हम भारतीयों का जीवन दर्शन रहा है- ‘संतोषी सदा सुखी।’ हालात के मुताबिक खुद को ढाल लेने और अभाव में भी खुश रहने वाले समाज के तौर पर हमारी विश्वव्यापी पहचान रही है। लेकिन दुनिया को योग और अध्यात्म से परिचित कराने वाले इस देश की स्थिति में पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बदलाव आया है। संयुक्त राष्ट्र के ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन नेटवर्क’ की हर साल जारी होने वाली रिपोर्ट पिछले कुछ सालों से बताती आ रही है कि भारत के लोगों की खुशी और आत्म-संतोष के स्तर में लगातार गिरावट आती जा रही है। इस बदलाव की पुष्टि ‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट-2018’ से भी होती है।

यह ‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थान ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन नेटवर्क’ हर साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वे करके जारी करता है। इस बार सर्वे में शामिल 156 देशों में भारत का स्थान इतना नीचे है, जितना कि अफ्रीका के कुछ बेहद पिछडे देशों का है।
हैरान करने वाली बात यह है कि इस रिपोर्ट में पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान और नेपाल जैसे छोटे-छोटे पडोसी देश भी प्रसन्नता के मामले मे भारत से ऊपर हैं। यह देखकर हम यह नहीं कह सकते कि संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में कुछ न कुछ घपला किया है। संयुक्त राष्ट्र की मूल्यांकन पद्धति वैज्ञानिक होती है, इसलिए उसके निष्कर्ष आमतौर पर सही ही होते हैं। अर्थशास्त्रियों की एक टीम समाज में सुशासन, प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, जीवित रहने की उम्र, दीर्घ जीवन की प्रत्याशा, भरोसेमंदी, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता, उदारता आदि पैमानों पर दुनिया के सारे देशों के नागरिकों के इस अहसास को नापती है कि वे कितने खुश हैं। इन पैमानों पर भारत पिछड़ा हुआ है। इसीलिए उसे दुखी देशों में ऊंचा स्थान मिला है।

इस साल जो ‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ जारी हुई है, उसके मुताबिक भारत उन चंद देशों में से है, जो नीचे की तरफ खिसके हैं। हालांकि भारत की यह स्थिति खुद में कोई चैंकाने वाली नहीं है। लेकिन यह बात जरूर गौरतलब है कि कई बडे देशों की तरह हमारे देश के नीति-नियामक भी आज तक इस हकीकत को गले नहीं उतार पाए हैं कि देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) या विकास दर बढा लेने भर से हम एक खुशहाल समाज नहीं बन जाएंगे। यह गुत्थी भी कम दिलचस्प नही है कि पाकिस्तान (75) और नेपाल (101) और बांग्लादेश (115) जैसे देश इस रिपोर्ट में आखिर हमसे ऊपर क्यों हैं, जिन्हें हम स्थायी तौर पर आपदाग्रस्त देशों में ही गिनते हैं। सार्क देशों में सिर्फ अफगानिस्तान ही खुशमिजाजी के मामले में भारत से पीछे है। दिलचस्प बात है कि पांच साल पहले यानी 2013 की रिपोर्ट में भारत 111वें नंबर पर था। तब से अब तक हमारे शेयर बाजार तो लगभग लगातार ही चढते जा रहे हैं, फिर भी इस दौरान हमारी खुशी का स्तर नीचे खिसक आने की वजह क्या हो सकती है?

दरअसल, यह रिपोर्ट इस हकीकत को भी साफ तौर पर रेखांकित करती है कि केवल आर्थिक समृद्धि ही किसी समाज मे खुशहाली नहीं ला सकती। इसीलिए आर्थिक समृद्धि के प्रतीक माने जाने वाले अमेरिका (18), ब्रिटेन (19) और संयुक्त अरब अमीरात (20) भी दुनिया के सबसे खुशहाल 10 देशों में अपनी जगह नहीं बना पाए हैं। ताजा ‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ में फिनलैंड दुनिया का सबसे खुशहाल मुल्क है। पिछले साल फिनलैंड इस सूची में पांचवें स्थान पर था। लेकिन एक साल में ही वह पांचवें से पहले स्थान पर आ गया। फिनलैंड को दुनिया में सबसे स्थिर, सबसे सुरक्षित और सबसे सुशासन वाले देश का दर्जा दिया गया है। वह कम से कम भ्रष्ट और सामाजिक तौर पर प्रगतिशील है।

‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ में बताई गई भारत की स्थिति चैंकाती भी है और चिंतित भी करती है। आश्चर्य की बात यह भी है कि आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त भोग-विलास का जीवन जी रहे लोगों की तुलना में वे लोग अधिक खुशहाल दिखते हैं जो अभावग्रस्त हैं। हालांकि अब ऐसे लोगों की तादाद में लगातार इजाफा होता जा रहा है जिनका यकीन ‘साई इतना दीजिए...’ के उदात्त कबीर दर्शन के बजाय ‘ये दिल मांगे मोर’ के वाचाल स्लोगन में हैं। यह सब कुछ अगर एक छोटे से तबके तक ही सीमित रहता तो, कोई खास हर्ज नहीं था। लेकिन मुश्किल तो यह है कि ‘यथा राजा-तथा प्रजा’ की तर्ज पर ये ही मूल्य हमारे राष्ट्रीय जीवन पर हावी हो रहे हैं। जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं या जिनकी आमदनी सीमित है, उनके लिए बैंकों ने ‘ऋणं कृत्वा, घृतम् पीवेत’ की तर्ज पर क्रेडिट कार्डों और कर्ज के जाल बिछा कर अपने खजाने खोल रखे हैं। लोग इन महंगी ब्याज दरों वाले कर्ज और क्रेडिट कार्डों की मदद से सुख-सुविधा के आधुनिक साधन खरीद रहे हैं। शान-ओ-शौकत की तमाम वस्तुओं की दुकानों और शॉपिंग मॉल्स पर लगने वाली भीड़ देखकर भी इस वाचाल स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर हर तरफ लालसा का तांडव ही ज्यादा दिखाई पड रहा है। तृप्त हो चुकी लालसा से अतृप्त लालसा ज्यादा खतरनाक होती है। देशभर मे बढ रहे अपराधो-खासकर यौन अपराधों की वजह यही है। यह अकारण नही है कि देश के उन्हीं इलाकों में अपराधों का ग्राफ सबसे नीचे है, जिन्हें बाजारवाद ज्यादा स्पर्श नहीं कर पाया है। यह सब कहने का आशय विपन्नता का महिमा-मंडन करना नहीं है, बल्कि यह आवारा पूंजीवाद के सहारे पैदा हुई अनैतिक समृद्धि और उसके सह-उत्पादों की रचनात्मक आलोचना है।

दरअसल, विकास और बाजारवाद की वैश्विक आंधी ने कई मान्यताओं और मिथकों को तोड़ा है। कुछ समय पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की आई एक अध्ययन रिपोर्ट में भी बताया गया था कि भारत दुनिया में सर्वाधिक अवसादग्रस्त लोगों का देश है, जहां हर तीसरा-चैथा व्यक्ति अवसाद के रोग से पीड़ित है। यह तथ्य भी इस मिथक की कलई उतारता है कि विकास ही खुशहाली का वाहक है। अध्ययन में दुख, निराशा, अरूचि, अनिद्रा आदि अवसाद के जो मानक बनाए गए थे, उनके आधार पर हमारे देश को स्वाभाविक रूप से सर्वाधिक अवसादग्रस्त कहा जा सकता है, क्योंकि हमारे यहां व्यवस्था के जितने भी प्रमुख अंग है चाहे वह राजनीतिक नेतृत्व हो, कार्यपालिका हो, न्याय प्रणाली हो, पुलिस हो, सभी से आम आदमी को निराशा-हताशा ही हाथ लगी है। देश के प्राकृतिक संसाधनों पर मुट्ठीभर लोगों के कब्जे के चलते भी देश में आर्थिक और सामाजिक विषमता को बढ़ावा मिला है। लोकविमुख विकास की सरकारी नीतियों के चलते देशभर में व्यापक पैमाने पर लोगों का विस्थापन हुआ है। उनका यह विस्थापन महज अपने घर जमीन से ही नहीं, बल्कि अपनी सामाजिकता और संस्कृति से भी हुआ है जिसने उनमें दुख और नैराश्य भर दिया है। विपन्नता और बदहाली के महासागर में समृद्धि के चंद टापू खड़े हो जाने से पूरा महासागर समृध्द नहीं हो जाता। संयुक्त राष्ट्र की ‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ और विश्व स्वास्थ्य संगठन का भारत को सर्वाधिक अवसादग्रस्त देश बताने वाला सर्वे इसी हकीकत की ओर इशारा करता है। (संवाद)