देखा जाए तो भले ही पाकिस्तान इस मामले में सबसे खराब स्थिति में है लेकिन भारत की स्थिति भी कम चिंताजनक नहीं है क्योंकि भारत भी उन देशों में सम्मिलित है, जहां नवजात बच्चों की चिंता करने की जरूरत सबसे ज्यादा है। यूनीसेफ की ‘एवरी चाइल्ड अलाइव’ (द अर्जेंट नीड टू एंड न्यूबोर्न डैथ्स) रिपोर्ट में जहां जापान, आइसलैंड तथा सिंगापुर को जन्म के लिए सबसे सुरक्षित देश बताया गया था, वहीं भारत में नवजात बच्चों को जीवित रखने के लिए ज्यादा ध्यान देने की जरूरत पर जोर दिया गया। निराशाजनक स्थिति यह है कि लाख प्रयासों के बावजूद हम इस मामले में बांग्लादेश, नेपाल, केन्या, मोरक्को, कांगो और भूटान जैसे छोटे देशों से भी निचले पायदान पर खड़े हैं।
184 देशों की स्थिति का अध्ययन करने के बाद निकाली गई यूनीसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में प्रतिवर्ष 26 लाख बच्चे मृत ही जन्म लेते हैं और 7 हजार नवजात प्रतिदिन काल के ग्रास बन जाते हैं। भारत में प्रतिवर्ष जन्म के 28 दिन के भीतर दो करोड़ 60 लाख में से 6 लाख 40 हजार बच्चों की मौत हो जाती है जबकि समूची दुनिया में यह आंकड़ा प्रतिवर्ष 26 लाख है अर्थात् जन्म के 28 दिनों के भीतर शिशुओं की मौत के दुनियाभर में करीब एक चैथाई मामले भारत में ही सामने आते हैं। देश में प्रत्येक 39 में से एक बच्चा एक माह की आयु भी पूरी नहीं कर पाता और यहां नवजात मृत्यु दर 25.4 प्रति हजार है जबकि बांग्लादेश में यह दर 20.1 तथा श्रीलंका में 5.3 है, वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा प्रति हजार 19 है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में नवजात शिशुओं की मौत का आंकड़ा भारत में कुछ नीचे आया है। 1990 के दशक में नवजात शिशु मृत्यु दर प्रति हजार 52 थी, जो घटकर 2013 में 28 रह गई थी और इसमें थोड़ी और कमी के साथ यह 25.4 रह गई है लेकिन जैसा कि यूनीसेफ की रिपोर्ट में कहा भी गया है कि अभी इस दिशा में और ध्यान दिए जाने की जरूरत है। नवजात शिशुओं के जन्म के बाद के 28 दिनों की ही बात इसलिए की गई है क्योंकि जन्म के बाद के ये शुरूआती 28 दिन किसी भी बच्चे के जीवित रहने और उसके विकास में बहुत अहम भूमिका निभाते हैं।
वैसे आश्चर्य की बात है कि नवजात शिशुओं की मृत्यु को लेकर भारत की चिंताजनक स्थिति को दर्शाती यूनीसेफ की इस चैंकाने वाली रिपोर्ट के सामने आने के बाद भी देश में इसे लेकर कोई विशेष प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली। दरअसल जिस देश में मासूम बच्चे ह्यूमन ट्रैफिकिंग के शिकार बनते रहे हों, जहां छोटे-छोटे बच्चे ट्रैफिक सिग्नलों पर भीख मांगते नजर आते हों, जगह-जगह ढ़ाबों, रेस्तरां या दुकानों अथवा अन्य व्यावसायिक स्थलों पर छोटे-छोटे बच्चे बाल मजदूरी करते नजर आते हों, ऐसे माहौल में भला नवजात शिशुओं की मृत्यु को लेकर कौन चिंतित होगा।
भारत जिस प्रकार तीव्र गति से विकास के पथ पर अग्रसर है और देश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए बहुत कुछ किया भी जा रहा है, भारी-भरकम बजट स्वास्थ्य के मद में आवंटित किया जाता है, फिर भी नवजात शिशु मृत्यु दर में तेजी से गिरावट न आना चिंता का कारण तो है ही। हां, संतोषजनक स्थिति यह जरूर है कि पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर में लक्ष्य हासिल करने में सफलता प्राप्त हो रही है और इस लक्ष्य की प्राप्ति के मामले में हम अब दूसरे देशों से आगे हैं। ऐसे में अहम सवाल यह है कि आखिर क्या वजह है कि हम पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर में अप्रत्याशित रूप से नियंत्रण पाने में सफल हो सके हैं किन्तु नवजात मृत्यु दर के मामले में हम पिछड़ रहे हैं? यह स्थिति चिंतित करने वाली इसलिए भी है क्योंकि रिपोर्ट के मुताबिक इन नवजात मौतों में से 80 फीसदी मौतों का कोई गंभीर कारण भी नहीं होता अर्थात् इन नवजातों को कुछ सतर्कता से बचाया जा सकता है। सतर्कता के अभाव में होने वाली इन 80 फीसदी मौतों के अहम कारण गर्भावस्था के दौरान माताओं को उचित पोषण न मिलना, समय पूर्व जन्म, जन्मजात बीमारी, प्रसव के दौरान इंफैक्शन तथा प्रसव पश्चात् जच्चा-बच्चा को समुचित चिकित्सकीय सुविधाएं न मिलना और लोगों में जागरूकता की कमी हैं।
भले ही हम विकास के कितने ही सोपान तय कर चुके हों किन्तु कटु सत्य यही है कि आज भी देश में दूरदराज के हजारों गांव ऐसे हैं, जहां चिकित्सा सुविधाओं के मद में प्रतिवर्ष भारी-भरकम राशि आवंटित होने के बावजूद लोग प्राथमिक सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। आज भी बहुत से ऐसे इलाके मिल जाएंगे, जहां प्रसव के लिए महिलाओं को बैलगाड़ियों या ऐसे ही अन्य असुविधाजनक वाहनों में लादकर निकट के उन प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों तक ले जाया जाता है, जहां सुरक्षित प्रसव कराने के लिए पर्याप्त सुविधाएं व संसाधन ही उपलब्ध नहीं होते। अगर किसी तरह प्रसव सुरक्षित हो भी जाए तो प्रसव के पश्चात् ऐसे केन्द्रों पर समुचित चिकित्सकीय देखभाल की कोई व्यवस्था नहीं होती। ऐसे ही दूरदराज इलाकों में अनुभवी डाॅक्टरों तथा पर्याप्त चिकित्सा सुविधा के अभाव में लोगों को अनुभवहीन व अप्रशिक्षित लोगों पर ही आश्रित होना पड़ता है, यह भी शिशु मृत्यु अपेक्षानुरूप कम न होने का एक बड़ा कारण है। सरकार द्वारा सस्ते और सुरक्षित इलाज के लिए योजनाएं भी बहुत चलाई गई हैं किन्तु विड़म्बना है कि ऐसे दूरदराज के क्षेत्रों तक उसका लाभ पूरी तरह से नहीं पहुंच पाता और यही कारण है कि जहां कुछ महिलाएं प्रसव के दौरान ही दम तोड़ देती हैं, वहीं उससे कहीं ज्यादा गर्भावस्था के दौरान पर्याप्त चिकित्सकीय परामर्श व सुविधाएं न मिल पाने के कारण गर्भ संबंधी बीमारियों की शिकार हो जाती हैं।
नवजात शिशु मृत्यु दर को लेकर स्थिति चिंताजनक तो जरूर है लेकिन फिर भी यह अच्छी बात है कि इस दर पर नियंत्रण के मामले में हम धीरे-धीरे ही सही, थोड़ा आगे बढ़ने में तो सफल हो रहे हैं। हालांकि मौजूदा 25.4 की नवजात मृत्यु दर को वर्ष 2030 तक 12 पर लाने का लक्ष्य रखा गया है लेकिन इसके लिए न केवल सरकारी स्तर पर गंभीर प्रयासों की जरूरत है बल्कि दूरदराज के इलाकों में गर्भावस्था तथा प्रसव को लेकर जरूरी सावधानियों और सुविधाओं के लिए बड़े पैमाने पर जन-जागरूकता अभियान चलाए जाने की भी जरूरत है। चूंकि नवजात शिशु मृत्यु दर में भी बालिकाओं की संख्या ज्यादा है, इसलिए यहां लड़कियों के प्रति लोगों के दोयम नजरिये को भी नजरंअदाज नहीं किया जा सकता, अतः इसके लिए भी लोगों को जागरूक किए जाने की आवश्यकता है। (संवाद)
स्वस्थ शिशु ही हैं स्वस्थ भारत का भविष्य
नवजातों पर मौत का नश्तर
योगेश कुमार गोयल - 2018-08-09 10:52
पिछले दिनों महाराष्ट्र में एक आरटीआई के जरिये नवजात शिशुओं की मृत्यु को लेकर चैंकाने वाला आंकड़ा सामने आया कि मरने वाले 65 प्रतिशत शिशुओं की सांसें 28 दिनों के भीतर ही बंद हो जाती है। राज्य के परिवार कल्याण विभाग के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में अप्रैल 2017 से फरवरी 2018 के बीच 13541 शिशुओं की मृत्यु हुई और इनमें से 65 फीसदी की सांसें 28 दिनों के अंदर ही रूक गई। हालांकि देश में नवजात शिशुओं की मौत के मामले में पिछले कुछ वर्षों में थोड़ी गिरावट दर्ज की गई है किन्तु कुछ ही समय पहले आई यूनीसेफ की रिपोर्ट में अभी इस दिशा में और ध्यान दिए जाने पर जोर दिया गया था।