जिन विधायकों पर आरोप लगाया गया था, उनकी सदस्य संख्या 21 थी। उन पर आरोप लगाया गया था कि उन्हें केजरीवाल सरकार ने मंत्रालयों के संसदीय सचिव बना दिए थे और संसदीय सचिव का पद लाभ का पद होता है। लिहाजा, उनकी सदस्यता समाप्त करने की अपील राष्ट्रपति से की गई थी। राष्ट्रपति ने वह मामला निर्वाचन आयोग के सुपुर्द कर दिया था। आयोग ने राष्ट्रपति से सिफारिश की कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप सही थे और उनकी सदस्यता समाप्त कर दी जानी चाहिए। राष्ट्रपति ने उनकी अनुशंसा मानते हुए उनकी सदस्यता समाप्त कर दी। गौरतलब हो कि 21 में से एक विधायक ने पंजाब विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए पहले ही दिल्ली विधानसभा से इस्तीफा दे दिया था। इसलिए राष्ट्रपति के आदेश के बाद 20 विधायकों की सदस्यता समाप्त कर दी गई।
राष्ट्रपति ने भी बहुत ही जल्दबाजी में अपना आदेश जारी किया। जिन 20 विधायकों की सदस्यता समाप्त करने की सिफारिश की गई थी, वे राष्ट्रपति से मिलकर अपना पक्ष रखना चाहते थे। राष्ट्रपति को चाहिए था कि अपना आदेश जारी करने के पहले वे एक बार उनसे मिलकर उनकी बात सुन लेते और उसके बाद भले ही वे निर्वाचन आयोग की अनुशंसा स्वीकार करते हुए उनकी बर्खास्तगी के आदेश जारी कर देते। लेकिन उन्होंने जो हड़बड़ी दिखाई, उसे उचित नहीं कहा जा सकता है। आखिर वे विधायक चुने हुए प्रतिनिधि थे। उनका हक तो यह बनता ही था कि वे राष्ट्रपति के सामने अपना पक्ष रखते।
राष्ट्रपति के पास शायद निर्वाचन आयोग की अनुशंसा मानने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था, क्योंकि उन्होनंे ही आयोग से उस मसले पर सलाह मांगी थी, लेकिन यदि आदेश जारी करने के पहले वे विधायकों से मिल लेते, तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे चुने हुए प्रतिनिधियों का मान बढ़ता और राष्ट्रपति पद की प्रतिष्ठा भी बढ़ जाती। अब उन पर आरोप लग रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के एक नेता के रूप में उन्होंने यह आदेश जारी किया है।
राष्ट्रपति के आदेश को अपनी जगह यदि हम सही भी मान लें, तो निर्वाचन आयोग के फैसले को तो सही हरगिज नहीं कहा जा सकता। विधायकों ने हाई कोर्ट में भी याचिका दायर कर रखी थी। हाई कोर्ट में भी उसकी सुनवाई चल रही थी। यह सच है कि हाई कोर्ट ने निर्वाचन आयोग में चल रही कार्रवाई पर रोक नहीं लगाई थी, लेकिन फिर भी न्यायपालिका का सम्मान करते हुए आयोग हाई कोर्ट में चल रहे मामले का अंजाम तो देख ही सकता था। लेकिन उसने ऐसा करना जरूरी नहीं समझा।
आम आदमी पार्टी और उसके विधायकों का कहना था कि संसदीय सचिव के जिस पद पर उन्हें बैठाया गया था वह लाभ का पद नहीं था, क्योंकि उसके कारण उन विधायकों को किसी भी प्रकार का वित्तीय लाभ नहीं दिया जा रहा था। उन्हें उसके लिए अलग से कोई भत्ता भी नहीं मिला था और मकान अथवा गाड़ी जैसी कोई सुविधा भी नहीं मिली थी। गौरतलब हो कि दिल्ली के विधायकों को सरकारी मकान नही दिए जाते, क्योंकि सभी दिल्ली के ही होते हैं और सबका यहां अपना घर होता है, भले वे घर उनके अपने स्वामित्व वाले हों या किराये वाले। संसदीय सचिव बनने के बाद भी उन विधायकों को मकान नहीं मिले और कोई अन्य सहूलियत भी नहीं मिले।
इसलिए वे विधायक यह दलील दे रहे थे कि संसदीय सचिव पर रहते हुए उन्होंने यदि किसी प्रकार का लाभ लिया ही नहीं, तो फिर उनके उस पद को लाभ का पद कैसे कहा जा सकता है? इसका कोई जवाब अभी तक कहीं से नहीं मिला है।
उन विधायकों का दूसरा तर्क तकनीकी है। उनके संसदीय सचिव बनने को दिल्ली हाई कोर्ट में भी चुनौती मिली थी। हाई कोर्ट ने उनकी उस पद पर हुई नियुक्ति को ही अवैध घोषित की दिया था। उस आदेश के बाद उनकी नियुक्ति ही जब अमान्य हो गई थी, तो तकनीकी रूप से वे एक दिन या एक मिनट के लिए भी संसदीय सचिव थे ही नहीं। अब यदि वे संसदीय सचिव थे ही नहीं, तो फिर उन्हें उस पद पर बैठा हुआ माना ही नहीं चाहिए। और जब हाई कोर्ट आदेश के तहत वे एक मिनट के लिए भी वैध रूप से संसदीय सचिव नहीं थे, तो फिर उस पद पर बैठने का दोषी उन्हें कैसे माना जा सकता? इस सवाल का जवाब भी कहीं से नहीं मिल रहा है।
दिल्ली सरकार में पहले भी संसदीय सचिव रह चुके हैं। शीला दीक्षित की सरकार में अजय माकन भी संसदीय सचिव थे। वे इस समय दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमिटी के सदस्य हैं। केजरीवाल से वे 20 विधायकों की सदस्यता जाने के बाद इस्तीफा मांग रहे हैं, पर वे भूल रहे हैं कि वे भी कभी शीला दीक्षित के संसदीय सचिव थे और न तो इसके कारण उन्हें हटाया गया था और न ही इस्तीफा दिया था।
संसदीय सचिव और लाभ के पद पर विधायको के बैठे होने का मामला अन्य अनेक राज्यों से आ रहा है। सच कहा जाय तो आम आदमी पार्टी ने निर्वाचन आयोग के पास छत्तीसगढ़ में विधायकों के संसदीय सचिव बने होने का मामला उठाया था, लेकिन उस पर किसी तरह की कार्रवाई अब तक नहीं हुई है। अन्य अनेक राज्यों मे भी संसदीय सचिव के पद पर विधायक बैठे हुए हैं और शायद उससे कुछ लाभ भी उठा रहे हों। उन सबका मामला अब आयोग के पास आएगा। क्या आयोग का रवैया उन मामलों में भी वैसा ही रहेगा, जैसा दिल्ली के 20 विधायकों के मामले में रहा है? (संवाद)
        
            
    
    
    
    
            
    लाभ का पद और दिल्ली के विधायक
निर्वाचन आयोग का अनुचित फैसला
        
        
              उपेन्द्र प्रसाद                 -                          2018-01-24 14:13
                                                
            
                                            आखिर दिल्ली में वही हुआ, जिसकी आशंका थी। वैसे यह गलत हुआ। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत की इसमें पूरी तरह अवहेलना हुई। यह सिद्धांत यह है कि आरोपी को अपना पक्ष रखने का पूरा समय दिया जाता है और उसके बाद ही कोई निर्णय किया जाता है। लेकिन राष्ट्रीय निर्वाचन आयोग ने उन विधायकों को अपनी बात रखने का पूरा मौका नहीं दिया, जिन पर लाभ के पद पर रहने का आरोप लगाया गया था।