पटाखों में हरी रोशनी के लिए बैरियम का उपयोग किया जाता है, जो रेडियोधर्मी तथा विषैला होता है जबकि नीली रोशनी के लिए काॅपर के यौगिक का इस्तेमाल होता है, जिससे कैंसर का खतरा होता है और पीली रोशनी के लिए गंधक इस्तेमाल किया जाता है, जिससे सांस की बीमारियां जन्म लेती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार पटाखों के फूटने के करीब 100 घंटे बाद तक हानिकारक रसायन वातावरण में घुले रह सकते हैं। यही कारण रहा कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस दिशा में कदम उठाते हुए पटाखे चलाने के लिए रात के समय सिर्फ दो घंटे का समय तय किया गया और ग्रीन पटाखे बनाने तथा इस्तेमाल करने को भी कहा गया।

पटाखों के धुएं में सल्फर डाई आॅक्साइड, नाइट्रोजन आॅक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, ऐस्बेस्टाॅस के अलावा विषैली गैसों के रासायनिक तत्व भी पाए जाते हैं। बारूद और रसायनयुक्त पटाखों के जहरीले धुएं से श्वास संबंधी रोग, कफ, सिरदर्द, आंखों में जलन, एलर्जी, उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा, एम्फिसिया, ब्रोंकाइटिस, न्यूमोनिया, अनिद्रा सहित कैंसर जैसी असाध्य बीमारियां फैल रही हैं। पटाखों की कानफोडू आवाज से कानों के पर्दे फटने तथा बहरेपन जैसी समस्याएं भी तेजी से बढ़ी हैं। जहरीले पटाखों के कारण बैक्टीरिया तथा वायरस संक्रमण की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। प्रतिवर्ष हजारों लोग पटाखों की वजह से जल जाते हैं। देश में हर साल बीस हजार करोड़ रुपये का पटाखा कारोबार होता है। माना जाता है कि पटाखों का इस्तेमाल 16वीं सदी में शाही उत्सवों में किया जाने लगा था। 1609 में आदिल शाह द्वारा शाही उत्सव में करीब अस्सी हजार की आतिशबाजी कराए जाने का उल्लेख मिलता है जबकि पटाखों की पहली आधुनिक फैक्टरी 19वीं सदी में कोलकाता में स्थापित की गई थी किन्तु 20वीं सदी में पटाखा उद्योग तमिलनाडु में स्थानांतरित हो गया, जहां अब करीब 90 फीसदी पटाखों का उत्पादन होता है।

पहले से ही खेतों में जलती पराली, विकास के नाम पर अनियोजित व अनियंत्रित निर्माण कार्यों के चलते बिगड़ते हालात, मोटरगाड़ियों और औद्योगिक इकाईयों के कारण बेहद प्रदूषित हो रहे वातावरण के भयावह खतरों का तो हम ठीक से सामना भी नहीं कर पा रहे हैं और ऊपर से एक रात का यह जश्न हमारी इन समस्याओं को और भी भयानक रूप दे जाता है। हालांकि पर्यावरण तथा प्रदूषण नियंत्रण के मामले में देश में पहले से ही कई कानून लागू हैं लेकिन उनका पालन कराने के मामले में पर्यावरण एवं प्रदूषण नियंत्रण विभाग में सदैव उदासीनता का माहौल देखा जाता रहा है। देश की राजधानी दिल्ली तो वक्त-बेवक्त ‘स्माॅग’ (कोहरे और धुएं का ऐसा मिश्रण, जिसमें बहुत खतरनाक जहरीले कण मिश्रित होते हैं) से लोगों का हाल बेहाल करती रही है। तय मानकों के अनुसार हवा मेें पीएम की निर्धारित मात्रा 60-100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर होनी चाहिए किन्तु यह दीवाली से पहले ही 900 का आंकड़ा पार कर गई।

न केवल दिल्ली में बल्कि देशभर में वायु, जल तथा ध्वनि प्रदूषण का खतरा मंडरा रहा है, ‘लैंसेट जर्नल’ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015 में वायु, जल तथा अन्य प्रदूषण की वजह से भारत में 25 लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई और उस वर्ष प्रदूषण से होने वाली मौतों के मामले में भारत शीर्ष पर रहा। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार मानव निर्मित वायु प्रदूषण से प्रतिवर्ष करीब 4 लाख 70 हजार लोग मौत के मुंह में समा जाते हैं। वायु प्रदूषण की गंभीर होती समस्या का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश में हर 10वां व्यक्ति अस्थमा का शिकार है, गर्भ में पल रहे बच्चों तक पर इसका खतरा मंडरा रहा है और कैंसर के मामले देशभर में तेजी से बढ़ रहे हैं। देश का शायद ही कोई ऐसा शहर हो, जहां लोग धूल, धुएं, कचरे और शोर के चलते बीमार न हो रहे हों। देश के अधिकांश शहरों की हवा में जहर घुल चुका है।

बात दीवाली की करें तो दिल्ली सहित देश के दो सौ से भी ज्यादा महानगरों व शहरों की आबोहवा एक रात के इस जश्न में इतने खतरनाक स्तर पर पहुंच जाती है कि दिल्ली में तो बाकायदा सरकार को चेतावनी जारी करनी पड़ती है कि अगर जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें और प्रदूषण के तांडव से बचने के लिए घर में भी सभी खिड़की-दरवाजे बंद रखें। दीवाली की रात प्रदूषण के आंकड़े जिस कदर रिकार्ड तोड़ने लगे हैं, उसी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट को इस दिशा में कदम उठाने पर विवश होना पड़ा। गत वर्ष अदालती निर्देशों के बावजूद दिल्ली में दीवाली पर प्रदूषण का स्तर इतना खतरनाक हो गया था कि ऐसा लगा था मानो किसी संक्रामक बीमारी ने दिल्ली पर हमला बोल दिया हो। याद करें कि कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में प्रत्येक पटाखे के रैपर पर उसके ध्वनि के अधिकतम स्तर को प्रिंट किया जाना अनिवार्य किया था किन्तु उन आदेशों की कितनी पालना हुई, सर्वविदित है।

कुछ लोग अदालत के हर फैसले में कमियां ढूंढ़ते हैं, दीवाली संबंधी अदालत के फैसले का भी धार्मिक परम्पराओं में अदालती हस्तक्षेप का मामला बताकर विरोध किया जा रहा है लेकिन ऐसा विरोध करते समय हम भूल जाते हैं कि दीवाली तो पटाखों की शुरूआत होने के सदियों पहले से ही मनाई जाती रही है। वैसे भी देखा जाए तो सरकारें और देश की तमाम जिम्मेदार संस्थाएं देश को प्रदूषण के कहर से बचाने में नाकारा साबित हो रहे हैं। ऐसे में अगर लोगों के स्वास्थ्य के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय ऐसे कठोर फैसले लेने पर विवश होता है तो इसमें गलत क्या है। ऐसे फैसलों को धर्म और आस्था की चाशनी में घोलकर देखने के बजाय अगर अदालत के ऐसे फैसलों की सदाशयता को समझें और उन्हें व्यावहारिक बनाने में अपने-अपने स्तर पर प्रयास करें तो यह स्वास्थ्य के लिहाज से न केवल दूसरों के बल्कि स्वयं अपने हित में भी होगा। माना कि समय के साथ पटाखे भी दीवाली का अटूट हिस्सा बन चुके हैं किन्तु प्रदूषण के भयावह खतरों के मद्देनजर हमें समय रहते समझना होगा कि दीवाली पटाखों का नहीं बल्कि दीयों की जगमगाहट, खील-बताशों और मिठाईयों का त्यौहार है, यह घर-आंगन के हर कोने को दीयों की रोशनी से जगमगाने का प्रकाशोत्सव है और हम पटाखों का उपयोग बेहद सीमित करते हुए भी यह त्यौहार पूरे हर्षेल्लास के साथ मना सकते हैं। भारतीय समाज में दीवाली पर साफ-सफाई की परम्परा रही है किन्तु अब हम दीवाली के अवसर पर जगह-जगह बारूद और कचरे का अंबार लगाकर ये कैसा जश्न मनाते हैं? (संवाद)