चुनाव नतीजा ऐसा था जिसमें जोड़ तोड़ की कोई गुंजायश ही नहीं थी। सब कुछ आइने की तरह साफ था। यदि तीन में से कोई भी दो पार्टी आपस में हाथ मिलाते तो सरकार उनकी ही बनती। इसके अलावा और कोई संभावना नहीं थी। यदि दो पार्टी आपस में मिलकर सरकार बनाने का दावा नहीं करते, तो फिर राष्ट्रपति शासन ही एक मात्र विकल्प था। ऐसा पहले भी हो चुका है। बिहार में तो 2005 में लंबे समय तक राष्ट्रपति शासन रहने के बाद विधानसभा ही भंग कर दी गई थी, और उसके बाद फिर नया चुनाव कराया गया। उसके बाद चुनाव से ही नीतीश कुमार की बहुमत वाली सरकार नवंबर 2005 में अस्तित्व में आई थी।

त्रिशंकु विधानसभा के हालात में कांग्रेस ने राज्यपाल के समक्ष लिखित रूप से सरकार गठित करने के लिये बिना किसी शर्त के अपना समर्थन जेडीएस को दिया। जेडीएस ने 116 विधायकों का आंकड़ा भी राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत कर डाला । फिर तो भाजपा के पास सरकार बनाने की क्षमता ही नहीं थी, क्योंकि उसके पास ज्यादा से ज्यादा 105 विधायक हो सकते थे। हालांकि बाद में पता चला कि उसके पास 105 विधायक भी नहीं थे।

वैसे तो भाजपा द्वारा सरकार बनाने का दावा पेश करना ही गलत था और यदि उसने दावा कर भ्ज्ञी दिया था, तो उसमें कोई दम नहीं था। राज्यपाल के सामने स्थिति बिल्कुल स्पष्ट थी। दो दलों ने चुनाव बाद सरकार बनाने के लिए समझौता कर लिया था और उन दोनों दलों को मिलाकर बहुमत का स्पष्ट आंकड़ा बन रहा था।

जाहिर है कि राज्यपाल के पास अपने विवेक के इस्तेमाल का कोई अधिकार ही नहीं था। राज्यपाल अपने विवेक का इस्तेमाल उसी समय कर सकता है, जब बहुमत समर्थन को लेकर अस्पष्टता की स्थिति हो। परन्तु यहां कोई अस्पष्टता थी ही नहीं। भाजपा का अल्पमत में होना स्पष्ट था और कुमारस्वामी के पास बहुमत स्पष्ट था। इसलिए राज्यपाल के पास कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री के पद की शपथ देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। वे संवैधानिक रूप से कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए बाध्य थे। उनको अपना दिमाग दौड़ाने की जरूरत ही नहीं थी। उन्हें कांग्रेस और जेडीएस के विधायको के दस्तखत वाले पत्र की भी जरूरत नहीं थी। बस यह काफी था कि कांग्रेस और जनता दल के नेता उनसे मिलकर चुनाव बाद गठबंधन की सूचना उनको दे दें और मुख्यमंत्री कुमारस्वामी को बनाने का आवेदन करें।

ऐसा किया भी गया, लेकिन राज्यपाल ने कुछ और करने की ठान रखी थी। उनके इरादे नेक नहीे थे। भाजपा के पास न तो बहुमत का समर्थन था और न ही समर्थन पाने की कोई संभावना थी, इसके बावजूद उन्होने साजिशाना तरीके से भाजपा को सरकार बनाने का मौका दे दिया। रात को साढ़े नौ बजे आमंत्रण दिया गया और सुबह नौ बजे शपथ ग्रहण की करवा दिया। वह संविधान और लोकतंत्र ी पीठ में छूरा मारने का काम था। वैसा करते हुए यह भी ध्यान रखा गया कि कोई कोर्ट जाकर राज्यपाल के उस असंवैधानिक कुकर्म पर रोक न लगवा ले।

पर सुप्रीम कोर्ट राज में भी खुल गया। यह ऐतिहासिक घटना थी कि जब लोकतंत्र और संविधान की हत्या करने की कोशिश की जा रही हो, तो राजभर जाग कर सुप्रीमकोर्ट संविधान और लोकतंत्र को बचाने का काम करे। वैसे चाहता तो कोर्ट यदुरप्पा को आदेश देकर मुख्यमंत्री पद पर शपथ ग्रहण करने से रोक सकता था। भाजपा के वकील सुप्रीम कोर्ट में दलील दे रहे थे कि राज्यपाल को कोर्ट नोटिस जारी नहीं कर सकता, लेकिन यदुरप्पा को तो नोटिस जारी किया ही जा सकता था।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए शपथग्रहण हो जाने दिया। जब कोई सरकार अस्तित्व में आ जाए, तो उसके बहुमत की जांच विधानसभा में ही हो सकती है और यह स्पष्ट था कि भाजपा के पास बहुमत नहीं था और उसे खरीद फरोख्त करने के लिए राज्यपाल ने 15 दिनों का समय दे रखा था। सुप्रीम कोर्ट के कारण वह 15 दिन दो दिन तक सीमित हो गया। और भाजपा की सरकार को सत्ता छोड़कर भागना पड़ा। उसे मतदान का सामना करने की भी हिम्मत नहीं हुई। इस तरह एक असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक तरीके से बनी सरकार 55 घंटे में अपना दम तोड़ चुकी थी।

हमारी न्यायपालिका ने साबित कर दिया कि यदि कार्यपालिका लोकतंत्र और संविधान के साथ छेड़छाड़ की कोशिश करे, तो वह उन्हंे बचाने में सक्षम है, भले इसके लिए उसे रात भर जागना क्यों न पड़े। कर्नाटक के राज्यपाल के असंवैधानिक निर्णय की समीक्षा होना अभी बाकी है। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल के उस निर्णय को भी असंवैधानिक घोषित कर देगा। उसके लिए अभी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होना बाकी है।(संवाद)