अपराधी ही जांचकर्ता हो तो न्याय कैसा
आज के सत्तारुढ़ वामपंथियों के चरित्र पर उठते सवाल
ज्ञान पाठक
नई दिल्ली: आम लोगों को सामाजिक और आर्थिक न्याय दिलाने के आंदोलन में हमारे पूर्वज वामपंथियों में से अनेकों के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता, लेकिन इस आधार पर आज के नकली वामपंथियों पर भरोसा करना खतरे से खाली नहीं है। विशेषकर उन वामपंथियों पर जो चरित्र और सोच से ही न्याय नहीं होने देने की हर संभव कोशिश करते हैं और लाल झंडा उठाकर मार्क्स और वामपंथ के अन्य प्रवर्तकों का नाम लेते हुए साम्यवाद लाने की बात करते हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ अब स्वयं वामपंथियों को भी संघर्ष करना पड़ रहा है।
इसके दो ताजा उदाहरण आपके सामने हैं। स्वयं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुख पत्र में पार्टी महासचिव ए बी बर्धन ने लिखा कि नांदीग्राम में जनता पर किये गये “संगठित और नृशंस पुलिस हमले (वाम) मोर्चे का नेतृत्व कर रहे घटक (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी) की पूरी जानकारी में और रजामंदी से हुए जिसके लिए अन्य सहयोगी पार्टियों से सलाह मशविरा नहीं किया गया।”
बात आगे ले जाने के पहले यहां यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि नांदीग्राम में हुई पुलिस फायरिंग और उसके बाद की घटनाओं में 14 लोग मारे गये। ये लोग विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) के तहत उद्योग लगाने के लिए सरकार द्वारा उनकी कृषि योग्य भूमि अधिगृहित कर उद्योगपतियों को देने के प्रयास का विरोध कर रहे थे। यह भी नोट करने वाली बात है कि एसईजेड या सेज केन्द्र की मनमोहन सरकार की योजना है और जिस सरकार को वाम मोर्चे का समर्थन हासिल है। योजना की एक खास बात यह है कि “कृषि योग्य भूमि” की परिभाषा बदल दी गयी है और एक या उसके कम बार फसलें उगने वाली भूमि या घास वाले चारागाह के रुप में इस्तेमाल होने वाली भूमि को अधिगृहित करने का अधिकार सरकार को दे दिया गया है। भारत की अधिकांश कृषि वर्षा पर निर्भर है और उनमें एक बार ही फसलें उगती हैं, जो मनमोहन सरकार की इस योजना की परिभाषा के तहत कृषि योग्य भूमि नहीं है, जबकि पहले के सभी कानूनों में इन्हें कृषि योग्य भूमि माना गया है और जनता भी इन्हें कृषि योग्य भूमि मानती है क्योंकि वे इन्हीं भूमि पर खेती कर अपनी आजीविका चलाती है। भारत की कृषि को पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से बर्बाद किया गया और खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर भारत को चंद वर्षों में इस बदतर हालत में पहुंचा दिया गया कि इसे अब विदेशों से आयात पर निर्भर होना पड़ रहा है, को देखते हुए आम लोगों में शक पैदा हो गया है कि हमारी अपनी सरकार और हमारे अपने नागरिक विदेशियों से मिलकर अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए अपने ही देश भारत की संपदा लूटने में लगे हुए हैं।
ऐसी स्थितियों में संघर्ष स्वाभाविक और अवश्यंभावी है। वैसे ही किसान हजारों की संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं और उनकी एक ही उम्मीद है उनकी जमीन जहां वे वर्षा के पानी से खेती कर सकते हैं और अपना गुजर बसर कर सकते हैं। जब विकास के नाम पर उनकी एकमात्र उम्मीद भी सरकार छीनने की कोशिश करेगी तो संघर्ष होगा ही।
कुछ और बातों पर ध्यान दिलाने की आवश्यकता है जिसमें वाम मोर्चे द्वारा मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों की सार्वजनिक आलोचना करना, कार्यान्वयन के स्तर पर उन्हीं नीतियों को गुपचुप ढंग से हरी झंडी देना और जनता से कहना कि सरकार उनकी बात नहीं मान रही, और खुद जहां वे सरकार में हैं उन राज्यों में उन्हीं नीतियों को लागू करना जिनका वे केन्द्र में विरोध कर रहे होते हैं। सेज योजना इसी का एक सटीक उदाहरण है।
अब सीधे चलें नांदीग्राम की घटना पर जिसके बारे में स्वयं भाकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक, जो पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ माकपा की सहयोगी हैं, ने कहा कि यह घटना निंदनीय है और उन्होंने सेज के मामले में माकपा को जो सुझाव दिये थे उन्हें नहीं माना गया और सरकार की स्वीकृति और जानकारी में नृशंस गोलीकांड किया गया।
राज्य में भूमि-सुधार करने वाली वाम मोर्चे की सरकार ने तो किसानों के लिए ही भूमि सुधार किया था लेकिन अब वह नयी अर्थनीति जिसका वह विरोध करता रहा है के पक्ष में कैसे पलट गया? इसपर लिखना इस आलेख का विषय नहीं है, और न ही यह कि जो भूमि-सुधार हुआ उसकी गुणवत्ता क्या थी। गुणवत्ता पर तो स्वयं अतिवामपंथी और नक्सली भी सहमत नहीं हैं। उन्होंने तो सत्तारूढ़ वामपंथियों के शासन में ही नक्सलबाड़ी में अपने समाजवाद का आंदोलन चलाया था और वामपंथी सराकर ने ही उनका सफाया किया था, जनसंहार के माध्यम से, पुलिस की गोलियों से। वाम राजनीति के अंदर क्या होता रहा है उसपर उंगलियां उठायी जाती रही हैं परंतु यह भी इस आलेख का विषय नहीं है।
इस आलेख का विषय महज यह नैतिकता और न्याय का सवाल है, कि जिस सरकार पर जनता को मार डालने का आरोप है वही सरकार अपने ही अपराध की जांच कैसे करेगी? आप ही अपराधी रहें और आप ही जांचकर्ता? राज्य की वाम सरकार ने नांदीग्राम पुलिस फायरिंग पर राज्य की सीआईडी और एक कार्यपालक जांच के अलग-अलग आदेश दिये हैं और वह सर्वोच्च न्यायालय में इस बात का मुकदमा भी लड़ रही है कि किसी अन्य जांच संगठन या सीबीआई से जांच करवाने का आदेश देने का हक उच्च न्यायालय को भी नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय में वाम सरकार की यह सक्रियता नांदीग्राम कांड के बाद अचानक बढ़ गयी है क्योंकि कोलकाता उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने स्वविवेक से सीबीआई को आदेश दिया कि वह एक टीम भेजकर नांदीग्राम में क्या हुआ इसकी रपट दे। सीबीआई ने अपनी रपट एक मुहबंद लिफाफे में उच्च न्यायालय को सौंप दी है जिसपर अगले सप्ताह फैसला होना है।
कोलकाता उच्च न्यायालय को दरअसल यह मालूम था कि राज्य की वाम सरकार ने 2001 के एक मामले, जिसमें 11 तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मौत हुई थी, में ही उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था और अर्जी दी थी कि उच्च न्यायालय को सीबीआई जांच करने का आदेश देने का कोई हक नहीं है। ध्यान रहे की इस बार भी तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व में ही जनता सरकार की नीति का विरोध कर रही थी।
राजनीतिक आधार पर हिंसा का रास्ता अपनाना वैसे वामपंथ में अनुमोदित है लेकिन आज के वामपंथी नेता समाज के लिए नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए यदि राजनीतिक प्रतिशोध और हिंसा का सहारा लेने लगें तो उनके मूलभूत चरित्र पर ही सवाल खड़ा होता है कि आखिर वे किस तरह के साम्यवाद के पक्षधर हैं। व्यक्तिवादी और राजनीतिक प्रतिशोध वाला साम्यवाद खतरनाक होगा। एक तो किसी की भी जान लेना उचित नहीं, और यदि कानून के अनुरुप जान लेने की दंडस्वरुप आवश्यकता पड़े भी तो उसके लिए विचारण हो न कि अंधाधुंध गोलीबारी का रास्ता अख्तियार किया जाये।
यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आती कि पश्चिमबंगाल की वामपंथी सरकार स्वाभाविक या प्राकृतिक न्याय के खिलाफ क्यों है? अपराधी ही अपराध भी करे और वही जांच भी करे, यह कहां का न्याय है?
कोलकाता उच्च न्यायालय ने संभवत: सर्वोच्च न्यायालय में वाम सरकार के इस मुकदमे को ध्यान में रखते हुए ही नांदीग्राम के मामले में सीबीआई को पूरी जांच करने का निर्देश नहीं जारी किया होगा, जिसपर बुधवार को सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने फैसला दिया कि पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस बात का निर्णय करे कि उच्च न्यायालय को सीबीआई जांच का आदेश देने का अधिकार है या नहीं।
राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार द्वारा भी सीबीआई से जांच की प्रक्रिया शुरु कराने, बंद कराने और जांच को प्रभावित करने के मामलों से भी देश अवगत है जिसमें भुक्तभोगी जनता को न्याय नहीं मिल पाता। #
ज्ञान पाठक के अभिलेखागार से
नांदीग्राम कांड ...
System Administrator - 2007-10-20 06:32
आम लोगों को सामाजिक और आर्थिक न्याय दिलाने के आंदोलन में हमारे पूर्वज वामपंथियों में से अनेकों के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता, लेकिन इस आधार पर आज के नकली वामपंथियों पर भरोसा करना खतरे से खाली नहीं है।