इसी गुणअवगुण के कारण इसके भविष्य और प्रभाव के बारे में विवाद बना हुआ है । यह लकड़ी का तेजी से बढऩे वाला रुाोत है । इसका तेल सफाई के काम आता है और यह एक प्राकृतिक कीटनाशक के रूप में भी काम करता है । कभी-कभी इसका उपयोग कीचड़दलदल को सुखाने के लिये भी किया जाता है ताकि मलेरिया के खतरे को कम किया जा सके ।

यूकेलिप्टस का अर्थ होता है पूर्णत: आच्छादित अथवा पूरा ढका हुआ । इसकी ऊंचाई 100 मीटर तक पाई जाती है और यह सबसे ऊंचा पेड़ है जिसमें फूल आते हैं । यूकेलिप्टस की कोई सात सौ प्रजातियां होती हैं, जिनमें से अधिकांश आस्ट्रेलिया में पाई जाती हैं । आस्ट्रेलिया के पड़ौसी देश न्यूगिनी और इंडोनेशिया के अलावा उसके सुदूर उत्तर में फिलीपीन्स द्वीप समूह में भी कुछ गिनी-चुनी हुई प्रजातियां पाई जाती हैं । यूकेलिप्टस की विभिन्न प्रजातियां अमेरिका, इंगलैंड, अफ्रीका और भूमध्यसागरीय कछार, मध्यपूर्व, चीन और भारतीय उपमहाद्वीप सहित उष्ण कटिबंधीय तथा उपोष्ण क्षेत्रों में उगायी जाती हैं । वन विभाग द्वारा यूकेलिप्टस के बाग पहली बार 1887 में तुमकुर (कर्नाटक) जिले के मालाबावी में लगाये गए थे ।

यूकेलिप्टस के वृक्षों को विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है । माउन्टेन ऐश, विक्टोरियन ऐश, स्वैम्प्स गम, तस्मानियन ओक और सिं्ट्रगी गम जैसे अनेक नामों से यह वृक्ष लोकप्रिय है । इनमें से अधिकांश पेड़ों को गोंद पैदा करने वाले पेड़ के रूप में जाना जाता है , क्योंकि उसकी छाल को काटने पर उसमें से गाढे़ दूध जैसा चिपचिपा रसीला द्रव निकलता है । यह एक सदाबहार वृक्ष है , जिसका तना सिलेटी रंग का और सीधा होता है तथा खुरदुरे आधार को छोड़कर पूरी डाल चिकनी होती है ।

प्राकृतिक वास

रैगलन्स यूकेलिप्टस आम तौर पर शीतल, अधिकतर पर्वतीय क्षेत्रों में एक हजार मीटर की ऊंचाई के अति वर्षा वाले इलाकों में पाया जाता है । इसके वृक्ष बड़ी तेजी से बढत़े हैं, और 50 वर्षों में ही 65 मीटर की ऊंचाई प्राप्त कर लेते हैं । इनकी औसत आयु 400 वर्ष होती है । गिरे हुए पेड़ों के लट्ठे वनभूमि पर अनेक प्रकार के जीवों को सहारा देते रहते हैं । असामान्य तौर से यूकेलिप्टस के बीज गर्मी पाकर उसके लकड़ी जैसे कैप्सूल (गोंद की डली) से फूटकर निकलते हैं । अंकुरण की सफलता के लिये काफी प्रकाश की आवश्यकता होती है, जो कि पूरे परिपक्व वृक्ष की छाया के कारण नीचे जमीन तक प्राय: नहीं पहुंच पाता । प्रतिस्पर्धा और प्राकृतिक रूप से छंटाई के कारण अंतत: परिपक्व वृक्षों का घनत्व प्रतिहेक्टेयर तीस से चालीस पेड़ों का ही रह जाता है ।

उपयोग

यूकेलिप्टस का उपयोग अनेक कार्यों में होता है । निर्माण कार्यों में इमारती लकड़ी के अलावा फर्नीचर, प्लाईवुड, कागज और लुगदी, औषधि, तेल और जलाऊ र्इंधन के रूप में यूकेलिप्टस का उपयोग होता है । इससे त्वचा के लिये उपयोगी मलहम बनाया जाता है । दर्द दूर करने और घाव भरने की क्षमता इसके तेल में पाई जाती है । फटे हुए हाथों, रूसी , पैरों में सूजन, ग्रंथियों की वृद्धि , छाती , हाथों , पीठ तथा पांवों में दाग के अलावा जोड़ों और मांसपेशियों के दर्द में ये राहत प्रदान करता है ।

रैगलन्स और अन्य प्रजातियों के यूकेलिप्टस के पेड़ इमारती लकड़ी के लिये बड़े उपयोगी माने जाते हैं और इसीलिये बड़ी मात्रा में उनके और वन-बाग लगाए जाते हैं । प्रारंभिक तौर पर उसका उपयोग लट्ठे और लकड़ी के चिप्पड़ तैयार करने में होता है। इसे अखबारी कागज (न्यूजपिं्रट) का महत्वपूर्ण रुाोत माना जाता है । इसकी लकड़ी के चिप्पड़ का निर्यात अधिकतर जापान को होता है । यह मझौले वजन वाली इमारती लकड़ी 680 किलोग्राम मीळ (मीटर की घात 3) होती है और इसकी बनावट खुरदरी तथा रेशेदार होती है । इसकी लकड़ी पर काम करना आसान होता है । इसके तंतु लंबे और सीधे होते हैं और उनसे काटी लकड़ी में गांठे नहीं होतीं ।

भारत में यूकेलिप्टस की उत्पादकता

यूकेलिप्टस बागान की उत्पादकता उसके स्थान, मिट्टी और जलवायु तथा उत्पादक सामग्री के इस्तेमाल पर निर्भर करती है । औसत उत्पादकता 6-7 घनमीटर प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष होती है । कम उत्पादकता का प्रमुख कारण उसके पत्तों पर लगने वाले कीड़े से पैदा होने वाला रोग है । इसके अलावा संकरण का सूत्र भंजन, दो वृक्षों के बीच समुचित स्थान का अभाव, पौधशालाओं में अपनायी जाने वाली पुरानी तकनीक, अच्छे बीजों की कमी, प्रजातियों और उद्गम स्थल का बेमेल होना तथा उत्पादन की उचित पद्धतियों को नहीं अपनाया जाना शामिल है । यूकेलिप्टस के बागान (जंगलों) की उत्पादकता और अंत में उसकी उपयोगिता में वृद्धि के लिये उत्कृष्ट जीन वाली प्रजातियों की पहचान कर ली गई है । आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक के प्रयोग से यूकेलिप्टस की उत्पादकता में वृद्धि में उल्लेखनीय सफलता मिली है ।

पौधशाला तकनीक

आमतौर पर पौधशालाओं के गमलों में तैयार किए गए पौधों को बागों में लगाकर यूकेलिप्टस की खेती होती है । बीज को आमतौर पर बालू में मिलाकर पौधशाला की क्यारियों में बोया जाता है । बीजों पर बालू की हल्की पर्त बिछायी जाती है । उत्तर-भारत में सितम्बर -अक्तूबर तथा फरवरी-मार्च के महीने पौधशालाओं में बीज बोने के लिये उपयुक्त होते हैं । अंकुरण एक सप्ताह में शुरू हो जाता है और 2-3 हपऊतों में पूरा हो जाता है । बीजपत्र से ऊपर जब कोपलों का दूसरा जोड़ा निकल आता है, पौधों को वहां से निकालकर बागों में लगाने के लिये वे तैयार हो चुके होते हैं । पौधों को निकालकर पालीथीन की थैलियों में रोपा जाता है । वानस्पतिक विस्तार के लिये अनेक प्रकार की पद्धतियों यथा पौध लगाना , हवा में छिड़काव, कलम लगाना, तनों को काट कर लगाना और टिश्यू कल्चर का उपयोग किया जाता है । पास-पास लगाए गए पौधों के अलावा प्राय: सभी पौधे सकुशल जीवित बच जाते हैं । भारत में पौध रोपण का समय मानसून पर निर्भर करता है । परन्तु दो पौधों के बीच में कम फासला होना प्रतिहेक्टेयर उत्पादकता को प्रभावित करता है ।

घूर्णन आयु

पंजाब, हरियाणा, गुजरात और उत्तर प्रदेश के सरकारी वन विभाग आठ वर्षों के अंतर पर घूर्णन पद्धति से यूकेलिप्टस के पौधे लगाने का काम करते हैं । साधारण पौधशाला अथवा समय-समय पर काटकर लगाये जाने वाले पौधों से यूकेलिप्टस के बागान तैयार किये जाते हैं । किसानों ने घूर्णन का चक्र अब घटाकर 4 से 6 वर्ष कर दिया है ।

क्षेत्रीय विशेषज्ञ परामर्श की सिफारिशें

क्षेत्रीय विशेषज्ञ परामर्श की मुख्य सिफारिशें हैं - सरकारी नीतियों में वन एवं बागान प्रबंधन में सहभागिता के दृष्टिकोण के लिये प्रावधान करना और मनुष्य द्वारा वन विकास की नीतियों का लक्ष्य तय करना । ये लक्ष्य इमारती लकड़ी, जलाऊ र्इंधन, रेशे, चारा कागज आदि की बढत़ी मांग को पूरा करने हेतु तय किए गए हैं ताकि प्राकृतिक वनों पर पड़ रहे भारी दबाव को कम किया जा सके और वनों को बचाया जा सके । इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि पर्यावरण पहलू को देखते हुए सामुदायिक विकास में योगदान दिया जा सके और जिन बिगड़े वनों की पारिस्थितिकी को लघु अवधि में दुरुस्त नहीं किया जा सकता हो, उनकी पुरानी स्थिति को बहाल किया जाए और उनकी रौनक वापस लाई जाए ।

अन्य परामर्शों में राष्ट्रीय भूमि उपयोग और वन नीतियों की समीक्षा और उनको अद्यतन बनाना शामिल है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये नीतियां सामाजिक रूप से उचित, आर्थिक रूप से समान्य तथा पर्यावरण की दृष्टि से ठोस हों । साथ ही, स्थानीय समुदायों, उपयोग कर्ता समूहों, मानव निर्मित वनों के प्रबंधन से जुड़े विभिन्न प्रकार के निजी उद्यमों को अधिक स्वतंत्रता के साथ-साथ पर्याप्त उत्तरदायित्व भी सौंपा जा सके ताकि वे बागों के प्रबंधन में उचित भूमिका निभायें । वनोपज के उत्पादकों को सहकारिताओं को स्थापित और सुदृढ ब़नाने के लिये प्रोत्साहित करना, कम पानी वाले इलाकों में यूकेलिप्टस की पैदावार बढा़ने के लिए विशेष देखभाल करना, मिट्टी पानी का एकीकृत प्रबंधन, प्रचालन और समायोजन करना, मिट्टी की सतह पर पोषक तत्वों का प्रबंधन करना और मौजूदा बागान में पौधों के बीच फासले बढा़ना, वर्षा पर निर्भर वनों में मिले-जुले पौधों के बाग लगाना आदि के बारे में भी परामर्श दिया गया है ।

विशेषज्ञों की यह सलाह भी है कि यूकेलिप्टस की लकड़ी काटने के बाद उसकी छाल और फूल पत्तियों के कचरे को बागों में ही पड़ा रहने देना चाहिए क्योंकि पेड़ के इन भागों में पौष्टिक तत्वों की बहुलता होती है । एक फसल से दूसरी फसल लेने के बीच की अवधि में मिट्टी के पोषक तत्वों के संतुलन और पुनर्चक्रण क्षमता पर निरंतर निगरानी रखी जानी चाहिए । प्राकृतिक रूप से स्वस्थ वनों के स्थान पर यूकेलिप्टस के वन लगाने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिए । यदि जैव विविधता के संरक्षण को प्राथमिकता देना है तो अवश्य यूकेलिप्टस के बाग, प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्रों के लिये बफर क्षेत्र का काम कर सकते हैं । यह भी सुझाव दिया गया है कि जहां पर संभव हो यूकेलिप्टस को स्थानीय वनस्पति के साथ पच्चीकारी की तरह लाया जाना चाहिए । वृक्ष प्रजनन कार्यक्रम को सुदृढ ब़नाया जाना चाहिये । इसमें निजी क्षेत्र के कार्यक्रम को भी शामिल किया जाना चाहिए ।

इसके अतिरिक्त विशेषज्ञों की सलाह है कि कतिपय अनुसंधान और विकास गतिविधियों का काम भी हाथ में लिया जाना चाहिए । इसमें विभिन्न प्रजातियों का उन स्थलों से मिलान जहां उनको लगाया जाना है, भूमि उपयोग के विविध रूपों के तौर पर वृक्षों की अन्य प्रजातियों के साथ -साथ अथवा उनके विकल्प के रूप में यूकेलिप्टस के उत्पादन पर अध्ययन, खराब मिट्टी और अच्छी मिट्टी में पोषक तत्वों के चक्रण पर अध्ययन, आनुवांशिक रूप से संशोधित बीजों और वानस्पतिक रूप से तैयार पौध रोपण सामग्री के उत्पादन और आपूर्ति के लिये वृक्ष प्रजनन कार्यक्रम, यूकेलिप्टस की उपज और पैदावार में वृद्धि से संबंधित आंकड़ों का संकलन, और अत्यधिक जैव कचरे के उत्पादन अथवा उसको हटाए जाने से पर्यावरण पर पड़ने वाले संभावित विपरीत प्रभाव पर निगरानी के लिये अधिकतम भंडारण का निर्धारण शामिल है । मानवनिर्मित वनों के प्रबंधन और स्थापन में यूकेलिप्टस की वानिकी से जुड़े सामाजिक और संस्थागत मुद्दों पर अधिक अध्ययन की सलाह भी दी गई है । इसमें वन नीतियों, कानून, भूमि , काश्तकारी, उत्पादकों (किसान, सरकारी एजेंसियों और निजी कंपनियों) की भूमिका शामिल है । उन वनों पर विशेष रूप से जोर दिया गया है जो तेजी से बढऩे वाले वृक्षों की प्रजाति से जुड़े हैं । यूकेलिप्टस की वानिकी के आर्थिक प्रभाव, लागत और लाभ, उत्पादों का विविधीकरण (यथा शहद, तात्विक तेल आदि) प्रसंस्करण और विपणन व्यवस्था के बारे में अध्ययन और शोध की सिफारिश की गई है ।

यूकेलिप्टस वानिकी के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों को मापने के लिये निगरानी और मूल्यांकन प्रणालियों के विकास के साथ-साथ उसकी प्रजातियों पर अनुसंधान के नतीजों के संग्रहण, मूल्यांकन, विश्लेषण और अन्य प्रासंगिक सूचनाओं की जानकारी देने की सलाह भी दी गई है । (पीआईबी फीचर्स)