कांग्रेस सहित दूसरे विपक्षी दल इस बयान को देश की सेना का अपमान करार दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही है। तरह-तरह के चुटकुलों के जरिए भागवत और संघ की खिल्ली भी उडाई जा रही है। संघ और भाजपा की ओर से भागवत के बयान का बचाव करते हुए उस पर सफाई पेश की जा रही है। कहा जा रहा है कि उनके बयान का गलत अर्थ निकाला जा रहा है। इस सबके बीच भागवत के बयान के निहितार्थों पर चर्चा लगभग नहीं के बराबर हो रही है।

दरअसल, मोहन भागवत का बयान न तो जुबान फिसलने वाला मामला है और न ही वह सेना का अपमान करने के मकसद से दिया गया है। वह बेहद सोचा-समझा और नपा-तुला बयान है, जिसे महज खिल्ली उड़ाकर या कठोर तंज कस कर खारिज नहीं किया जा सकता।

जो भी व्यक्ति संघ को और उसके काम करने के तरीके को ठीक तरह से जानता है उसे मालूम है कि संघ का हर काम संगठित और योजनाबद्ध तरीके से होता है। सर संघचालक को कब क्या बोलना है, कैसे बोलना है और कितना बोलना है, यह भी पूरी तरह श्सु’नियोजित होता है। उनके बयान चाहे मुसलमानों की कथित बढ़ती आबादी के संबंध में हो, भारतीय विवाह संस्था के बारे में हो, हर हिंदू को चार से अधिक बच्चे पैदा करने की सलाह देने वाला हो, दलितों आदिवासियों और पिछड़े वर्गों के आरक्षण को लेकर हो, लडकियों और महिलाओं के पहनावे को लेकर हो या फिर बलात्कार जैसे अपराधों को आधुनिक शिक्षा का परिणाम बताने वाला हो, हर बयान के पीछे संघ की विचारधारा और मकसद छुपा होता है। ऐसे बयान भले ही किसी को बकवास, हास्यास्पद या निंदनीय लगे लेकिन संघ परिवार के लिए उसके गहन-गंभीर मायने होते हैं। इसलिए संघ और उसके ढेर सारे बगल-बच्चा (आनुषांगिक) संगठनों की कार्यप्रणाली से वाकिफ लोगों को भागवत के ताजा बयान पर ताज्जुब नहीं होना चाहिए।

देश के हर शहर, गाँव, मोहल्ला, गली, सरकारी-गैर सरकारी दफ्तरों, स्कूलों और मैदानों में संघ और उससे जुडे अन्य संगठनों के स्वयंसेवक हिंदुत्व की खास विचारधारा के तहत नियमित जुटते हैं और अनुशासित ढंग से अपने एजेंडे पर काम करते हैं। सेना की वर्दी के समान प्रतीकात्मक तौर पर संघ के स्वयंसेवक भी खाकी निक्कर, सफेद शर्ट, काली टोपी और लाठी धारण करते हैं। हालांकि निक्कर का स्थान अब कुछ दिनों पहले फुल पैंट ने ले लिया है। संघ की शाखाओं में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है, लेकिन सहयोगी संगठनों में महिलाओं के लिए दुर्गा वाहिनी जैसे संगठन हैं, जो अपने मूल संगठन के एजेंडे के तहत काम करते हैं। वर्षों से देखने में आता रहा है कि हर साल दशहरा के अवसर पर पथ संचालन के नाम पर देश के तमाम शहरों और गांवों में संघ के स्वयंसेवक सेवक अपनी वर्दी धारण कर तथा लाठियाँ लेकर सडकों पर निकल कर अपना शौर्य प्रकट करते रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से लाठियों के साथ अब अक्सर तलवारों, बंदूकों और अन्य हथियारों का प्रदर्शन भी होने लगा है। दुर्गा वाहिनी में शामिल महिलाएं भी ऐसे हथियारों का प्रदर्शन करती हैं। शस्त्र पूजा के नाम पर इन हथियारों की पूजा भी की जाती है। संघ अपने स्वयंसेवकों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देने के लिए समय-समय पर शिविरों का आयोजन भी करता है। इन शिविरों में सेना के अवकाश प्राप्त अफसरों को प्रशिक्षण देने के लिए बुलाया जाता है। केरल, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में तो ऐसे कई ठिकाने हाल के वर्षों में पकड़ में भी आए हैं जहां से पुलिस ने भारी मात्रा विस्फोटक सामग्री बरामद की है।

संघ देश में किसी बडी आपदा के मौके पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए राहत और बचाव कार्य में भी हिस्सा लेता है। जैसे गुजरात के मोरवी में मच्छू बांध के टूटने से आई प्रलयंकारी बाढ और कच्छ और भुज में आए विनाशकारी भूकंप के वक्त। लेकिन ये उसके दिखाने के दांत है, खाने के नहीं। युद्ध की स्थिति में देश में नागरिकों के लिए कई कर्तव्य होते हैं, जो वे अपने-अपने स्तर पर निभाते भी हैं। 1962 में चीन आक्रमण के दौरान शहरी यातायात संभालने में संघ के स्वयंसेवकों ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संघ की इस भूमिका के लिए प्रशंसा की थी, जिसका हवाला देकर संघ के नेता और समर्थक अक्सर यह आभास कराने की कोशिश करते हैं कि वह एक सेवाभावी सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है।

सवाल है कि अगर संघ वास्तव में एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है तो फिर उसे हथियारों का प्रदर्शन करने, अपने स्वयंसेवकों को मारक हथियार चलाने का प्रशिक्षण देने का क्या औचित्य है? यह सब किसे डराने और किसके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए किया जाता है? इस तरह की गतिविधियां किस सांस्कृतिकता के तहत आती है और इनसे किस किस्म का सामाजिक सद्भाव कायम होता है?

यह गौरतलब है कि संघ 93 वर्ष पुराना संगठन है। भागवत से पहले भी उसके पांच सर संघचालक हो चुके हैं। संघ की जो गतिविधियां आज चल रही हैं, वे भागवत के सर संघचालक बनने से पहले से जारी हैं। लेकिन इससे पहले किसी सर संघचालक ने ऐसा बयान नहीं दिया था, जबकि उनके दौर में देश को युद्ध की स्थिति का सामना भी करना पडा है, और उस समय भारत की सैन्य क्षमता भी आज जैसी विकसित नहीं थी। आज तो युद्ध जैसी कोई बात अभी तक नहीं है। अगर भविष्य में युद्ध की स्थिति बनती भी है तो भारत की सैन्य क्षमता पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा विकसित है और भारतीय सेना किसी भी चुनौती का मुकाबला करने में हर तरह से सक्षम है। फिर भी आज भागवत को यह बयान देने की जरुरत क्यों महसूस हुई?

दरअसल, वास्तविक अर्थों में संघ एक देशव्यापी मिलिटेंट यानी उग्रपंथी संगठन है। हिंदुत्व की खास विचारधारा के तहत एक व्यापक एजेंडे के तहत वह काम करता चला रहा है। राजनीतिक ताकत भी उसने पर्याप्त तौर पर अर्जित कर ली है, जिसके बूते वह केंद्र सहित देश के 19 राज्यों में सत्ता पर काबिज है। वर्षों की तैयारी और सत्ता प्रतिष्ठान के सहयोग से वह देश में एक सशस्त्र ताकत के तौर पर तैयार हो चुका है। सेना के कई अवकाश प्राप्त अफसर संघ के विभिन्न आनुषांगिक संगठनों में काम कर रहे हैं। संघ प्रमुख भागवत का बयान उनके संगठन की इसी क्षमता को व्यक्त करने वाला है। उनके बयान का सीधा आशय यह है कि आज जरुरत नहीं है, क्योंकि आज तो हम सत्ता में हैं, लेकिन कल अगर हमारे प्रतिकूल कोई स्थिति आई तो संघ की यह सैन्य तैयारी भारतीय सेना को भी चुनौती दे सकती हैं और देश में गृहयुद्ध छेड कर उथल-पुथल मचा सकती है। इसकी प्रवृत्ति आईएस या तालिबान जैसी हो सकती है। संविधानेत्तर तरीकों से सत्ता पर कब्जा करने के अलावा यह दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की हत्याएं कर सकती है, जिसका छिटपुट सिलसिला कहीं गोरक्षा के नाम, कहीं कथित लव जेहाद के नाम पर, कहीं रोमियो स्कवॉड की आड में तो कहीं वंदे मातरम्, भारतमाता और तिरंगे की आड में अभी भी चल ही रहा है। कुल मिलाकर भागवत का बयान देश के अन्य वर्गों, देश की साझा संस्कृति व धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों में यकीन रखने वाले लोगों और संघ की विचारधारा से असहमति रखने वाली सामाजिक-राजनीतिक ताकतों के लिए एक संगीन चेतावनी है, जिसे न तो महज सेना के अपमान से जोड़कर देखा जा सकता है और न ही उसकी खिल्ली उडाकर खारिज किया जा सकता है। (संवाद)