भारतीय जनसंघ के लोगों ने अपनी पार्टी का विलय तो कर दिया था और इसके लालकृष्ण आडवाणी और अटलबिहार वाजपेयी समेत कई नेता उच्च पदों पर थे और जनता पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र, इसकी नीतियों तथा कार्यक्रम को भी पूरी तरह स्वीकार कर लिया था, लेकिन अपने पितृ-संगठन राष्ट्ीय स्वयं सेवक संघ के साथ अपना रिश्ता बनाए हुए थे। मधु लिमये का कहना था कि यह दोहरापन है क्योंकि पार्टी आरएसएस के ‘‘सांप्रदायिक’’ तथा ‘‘लोकतंत्र विरोधी’’ विचारों के खिलाफ है। उनके अनुसार एक ही व्यक्ति एक साथ दो सिद्धंातों पर कैसे चल सकता है। लिमये जनसंघ के छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद और मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ के भी जनता पार्टी में विलय की मांग कर रहे थे।

लिमये आरएसएस के शुरू से ही खिलाफ थे और डा-राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद के समय भी जनसंघ को साथ लेने का उन्होंने विरोध किया था। डा लोहिया ने उनकी बात नहीं सुनी । 1974 के आंदोलन के समय भी आरएसएस के लोगों को शामिल करने के वह प़क्ष में नहीं थे, लेकिन इमरजेंसी के खिलाफ लड़ाई के लिए बड़ा मोर्चा बनाने के लिए उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया।

इसलिए भाजपा विरोधी मुहिम की शुरूआत के लिए विपक्ष के नेताओं को उनकी जयंती का दिन एक बेहतर अवसर नजर आया। वैसे भी सोवियत यूनियन के विघटन के बाद मधुलिमये समाजवादी-साम्यवादी पार्टियों की एकता के लिए सक्रिय थे। उनकी इस मुहिम में कई दिग्गज साम्यवादी नेता, सीपीएम के बीटी रणदिवे और सीपीआई के एबीबर्धन, भी शामिल थे।

लेकिन विपक्षी पार्टियों की इस सभा में दो महत्वपूर्ण पार्टियों -कांग्रेस और सीपीएम ने साफ कर दिया कि सिर्फ ‘‘अंकगणित’’ (चुनाव में वोटों के प्रतिशत) पर आधारित एकता का कोई मतलब नहीं है। कांगेस के दिग्विजय सिंह और सीपीएम के सीताराम येचुरी का कहना था कि नीतियों और कार्यक्रमों की एका होने पर ही मोदी और भारतीय जनता पार्टी के विरोध को सफल बनाया जा सकता है। लेकिन 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध में महागठबंधन बनाने के लिए विपक्षी पार्टियों की बैचैनी सभा मंे साफ दिखाई दे रही थी।

सवाल यह है कि इस बेचैनी के बावजूद ऐसी कौन सी बाधाएं हैं जो उन्हें ऐसा करने से रोके हुए है। सभी पार्टियां समझ रही हैं कि मोदी विरोध के लिए कुछ ऐसे मुद्देे सामने लाने होंगे जो देश में हलचल पैदा कर सके।

लेकिन विपक्षी एकता के लिए सर्वनान्य मुद्दे ढ़ूंढ़ने में कई कठिनाइयंा हैं। विपक्षी पार्टियांे के बीच विचारों की गहरी खाई है। कम्युनिस्ट पार्टियां नई आर्थिक व्यवस्था के पूरी तरह खिलाफ हैं और वे इन्हें विनाशकारी मानती हैं। वहीं, कांग्रेस नई आर्थिक नीतियों की जन्मदाता है और तेज विकास के लिए तथा कथित आर्थिक सुधारों के पक्ष में है। विदेशी पंूजी को भारत लाने और श्रम कानूनों में बदलाव की सारी जमीन कांग्रेस की तैयार की हुई है। कांग्रेस ने इन नीतियों के त्याग का कोई ऐलान भी नहीं किया है। यही नहीं, इन नीतियों को जन्म देने वाले डा मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम आज भी पार्टी के शीर्ष नेता हंै। इनकी जगह समाजवादी नीतियों और नेहरूवाद की वकालत करने वाले किसी नेता को सामने लाने की कोई कोशिश पार्टी कर भी नहीं रही है। यही हाल है गैर-कांग्रेसी गैर-वामपंथी विपक्षी पार्टियों का। उनके पास भी आर्थिक नीतियों के विरोध का कोई कार्यक्रम नहीं है। बड़ी पूंजी या कारपोरेेट को आमंत्रित करने में कोई भी पार्टी पीछे नहीं है।

विपक्षी पार्टियों के पास ले-देकर सांप्रदायिकता का मुद्दा ही रह जाता है जो उन्हें एक कर सकता है। लेकिन इस मुद्दे की सीमाओं को पार्टियों ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में पहचान लिया है। सामाजिक न्याय की पार्टियां- अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी तो अलग-अलग बुरी तरह विफल रहीं। अब उन्हंे साथ लाकर 2019 के नतीजों की तस्वीर बदलने की बात की जा रही है। लेकिन उन्हें यह भी देखना चाहिए कि जमीनी हकीकत इसकी कितनी इजाजत देता है। जाटव और यादव के साथ आने में कम कठिनाइयां नहीं हैं।

विचाधारा के संकट के कारण विपक्षी पार्टियों के पास मोदी-विरोध का कोई साझा मुद्दा नहीं उभर पा रहा है। 1977 में इंदिरा गंाधी के विरोध में इकðा होनेे के लिए एक बड़ा मुद्दा सामने था- लोकतंत्र की बहाली का । विपक्षी नेताओं को यह अंदाजा है कि आर्थिक सामाजिक मुद्दों पर नजरिया साफ किए बगैर कोई ऐसा माहौल नहीं बन सकता। लेकिन उदारीकरण और भूमंडलीकरण के आर्थिक कार्यक्रम को अपनाने के बाद इन पार्टियों के लिए किसी वैकल्पिक कार्यक्रम को अपनाना कठिन है। अभी तक बेरोजगारी और मंहगाई को पहले नंबर का मुद्दा बनाने की बात भी किसी ने नहंी की है। इस मामले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार भी आगे नहीं आ पा रहे हैं। क्षेत्रीय पार्टियां-तृणमूल कंाग्रेस और बीजू जनता दल के पास तो नीतियों की कोई वैसी विरासत भी नहीं है। वे तो पूरी तरह व्यक्ति आधारित पार्टियां हैं। इन पार्टियांे को किसी विचारधारा से जोड़ना कठिन है। विपक्षी पार्टियां के सामने सबसे बड़ी चुनौती विचारधारा संबंधी उलझनों को सुलझाने की है।

यही वजह है कि जब मानवाधिकार कार्यकर्ता और सोशलिस्ट पार्टी आफ इंडिया के जस्टिस (रिटायर्ड) राजिंदर सच्चर ने सवाल किया कि कारपोरेट के खिलाफ राज्यसभा में विधेयक लाने से विपक्ष को कौन रोक रहा है तो नेताओं ने खामाशी अख्तियार कर ली। (संवाद)