भगवान की धरती माने जाने वाले प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर केरल में तो बाढ़ के चलते हालात कितने भयावह हो गए, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश के करीब 10 हजार किलोमीटर सड़क मार्गों को बाढ़ के कहर ने निगल लिया है, हवाई, ट्रेन और मैट्रो नेटवर्क बुरी तरह ध्वस्त हुआ है तथा राज्य के तीन करोड़ से अधिक लोगों पर बाढ़ कहर बनकर टूटी है। बाढ़ प्रभावित राज्यों में अनेक नदियां खतरे के निशान के ऊपर बह रही हैं और एक हजार से अधिक लोग अपने प्राण गंवा चुके हैं। 1924 के बाद केरल में बाढ़ का ऐसा कहर देखा गया किन्तु विनाशलीला इस बार उससे कहीं ज्यादा है। राज्य के 35 बांधों के फाटक खोल देने के बाद भी सभी में जल स्तर खतरे के निशान के ऊपर है और मुल्लापेरियार बांध में तो पहली बार जलस्तर अत्यधिक बढ़कर 145 फुट तक पहुंच गया, जिसे अब सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित ऊंचाई से तीन फुट कम 139 फुट पर रखने के निर्देश दिए हैं। दरअसल केरल में स्थित इस बांध का नियंत्रण तमिलनाडु सरकार के हाथ में है और बांध से पानी छोड़े जाने को लेकर बाढ़ के इस भयावह दौर में भी दोनों राज्य सरकारों के बीच आरोप-प्रत्यारोपों की शर्मनाक राजनीति हो रही है। 26 वर्ष बाद विश्वप्रसिद्ध इडुक्की जलाशय के चेरूथोनी बांध को खोलने की नौबत आई है। प्रदेश की 28 हजार हैक्टेयर कृषि भूमि बाढ़ के पानी में डूबी हुई है।

केरल देश के उन राज्यों में शुमार है, जहां सर्वाधिक मानसूनी वर्षा होती है किन्तु इसे मानसून की दगाबाजी कहें या पर्यावरण असंतुलन का दुष्परिणाम कि पिछले साल अगस्त माह में ही जहां केरल में 29 फीसदी कम वर्षा हुई थी, वहीं इस साल इस प्रदेश में करीब 19 फीसदी अधिक वर्षा हो चुकी है और कुछ राज्यों में तो 50 फीसदी तक ज्यादा बारिश हुई है। समुद्र की ओर झुकाव के कारण केरल को प्रायः ऐसा राज्य नहीं माना जाता, जहां बाढ़ का खतरा रहता हो क्योंकि भारी बारिश का पानी यहां की नदियों में नहीं ठहरता, जो सीधे पश्चिमी घाट और अरब सागर की गहराईयों में मिल जाता है लेकिन हालात इतने बदतर होने के पीछे प्रकृति में व्यापक मानवीय दखलंदाजी, अवैज्ञानिक विकास, बड़े पैमाने पर वनों की कटाई और हमारी कुव्यवस्थाएं पूरी तरह जिम्मेदार हैं, जिसके चलते समुद्र का तल निरन्तर ऊंचा उठता जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप नदियों का पानी समुद्रों में तीव्र गति से समाना कम हो गया है, जिसकी परिणति अब अक्सर भयानक बाढ़ के रूप में सामने आती है।

अधिकांश पर्यावरण वैज्ञानिक देश के कई राज्यों में उपजे बाढ़ के हालातों को मानव निर्मित त्रासदी की संज्ञा दे रहे हैं। इस प्रकार की अति वर्षा और बाढ़ की स्थिति के लिए जलवायु परिवर्तन, विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई, नदियों में होते अवैध खनन को मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है, जिससे मानसून प्रभावित होने के साथ-साथ भू-रक्षण और नदियों द्वारा कटाव की बढ़ती प्रवृत्ति के चलते होती तबाही के मामले बढ़े हैं। यह विड़म्बना ही है कि विश्वभर में बाढ़ के कारण होने वाली मौतों का पांचवां हिस्सा भारत में होता है और प्रतिवर्ष बाढ़ के चलते देश को करीब एक हजार करोड़ का नुकसान होता है। केरल में आई बाढ़ से तो इस बार चाय, काॅफी, मसाले और रबर की खेती तबाह होने से करीब 20 हजार करोड़ का नुकसान होने का अनुमान है।

2010 में बड़े स्तर पर यह चिंता जताई गई थी कि भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर वर्षा के बादलों को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला पश्चिमी घाट मानवीय हस्तक्षेप के चलते सिकुड़ रहा है और इसी के बाद इस पर रिपोर्ट देने के लिए केन्द्र द्वारा ‘गाडगिल पैनल’ का गठन किया था किन्तु विड़म्बना ही है कि हर साल इस तरह की आपदाएं झेलते रहने के बावजूद पारिस्थितिकीय रूप से नाजुक माने वाले पहाड़ी क्षेत्रों को संरक्षित करने के लिए गाडगिल समिति की रिपोर्ट को अब तक लागू नहीं किया गया। भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान द्वारा वर्ष 1900 के बाद साल दर साल हुई वर्षा के आंकड़ों के आधार पर 2014 में किए गए अध्ययन में बताया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते मानसूनी बारिश की तीव्रता बढ़ती जा रही है और इस प्रकार की त्रासदियां अभी आगे और बढ़ेंगी, जिसे कोई नहीं रोक पाएगा, हां इसके दुष्परिणामों को हम काफी हद तक कम अवश्य कर सकते हैं लेकिन उसके लिए प्रकृति द्वारा बार-बार दी जा रही गंभीर चेतावनियों से हमें सबक सीखने होंगे परन्तु हमारा स्वभाव कुछ ऐसा हो चुका है कि हम सांप गुजरने के बाद लाठी पीटने के आदी हो चुके हैं। सरकार और प्रशासन द्वारा आपदाओं से निपटने के लिए पहले से कोई तैयारी नहीं होने के चलते हर साल इस प्रकार की आपदाओं को झेलने को हम अभिशप्त होते हैं किन्तु हालात में सुधार होते ही हम सब कुछ भुलाकर पहले की भांति प्रकृति के साथ खिलवाड़ में मशगूल हो जाते हैं। तीन साल पहले चेन्नई में बाढ़ से जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया था, पर्वतीय क्षेत्र श्रीनगर में समुद्र जैसा नजारा देखा गया था, महाराष्ट्र का बदतर हाल प्रतिवर्ष देखा ही जाता है, देश की राजधानी दिल्ली तो थोड़ी सी बरसात के सामने भी अक्सर बेबस नजर आने लगती है। 1950 में देश में करीब ढ़ाई करोड़ हैक्टेयर भूमि बाढ़ के दायरे में आती थी किन्तु अब बाढ़ के दायरे में आने वाली भूमि बढ़कर सात करोड़ हैक्टेयर हो गई है।

हमें इस प्रश्न का उत्तर जान लेना होगा कि मानसून की जो बारिश हमारे लिए प्रकृति का वरदान होनी चाहिए, वो क्यों इतनी बड़ी आपदा बनकर अक्सर सामने आती है? दरअसल बाढ़ और सूखे को प्राकृतिक आपदाएं भर मान लेने से कुछ नहीं होने वाला बल्कि हमें अब भली-भांति समझ लेना चाहिए कि ये प्रकृति की गंभीर चेतावनियां हैं, जिन्हें हम प्रकृति द्वारा लगातार संकेत दिए जाते रहने के बावजूद समझना ही नहीं चाहते। पर्यावरण और मानूसन असंतुलन का अब यह भयावह दौर चल रहा है। मौसम विज्ञानियों के तमाम पूर्वानुतमानों और कयासों को धत्ता बताते हुए प्रकृति साल दर साल अपना प्रकोप प्रचण्ड रूप में दिखा रही है, जिसके चलते हर साल कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ के हालात पैदा हो रहे हैं और कभी सूखा तो कभी बाढ़ के नाम पर हाय-तौबा मचाना ही हमारी नियति बन चुकी है। हम हर बार किसी भी आपदा के लिए प्रकृति पर दोष मढ़ते हैं किन्तु प्रकृति के असली गुनाहगार तो हम स्वयं हैं। हमने प्रकृति के संरक्षण के लिए किया ही क्या है? न हमने अंधाधुंध पेड़ों का सफाया करने के बाद भी इतने पेड़ लगाए कि प्रकृति खुश हो सके, न हमने तालाबों, झीलों या नदियों जैसे जल स्रोतों को बचाने के लिए समुचित कदम उठाए। जल स्रोतों को बचाने के बजाय उन्हें गंदगी से पाटने में ही हमारी दिलचस्पी ज्यादा रहती है।

पहाड़ी इलाकों में भी जिस प्रकार प्रकृति के साथ खुलकर खिलवाड़ किया जा रहा है, उसी का नतीजा है कि पर्वतीय इलाके भी अब बाढ़ जैसी विभीषिका झेलने को अभिशप्त हो रहे हैं अन्यथा प्रकृति ने पहाड़ों की बनावट ऐसी की है कि तीखे ढ़लान होने के कारण भारी वर्षा के पानी का निकास आसानी से हो सके लेकिन हमने पहाड़ों पर भी प्रकृति को नहीं बख्शा। पहाड़ों पर भी बढ़ते अतिक्रमण, अनियोजित विकास के नाम पर वनों के विनाश ने अब पहाड़ों की फिजां भी बदल डाली है। अंधाधुंध बड़े पैमाने पर वनों के विनाश के चलते पहाड़ों की नींव कमजोर हो रही है और इसी का नतीजा है पहाड़ी क्षेत्रों में बढ़ती भू-स्खलन की घटनाएं और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं। हाल ही में यह दूसरा अवसर है, जब पर्यटकों को हिमाचल न आने की सलाह दी गई है। करीब ढ़ाई माह पहले जल संकट के चलते पर्यटकों से शिमला न पहुंचने की अपील की गई थी।

बहरहाल, केरल सहित देश के कई राज्यों में उत्पन्न हुई बाढ़ की भयावह परिस्थितियों से सबक लेते हुए हमें अब जंगल, पहाड़, नदी, झीलें इत्यादि प्रकृति के इन सभी रूपों की महत्ता समझनी होगी और जंगल सिकुड़ने के चलते पैदा होते बाढ़ के हालातों के मद्देनजर वृक्षारोपण को बढ़ावा देने की व्यवस्था करनी होगी, साथ ही सरकारी तंत्र को गहरी निद्रा से जागकर भारी बारिश के पानी की निर्बाध निकासी के पुख्ता प्रबंध हर साल समय रहते करने चाहिएं। बाढ़ जैसी आपदाएं लाखों-करोड़ों लोगों के विस्थापन का कारण तो बनती ही हैं, कुछ समय बाद जब बाढ़ का पानी उतरता है तो अपने पीछे ऐसी ढ़ेर सारी गंदगी छोड़ जाता है, जो गंभीर बीमारियों और महामारी का कारण बनता है लेकिन क्या हमने कभी यह सोचा है कि पानी में यह गंदगी आती कहां से है? यह कोई बारिश के साथ आसमान से टपकी गंदगी नहीं होती बल्कि यह वही गंदगी होती है, जो हम आए दिन नदी-नालों व झीलों-तालाबों में कई-कई टन की मात्रा में उड़ेलते रहते हैं और बाढ़ जैसी आपदाओं के समय इसी गंदगी की बदौलत स्वयं अपने लिए महामारी को निमंत्रण देते हैं। बेहतर होगा कि पर्यावरण के नाम पर बहसों तक ही सीमित न रहकर हम कुपित प्रकृति के प्रकोप को शांत करने के पुख्ता प्रबंध करें ताकि पर्यावरण संतुलन बना रहे और प्राकृतिक आपदाओं की वजह से जान-माल की इतनी हानि न हो सके। (संवाद)