प्रणब मुखर्जी अब क्या किसी पार्टी में शामिल होंगे, लेकिन उनकी संतानों पर भाजपा की नजर जरूर थी। उसे यह भी लगा होगा कि प्रणब मुखर्जी उसके कैंप में आकर उसके बारे में कुछ ऐसी बातें बोल जाएंगे, जिसका वह आगे राजनैतिक फायदा होगा। आरएसएस अपने को राष्ट्रवादी संगठन बताता है और श्री मुखर्जी को इसी मसले पर एक व्याख्यान देने के लिए वहां बुलाया गया था। संघ के नेताओं को लग रहा था कि श्री मुखर्जी उसके राष्ट्रवाद की तारीफ करेंगे। संघ के राष्ट्रवाद की भूमिका की सराहना करेंगे, लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं।
प्रणब आरएसएस के कैंप में गए। राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर जमकर बोले, लेकिन उनके राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर दिए गए भाषण में आरएसएस कहीं नहीं था। आरएसएस की देशभक्ति का उन्होंने कोई उल्लेख तक नहीं किया, बल्कि उन्होंने संघ को देशभक्ति की वह परिभाषा दी, जो उसे नागवार गुजरी होगी।
संघ के लिए प्रणब मुखर्जी कैंप में आते ही प्रतिकूल पड़ रहे थे। कैंप में बैंड बाजे थे और स्वयंसेवकों का पैरेड था। पैरेड मे प्रणब मुखर्जी को सलामी दी, लेकिन उन्होंने उसकी सलामी ही स्वीकार नहीं की। यानी जब पैरेड किसी को सलाम करता है, तो बदले में वह व्यक्ति भी उस पैरेड की ओर मुखातिब होकर सलाम करता है। प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति की हैसियत से 26 जनवरी और अन्य अनेक मौकों पर इस तरह की सलामी लेते और देते रहे हैं। आरएसएस ने भी उन्हे सलामी दी, लेकिन अपनी तरफ से उन्होंने उस सलामी को स्वीकार नहीं किया। यह संघ को जरूर नागवार गुजरा होगा।
वैसा करके प्रणब ने यह साबित कर दिया कि वे संघ के अतिथि तो बन सकते हैं, लेकिन जिस तरह की सैनिक तड़क भड़क का प्रदर्शन कर संघ में सलामी दी जाती है, वह सलामी उन्हें स्वीकार नहीं है। इसके अलावा संघ के झंडे को भी उन्होंने सलामी नहीं दी। भारत के राष्ट्रीय झंडे की तरह की संघ का भी अपना एक झंडा होता है, जिसे वह 1947 मे देश का राष्ट्रीय झंडा बनाने की बात कर रहा था। उस झंडे को संघ के कैंप में जब फहराया गया, तो प्रणब वहां मौजूद थे। संघ के लोग एक विशेष किस्म से उस झंडे को सलामी देते हैं। सलामी देने की वह प्रक्रिया बेहद सरल है, लेकिन प्रणब मुखर्जी ने उस प्रक्रिया का भी वहां पालन नहीं किया। वे अपने अंदाज में एक स्थान पर खड़े रहे। जब सावधान और विश्राम ( इनके लिए संघ के अपने अलग शब्द हैं) करवाया जा रहा था, तो उस समय भी प्रणब मोहन भागवत व अन्य का साथ नहीं दे रहे थे। न ही उनके साथ संघ के गान में शामिल थे।
इस तरह प्रणब मुखर्जी ने आरएसएस से अपनी दूरी कायम रखी। वे कैंप में होते हुए भी कैंप का हिस्सा नहीं बन पाए। सबसे बड़ा झटका तो उन्होंने संघ को उस समय दिया, जब मोहन भागवत का भाषण हो रहा था। भागवत का भाषण प्रणब के भाषण के ठीक पहले हुए, लेकिन भाषण के दौरान प्रणब अपने हाथ में रखे कागज के पन्ने को उलट पुलट करते रहे और लगातार उसे ही देखते रहे। यानी उन्होंने भागवत के भाषण को सुनने लायक भी नहीं समझा और सार्वजनिक रूप से यह जता दिया कि भागवत क्या कह रहे हैं, इसे सुनने में उनकी कोई रुचि नहीं।
आरएसएस ने प्रणब मुखर्जी को बोलने के लिए जो विषय दिया था, वह बिल्कुल उसके मुफीद था। उन्हंे राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर बोलना था। गौरतलब हो कि आरएसएस इन तीनों पर अपना एकाधिकार मानता है। यदि कोई संघ के खिलाफ बोले तो वह राष्ट्रविरोधी ठहरा दिया जाता है औ उसकी देशभक्ति पर सवाल खड़ा कर दिया जाता है।
संघ को उम्मीद थी कि प्रणब मुखर्जी औपचारिकता निभाने के नाते ही सही, संघ को एक राष्ट्रवादी और देशभक्त संगठन बता देंगे और उसे भुनाते हुए भारतीय जनता पार्टी अपना गुणगान करेगी। फिर कांग्रेसियों को लुभा लुभा कर पार्टी में शामिल कराया जाएगा और इस तरह कांग्रेस मुक्त भारत का सपना भारतीय जनता पार्टी के नेता कर सकेंगे। आखिर उत्तर प्रदेश में पिछले साल ही कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता नारायण दत्त तिवारी यह कहते हुए भाजपा में शामिल हो गए थे कि कांग्रेस और भाजपा में कोई बुनियादी फर्क नहीं है।
हालांकि प्रणब मुखर्जी का राजनीति में कद नारायण दत्त तिवारी से बहुत ऊंचा है। श्री तिवारी पिछले 15 सालों से राजनीति में सक्रिय नहीं हैं और दो ऐसे विवादों में फंसे हैं कि लोगों के बीच उपहास का कारण बने हुए हैं, पर प्रणब मुखर्जी का राजनैतिक कद उस ऊंचाई को प्राप्त कर चुका है, जहां तक विरले लोग ही पहुंचते हैं। इसलिए यदि संघ को प्रणब की ओर से देशभक्ति का एक छोटा सा सर्टिफिकेट भी मिल जाता, तो वह गद्गद् हो जाता।
लेकिन प्रणब ने राष्ट्र की वह अवधारणा पेश की, जो संघ की राष्ट्र अवधारणा से ठीक उलटा है। उन्होंने कहा कि भारत में राष्ट्र किसी एक धर्म या भाषा पर अवलंबित नहीं रह सकता और यहां भारत राष्ट्र की पहचान के लिए किसी शत्रु या शत्रु देश की भी जरूरत नहीं है। अतीत मे अलग अलग समय में भारतीय राष्ट्र के स्वरूप की उन्होंने चर्चा की और सहिष्णुता, बहुलता और विविधता को संरक्षण देने वाले राष्ट्रवाद को ही भारतीय राष्ट्रवाद बताया। उन्होंने उसे एक कदम और आगे ले जाकर कहा कि संविधान की भक्ति ही देश भक्ति है, क्योंकि संविधान भारत के सामाजिक आर्थिक परिवर्तन का दस्तावजे है और हम इसी के द्वारा भारत राष्ट्र को सही पहचान दे सकते हैं। यानी संघ अपने मंसूबे में विफल रहा। हालांकि यह चर्चा चलती रहेगी कि प्रणब मुखर्जी को संघ के कैंप में जाना चाहिए था या नहीं। (संवाद)
आरएसएस के कैंप में प्रणब मुखर्जी
संघ का मंसूबा पूरा नहीं हो सका
उपेन्द्र प्रसाद - 2018-06-08 10:26
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने कैंप में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को जिन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आमंत्रित किया था, वे उद्देश्य पराजित हो चुके हैं। एक तरफ आरएसएस की भाजपा भारत को कांग्रेस मुक्त बनाने का अभियान चलाती है, तो दूसरी तरफ वह कांग्रेसियों को भारतीय जनता पार्टी में शामिल करने के लिए भी प्रेरित करती है। प्रणब मुखर्जी को अपने कैंप में बुलाकर वह इसी अभियान को मजबूती प्रदान करना चाहता था।