इसके लिए सरकार द्वारा लिए गए दो दुस्साहसी निर्णय जिम्मेदार हैं। नोटबंदी सरकार का एक दुस्साहसी फैसला था और उस फैसले ने दुनिया की सबसे तेज गति से विकास कर रही अर्थव्यवस्था की तेजी पर रोक लगा दी। नोटबंदी के बाद जीएसटी(वस्तु और सेवा कर) को अमल में लाना एक और साहस भरा फैसला था। यह फैसला नोटबंदी से स्तब्ध अर्थव्यवस्था के माहौल में किया गया। अप्रत्यक्ष कर की यह व्यवस्था हमारे देश के लिए जरूरी है, इसका एहसास पिछले कई सालों से किया जा रहा था। जब इसे लागू किया गया, उस समय तक इस मसले पर देश में लगभग सहमति हो गई थी। जाहिर है, सिद्धांत तौर पर इसका विरोध करने वाले लगभग नदारत थे, पर एक खराब आर्थिक माहौल में इसे लागू करने के खतरों को पहले से ही देखा जा सकता था।
दरअसल नोटबंदी एक व्यर्थ की एक ऐसी कवायद थी, जिसने देश के अर्थतंत्र को बुरी तरह झकझोर दिया था। असंगठित क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था। करोड़ों लोग बेराजगार हो गए। लाखों उद्यमियों के उद्यम लंबे समय तक प्रभावित होते रहे और उनमें तो कई बंद ही हो गए। वैसे माहौल में वस्तु और सेवा कर की व्यस्था को अमली जामा पहनाना आसान नहीं था। उसके अलावा उसके लिए की गई तैयारी भी अपर्याप्त थी। फिर क्या था, नोटबंदी के कारण बाजार में जो खूनखराबा हुआ था, वह शांत होने के पहले ही एक बार फिर तेज हो गया।
जब बाजार खतरे में हो, तो सार्वजनिक जीवन के अन्य हिस्से उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। राजनीति पर इसका प्रभाव पड़ता ही है। संयोग से गुजरात का चुनाव उसी समय हो रहा था, जब जीएसटी के कारण बाजार एक बार फिर तबाही के दौर से गुजर रहा था। सरकार भले ही बाजार की ओर देखना बंद कर दे, लेकिन जब चुनौती चुनाव जीतने की हो, तो अन्य सारी बातें कम महत्वपूर्ण हो जाती है। इसलिए जीएसटी से परेशान व्यापारियों को गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान राहत देते हुए अनेक आयटमों पर लगाए जाने वाली जीसटी दरें कम कर दी गईं। इसका चुनाव में सरकार को फायदा भी हुआ। भारतीय जनता पार्टी हारते हुए गुजरात चुनाव को जीतने में सफल हो गई। जिस सूरत में व्यापारियों ने सरकार के खिलाफ जीएसटी को लेकर जबर्दस्त आंदोलन चलाए और पुलिस की लाठियां खाईं, उस सूरत की 16 में से 15 विधानसभा सीटों पर सरकारी भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीत गई।
जीएसटी की दरों को कम कर सरकार ने बाजार को सहारा दिया। बदले में बाजार के लोगों ने सरकारी पार्टी को जीत दिला दी, लेकिन नई कर व्यवस्था के कारण जो नया गुबार उठ रहा था, उसकी चपेट में किसी न किसी को तो आना ही था। अनेक आयटमों की जीएसटी की दरें कम किए जाने के बाद तत्काल 10 हजार करोड़ रुपये के कर राजस्व में कमी आ गई। यह कमी अगले महीने भी देखने को मिली। जाहिर है, इस वित्तीय वर्ष के अंतिम छह महीने में 50 हजार करोड़ रुपये के राजस्व की हानि गुजरात चुनाव के दौरान कम की गई के कारण होने वाली है। सरकार को भी पता है कि ऐसा ही होने वाला है। इसलिए उसने बाजार से 50 हजार करोड़ रुपया कर्ज लेने का फैसला कर लिया है।
व्यक्ति का कर्ज हो या सरकार का यह मुफ्त नहीं मिलता। इसे ब्याज सहित लौटाना पड़ता है। केन्द्र सरकार ने जो 50 हजार का कर्ज लेने का फैसला किया है, उसे भी उसे ब्याज सहित लौटाना होगा। वैसे सरकार पहले भी घरेलू बाजार से ही नहीं, बल्कि विदेशी बाजारों से भी कर्ज उठाती रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक से भी कर्ज लिए जाते रहे हैं, लेकिन वे अधिकांश कर्ज पूंजी निर्माण के लिए ही लिए जाते थे और बजट निर्माण के समय ही यह तय हो जाता था कि सरकार का राजस्व कहां से आएगा और विकास के लिए कितने कर्ज लिए जाएंगे।
लेकिन इस बार तो जीएसटी की दरों में हुई कटौती के कारण राजस्व की जो हानि हो रही है, उसे भरने के लिए सरकार ने 50 हजार करोड़ रुपये का कर्ज लेने का फैसला किया है। जाहिर है, सरकार के सामने राजस्व संकट मंडरा रहा है और राजस्व संकट एक बड़े राजकोषीय संकट में तब्दील हो सकता है।
जीएसटी से सरकार को बहुत उम्मीदें थीं। खासकर उन राज्य सरकारों को, जिनका राजस्व प्राप्ति का रिकाॅर्ड बहुत ही खराब रहा है, उन्हें लगता था कि इसके द्वारा राजस्व उगाहने का एक मजबूत तंत्र उनके हाथ आ जाएगा, लेकिन यदि अलग अलग राज्यों के लिए राजस्व उगाही की तस्वीर को देखें, तो स्थिति बहुत उत्साहजनक नहीं है। कुछ ऐसे राज्य भी थे, जिन्हे लगता था कि नई कर व्यवस्था के युग में उनकी राजस्व उगाही कम हो सकती है। उत्पादक राज्यों को इसकी चिता ज्यादा थी और शुद्ध उपभोक्ता राज्यों को लग रहा था कि उन्हें नई व्यवस्था में फायदा होगा।
अब जब उपभोक्ता राज्यों के सामने ही राजस्व का संकट पैदा हो रहा है, तो उत्पादक राज्यों के सामने तो राजस्व की हानि और ज्यादा होगी। वैसे केन्द्र सरकार ने यह वायदा कर रखा है कि राजस्व उगाही में यदि राज्यों को नुकसान हुआ तो केन्द्र सरकार उसकी भरपाई कर देगी। पर सवाल उठता है कि केन्द्र सरकार के पास राज्यों के राजस्व घाटा को पूरा करने के लिए कुबेर का खजाना कहां से लाएगी?
केन्द्र सरकार बाजार से 50 हजार करोड़ रुपये की उगाही कर रही है। वह चाहे तो विदेशी बैंकों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से भी कर्ज ले ले, लेकिन राज्य की सरकारें कहां से कर्ज लेंगी? उसके पास कर्ज लेेने के लिए तो केन्द्र सरकार ही है और उस राज्यों को सहायता देने के लिए या कर्ज देने के लिए खुद ही कर्ज लेना पड़ेगा। इस तरह कर्ज का एक ऐसा चक्र चलेगा, जिसके अंदर अर्थतंत्र चक्कर खाता रहेगा। (संवाद)
बीमार होती बैंकिंग व्यवस्था कैसे पटरी पर आए?
राजकोष का भी हाल खस्ता
उपेन्द प्रसाद - 2018-01-22 09:41
बैंकों की हालत बदतर होती जा रही है। उन्होंने जो कर्ज जारी किए हैं, उनमें से 8 लाख करोड़ से भी ज्यादा डूबने वाले कर्जो की श्रेणी में आ गए हैं। अपने खस्ताहाल को ठीक करने के लिए बैक जो कदम उठा रहे हैं, उनसे उनकी साख जमाकत्र्ताओं के बीच गिरती जा रही है। इस गिरती साख के कारण भी उसके नुकसान उठाना पड़ेगा, क्योंकि लोग अपनी बचत के लिए कोई और तरीका ढूुंढ़ रहे हैं। सरकार से राजकोष से बैंकों को मदद पहुंचान की कोशिश कर रही है, लेकिन उसके राजकोष भी इतना मजबूत नहीं है कि वह बैंकों को सपोर्ट कर सके। आखिर इस तरह का संकट पैदा कैसे हुआ?