लेकिन वही दबंग बाहुबली को आज अपनी पिटाई की कहानी कहते हुए फफक फफक कर रोना पड़ रहा है। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं की रोना उनके नाटक का हिस्सा है, लेकिन सवाल उठता है कि वे नाटक किसलिए कर रहे हैं। क्या इस तरह के नाटक से उनका जनाधार बढ़ जाएगा? इसका सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि बिहार में १९८० वाला वह दशक नहीं चल रहा है, अब कर्पूरी ठाकुर पर विरोधियों के हमले के बाद उनके इर्द गिर्द हजारों समर्थक जुट जाते थे और नारा लगाते थे, “वीर कर्पूरी मत घबराना, तेरे पीछे नया जमाना”। बाद में तो यह कर्पूरी ठाकुर के स्वागत में लगाया जाने वाला नारा ही बन गया था। जहां कहीं कर्पूरी ठाकुर जाते थे, उनका स्वागत इसी नारे से होता था, ” वीर कर्पूरी मत घबराना, तेरे पीछे नया जमाना”।
हाँ, तो अब १९८० का दशक नहीं रहा कि आप यह कहकर अपने लिए जनसमर्थन तैयार कर लें कि आपके विरोधियों ने आपकी पिटाई कर दी। आज तो लोग उनके साथ जुड़ते हैं, जो उनकी रक्षा कर सकें। जो अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकता, उसके साथ अब कौन जुड़ना चाहेगा?
जाहिर है, पप्पू यादव का वह विलाप सिर्फ नाटक नहीं था, भले ही उसमे नाटकीयता के भी कुछ तत्व हों। पप्पू यादव का वह विलाप मंडल क्रांति के विफल हो जाने का प्रलाप है। १९९० में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग लागू करने की घोषणा की थी और उसे लागू करने के लिए अधिसूचना भी जारी कर दी थी, तो पूरा भारत हिल गया था। दक्षिण भारत को छोड़कर पूरे देश में सुनामी आ गया था। आरक्षण के खिलाफ आंदोलन किसी सुनामी से काम नहीं था। बी पी मंडल की जन्मभूमि बिहार में तो यह अपने चरम पर था। और सुनामी का जवाब वहां दिया था पप्पू यादव ने। उस समय लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे। इसलिए वे खुद तो मंडल समर्थन आंदोलन में शामिल हो नहीं सकते थे और उसका नेतृत्व भी नहीं कर सकते थे। और वही काम उस समय पप्पू यादव कर रहे थे।
एक बार वे जब मधेपुरा से पटना आ रहे थे, तो उन पर आरक्षण विरोधियों द्वारा हमला हुआ था। वह हमला बहुत बड़ा था। २८ साल पहले हुए उस हमले के सामने एससी एसटी एक्ट के खिलाफ बंद करा रहे लोगों द्वारा किया गया हमला बहु छोटा था। उस समय अखबारों में छपी खबरों के अनुसार उनपर गोलियां चली थीं और जवाब में उनकी तरफ से भी गोलियां चली थीं। उस हमले के बाद वे आरक्षण विरोधियों के लिए आतंक का पर्याय बन गए थे। उस समय वे एक निर्दलीय विधायक थे, लेकिन उस आंदोलन में उन्होंने जो ख्याति प्राप्त की, उसके बाद वे एक बड़े नेता बन गए और फिर तो वे अपने को बिहार की राजनीती में लालू का उत्तराधिकारी ही समझने लगे।
लेकिन वे लालू यादव का राजनैतिक उत्तराधिकारी नहीं बन सके। शायद अभी भी कोशिश कर रहे हैं, लेकिन १९९० का मंडल हीरो २०१८ में मंडल विरोधियों से ( जो इस समय एससीध्एसटी एक्ट का विरोध कर रहे थे) मार खाकर इस तरह फफक फफक कर रोएगा, इससे यही पता चलता है कि अब बिहार का सामाजिक परिदृश्य कुछ इस तरह बदल गया है, जो १९९० वाला पप्पू यादव पैदा नहीं कर सकता, बल्कि एक फफक फफक कर रोने वाला लाचार पप्पू पैदा करता है। यह मंडल आंदोलन या कथित मंडल क्रांति के विफल होने का एक बड़ा सबूत है। यह आंदोलन विफल हो गया। इसके कारण ओबीसी, जिनके लिए यह क्रांति की गयी थी, भारी नुकसान में रहे। लेकिन यह इतना विफल हो गया है कि मंडल हीरो आज रो रहा है। (संवाद)
पप्पू यादव का करूण विलाप
1990 का मंडल हीरो 2018 में क्यों रो रहा है?
उपेन्द्र प्रसाद - 2018-09-08 18:53
राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव कि बिहार में पिटाई हो गयी। पिटाई होना तो एक घटना है और राजनेताओं को कभी कभी इस तरह के हादसे का सामना करना पड़ता है। लेकिन उससे भी बड़ी घटना पप्पू यादव द्वारा मार खाकर फूट फूट कर रोना है। पप्पू कि छवि एक दबंग नेता की रही है। उनके खिलाफ हत्या तक के मामले चले हैं। निचली अदालत से उन्हें सजा भी मिली और ऊपरी अदालत ने उन्हें बरी भी किया। निचली अदालत से सजा पाने के पहले भी वे सांसद थे और दोषमुक्त होने के बाद भी वे सांसद हैं। वे अनेक बार सांसद रहे हैं। उसके पहले वे विधायक भी थे। वे किसी भी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर जीतने की क्षमता रखते हैं और अनेक बार तो निर्दलीय भी चुनाव जीत चुके हैं। जाहिर है, उनका अपना समर्थन आधार भी है और उनकी छवि एक बाहुबली नेता की है, जिसे चुनाव हराना आसान नहीं।