई।
लेकिन सरकार द्वारा दिए गए प्रोत्साहनों से दो समस्याएं खड़ी हो गई हैं। पहली समस्या तो सरकार के राजकोष के घाटे का बढ़ जाना है। और दूसरी समस्या महंगाई में इसके कारण भी वृद्धि का होना है। अपने अगले बजट मे वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को मुख्य रूप से इन्हीं दो समस्याओ से टकराना होगा।
यानी राजकोषीय घाटे पर नियत्रण करना और महंगाई दूर करने के लिए राजकोषीय नीतियों का सहारा लेना वित्त मंत्री की दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं। थोक मूल्य सूचकांकों के आधार पर तैयार मुद्रसफीति की दर पिछले साल कुछ महीनों तक तो शून्य से भी नीचे चल रही थी, लेकिन अब वह 8 फीसदी से ऊपर है और 9 के आसपास पहुंच गई है। मुद्रास्फीति की दर खाने पीने की आवश्सक वस्तुओं में तो और भी ज्यादा है। यह 18 फीसदी तक जा पहुची है।
मुद्रास्फीति की इस दर पर नियंत्रण पाना केन्द्र सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। बजट केन्द्र सरकार की सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक दस्तावेज होता है, इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि अपने इस दस्तावेज में सरकार महंगाई को कम करने के लिए कितना गंभीर दिखाई पड़ रही है।
खाद्य पदार्थो में महंगाई पिछले साल मानसून की विफलता का परिणाम के रूप में देखा जा रहा है। कम से कम केन्द्र सरकार उसे पसी रूप में देख रही है। पिछले साल मानसून वास्तव में खराब रहा। उसके पहले के अनके सालों में वारिश अच्छी हुई थी। सवाल उठता है कि क्या भारत एक साल की मानसून की विफलता को बर्दाश्त नहीं कर सकता?
इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जब सात सात साल तक मानसून विफल रहा है। पिछले साल तो 7 साल के अच्छे मानसून के बाद हमें कम वारिश देखने को मिले और एक साल में ही मंहगाई ने लोगों की कमर तोड़ना शुरू कर दिया है। कल्पना कीजिए कि इस साल भी मानसून विफल हो जाता है, तो फिर क्या होगा?
जाहिर है सरकार मानसून की विफलता का हवाला देकर अपनी जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकती। भारत एक बहुत ही विशाल देश है। उसके सारे हिस्से एक साथ खराब मानसून की चपेट में नहीं आते। लेकिन सरकार ने हरित क्रांति के क्षेत्र के रूप में सिर्फ हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को ही चुना था। ये इलाके अनाज के मुख्य उत्पादक हैं और देश की आधी आबादी से ज्यादा को ये ही इलाके भोजन कराते हैं। अगर यहां मानसून विफल रहा, तो फिर सारे देश में हाहाकार मचने लगता है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पिछले कई सालों से दूसरी हरित क्रांति की चर्चा कर रहे हैं। लंकिन वे सि़र्फ चर्चा ही कर रहे हैं। उसक लिए कोई नीति अथवा रणनीति उनके दिमाग में नहीं है। क्या वित्त मंत्री से यह उम्मीद की जाए कि अपने बजट में वे दूसरी हरित क्रांति लाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाएंगे?
महंगाई के अलावा राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण रखना भी वित्त मंत्री के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। मंदी को दूर करने के लिए उन्होने अनेक किस्म के राजकोषीय प्रोत्साहन दे रखे हैं। उसके कारण खर्च बढ़े हैं और आमदनी घटी है। इसका परिणाम बढ़ता राजकोषीय घाटा है। यदि व उन प्रोतयाहनों का हटाते हैं, तो मंदी की समस्या के फिर वापस आ जाने का खतरा है और यदि नहीं हटाते हैं तो घाटे के और भी बढ़ जाने का खतरा है। राजकोषीय घाटे के बढ़ने के कारण महंगाई भी बढ़ने लगती है। जाहिर है वित्त मंत्री कठिन परिस्थितियों में अपना यह बजट पेश कर रहे हैं। (संवाद)
भारत: कैसा होगा आम बजट
वित्त मंत्री का काम आसान नहीं
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-02-23 12:50
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार का दूसरा बजट पेश करने वाले हैं। पहला बजट उन्होंने सरकार के गठन के तुरंत बाद ही किया था, लेकिन उसके पहले उनके पूर्ववर्ती पी चिदंबरम ने भी एक लेखानुदान शुरुआती 4 महीने के लिए पेश कर रखा था, इसलिए प्रणब मुखर्जी के पास करने के लिए कुछ ज्यादा नहीं था। मनमोहन सरकार के दोबारा गठन के बाद यह पहला मौका होगा, जब प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री की हैसियत से पहली बार एक नियमित बजट पेश कर रहे होंगे।