पूरब में पश्चिम बंगाल से वामपंथ के पतन का सिलसिला आगे बढ़ता हुआ त्रिपुरा तक पहुँच गया। लेकिन भारतीय राजनीति में हिंदुत्व और संघी विचारधारा जहाँ अछूत थी वहीँ उसका फैलाव 21 राज्यों तक पहुँच गया। देश कांग्रेस मुक्त भारत की तरफ बढ़ चला है। दक्षिणपन्थ के बढ़ते प्रभाव की वजह से पंथ निरपेक्षवादी सदमें में हैं। अब 2019 को लेकर मंथन चल रहा है , लेकिन बिखरे विपक्ष को यूपी उपचुनाव में सपा - बसपा गठबंधन की की जीत नयी उम्मीद और प्रयोग लेकर आयी है ।
पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती का यह सियासी प्रयोग बेहद सफल साबित हुआ है। वैसे भी राजस्थान , मध्यप्रदेश और दूसरे उपचुनाव में काँग्रेस ने विजय हासिल की है। लेकिन भाजपा के हाथ से अगर यूपी फिसलती है तो 2019 में दिल्ली दूर होगी। क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 80 में 73 सीटों पर विजय मिली थी। भाजपा के नेताओं की यह दलील बेमानी होगी कि उपचुनाव कोई मायने नहीँ रखते। देश के राजनीति क्षितिज पर यूपी नया संदेश देने में कामयाब हुआ है । उपचुनाव के इस परिणाम से राज्यसभा में भाजपा और कमजोर होगी उसकी मुश्किल और बढ़ेगी और कई अहम बिल पास कराने में उसे पसीने आएंगे।
भाजपा ने जिस हिंदुत्व छवि के भरोसे यूपी को जीता था उसी को योगी आदित्यनाथ भी नहीँ बचा पाए यह पार्टी के लिए बेहद चिंता और चिंतन का विषय है। यूपी में योगी अच्छा काम कर रहें हैं तो फिर हारे क्यों? साल भर में ही तस्वीर पलट गई है। हालांकि फूलपुर कभी भाजपा का गढ़ नहीँ रहा। भाजपा ने तो 2014 में वहां पहली बार जीत दर्ज की थी। यह सीट तो देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की थी जहाँ से वह तीन बार चुने गए थे। 2014 के लोकसभा और 2017 में हुए राज्य राज्य विधानसभा चुनाव में जातिवादी तिलस्म टूट गया था, लेकिन एसपी - बीएसपी गठबंधन की जीत से विकास हासिए पर चला गया और राज्य की राजनीति एकबार फिर जाति के महाजाल में फंसती हुईं दिखती है।
2017 के यूपी के आम चुनाव में सपा - बसपा की करारी हार और भाजपा की तूफानी जीत ने जातिवादी तिलस्म को मटियामेट कर दिया था। दलित राजनीति की मसीहा मायावती की बसपा लोकसभा में एक सीट भई नहीँ जीत पायी थी। लेकिन इस नयी दोस्ती में से यह सम्भावना जताई जा रही थी कि फूलपुर और गोरखपुर चुनाव को लेकर सियासी प्रयोग सफल रहा तो यह उपचुनाव 2019 की राजनीतिक प्रयोगशाला बनेगा और वहीँ हुआ भी। हालांकि यह किसी ने कल्पना तक नहीँ कि थी कि गोरखपुर से भाजपा की हार होगी। हालांकि कम वोटिंग की वजह से भी यह अंदाज लगाया जा रहा था कि परिणाम सत्ता पक्ष के झोली में जा सकते हैं , लेकिन सारे कयास गलत साबित हुए।
2014 के लोस चुनाव में मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने 73 सीटों पर जीत हासिल की थी । यह सफर 2017 के राज्य विधानसभा चुनाव में भी जारी रहा। लेकिन मोदी मैजिक को तोड़ने के लिए बसपा सुप्रीमो और पूर्व सीएम मायावती और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 23 साल बाद पिता मुलायम सिंह की दुश्मनी को भूल जो सियासी दाँव चला की योगी का विकासवाद और हिंदुत्व धराशायी हो गया। यूपी में राममंदिर आंदोलन के बाद जातीय समीकरण पर आधारित नयी राजनीतिक का उदय हुआ था।लेकिन मोदी की सुनामी ने यूपी समेत पूरे भारत में विचारधाराओं के सारे किले ध्वस्त कर दिए।
पूर्वोतर की ऐतिहासिक जीत के बाद देश में बढ़ती भाजपा और मोदी की लोकप्रियता ने विपक्ष के कान खड़े कर दिए। पूर्वोतर फतह के बाद भाजपा यानी मोदी और अमित शाह की निगाह दक्षिण भारत के वामगढ़ केरल और काँग्रेस शासित कर्नाटक पर जा टिकी है। लेकिन उत्तर प्रदेश की इस पराजय ने भाजपा की चिंता बढ़ा दी है। राजनीतिक रुप से बेहद अहम देश के सबसे बड़े राज्य यूपी के उपचुनाव पर सब की नजरें टिकी थी। कहते हैं कि दिल्ली की राजनीति उत्तर प्रदेश के सियासी गलियारों से होकर गुजरती है । फूलपूर और गोरखपुर को प्रयोग की राजनीति से जोड़ा जा रहा था। एक बार फिर वहीँ पचासी और पंद्रह के नारे गढ़े गए। अपने खीसकते जनाधार और जातियों को लामबंद करने के लिए दोनों एक साथ आए और सफलता हासिल की। भाजपा का हिंदुत्व और तीन तलाक का अचूक अस्त्र भी इस पराजय को जीत में नहीँ बदल सका।
सपा और बसपा ने 1993 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में दोनों को 177 सीटें मिली थी और सपा-बसपा ने गठबंधन ने सरकार बनाई थी। अब इस जीत के बाद यह सवाल उभरता है कि 2019 में यह दोस्ती आगे बढ़ी तो मायावती और अखिलेश में से कौन किसे अपना लीडर मानेगा। क्या स्टेट गेस्ट हाउस कांड के बाद मायावती का अखिलेश के नेतृत्व को स्वीकार करेंगी ? लेकिन राजनीतिक दोस्ती और दुश्मनी में कोई अंतर नहीँ होता है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा- कांग्रेस गठबंधन को 28 प्रतिशत और बहुजन समाजवादी पार्टी को 22 प्रतिशत वोट मिले थे। दोनों को जोड़ दिया जाय तो यह 50 प्रतिशत वोट हो जाता है। ऐसी स्थिति में बीजेपी के लिए उपचुनाव में सपा के प्रत्याशियों को हराना एक बेहद चुनौती थी। फूलपुर की विधानसभा सीट पर सपा का कब्जा है। हालांकि यह सीट देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की विरासत रही है, लेकिन काँग्रेस उस जमीन को सुरक्षित रखने में नाकामयाब रही। फूलपुर लोकसभा सीट पर 2014 के चुनाव में बीजेपी को 5 लाख 3 हजार और 564 वोट मिले थे। जबकि सपा को 1 लाख 95 हजार 256 और बसपा को 1 लाख 63 हजार 710 वोट मिले थे। सपा-बसपा के वोट मिलने के बाद भी बीजेपी के केशव मौर्य और यूपी के उपमुख्यमंत्री को 1 लाख 44 हजार 598 वोट ज्यादा मिले थे। लेकिन भाजपा खुद के वोट बचाने में नाकाम रही, जिसकी वजह से उसकी हार हुईं। गोरखपुर की सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के त्यागपत्र की वजह से रिक्त हुईं थी ।
2014 के लोकसभा चुनाव में गोरखपुर से बीजेपी को पांच लाख 39 हजार 137 वोट मिले थे। वहीं सपा को दो लाख 26 हजार और 344 वोट और बसपा को एक लाख 76 हजार 412 वोट मिले थे। गोरखपुर के बीजेपी उम्मीदवार योगी आदित्यनाथ को बसपा और सपा के वोट मिलने के बाद भी एक लाख 36 हजार 371 वोट ज्यादा मिले थे। इसके बावजूद भाजपा यहाँ से पराजित हो गई। जबकि योगी यहाँ से लगातर कई बार से सांसद चुने जाते रहे हैं । इस चुनाव के पीछे छुपी राज्यसभा की नई राजनीति पर भी है।
दूसरी ओर यूपी की राजनीति में बड़ा सवाल यह है कि क्या मयावती-अखिलेश 2019 में बीजेपी के खिलाफ साथ आएंगे ? गोरखपुर के उपचुनाव में दिखी साझेदारी ने इस कयास को मजबूत कर दिया है। इस दोस्ती ने भाजपा की परेशानिया बढ़ा दी हैं । यूपी की इस सियासी प्रयोगशाला में परीक्षण के सफल होने के बाढ़ गैर भाजपाई एकता के लिए नयी संजीवनी मिल गई है। मोदी और शाह कम्पनी के खिलाफ काँग्रेस , वामपंथ और दूसरी विचारधारा के दल इसके बाद एक साथ आ सकते हैं । यानी देश की सियासत दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ में विभाजित हो जाएगी। फिर भाजपा हिंदुत्व और राममंदिर का ट्रम्पकार्ड खोलेगी। बस समय का इंतजार करिए। कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू की विरासत रही फूलपुर की सीट आज राजनीति की नई प्रयोगशाला बनी गई और उपचुनाव के बाद 2019 के महासंग्राम के लिए नया संदेश दिया है। लेकिन गोरखपुर जिला प्रशासन की भूमिका स्वामी भक्ति की रही है । यह योगी और चुनाव आयोग पर सवाल खड़े करने वाली है। हालांकि आयोग ने जिला प्रशासन को नोटिस भी भेजा है। यह बेहद गम्भीर स्थिति है आयोग को यूपी उपचुनाव से सबक लेना चाहिए। (संवाद)
यूपीः जातिवाद का मिला साथ, मंदिरवाद खाली हाथ
मोदी के मिशन 2019 को लगा बड़ा झटका
प्रभुनाथ शुक्ल - 2018-03-16 10:26
राजनीतिक रुप से अहम उत्तर प्रदेश के उपचुनाव ने एक नया संदेश दिया है। यह संदेश जहाँ विपक्ष के लिए संजीवनी है वहीँ भाजपा के लिए मंथन का विषय। यह विशेष रुप से भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के लिए शुभ नहीँ। दलित और पिछडों के गठबंधन ने भाजपा की सारी थ्योरी जमींदोज कर दिया। राज्य विधानसभाओं में भाजपा का विजय अभियान भले जारी हो। सेकुलरवाद और वामपंथ का किला ढह गया। धर्मनिरपेक्षता ने पंथवाद के आंचल में अपना सिर छुपा लिया हो ।