अब जब 2019 का लोकसभा चुनाव कुछ महीने बाद ही होने हैं, भाजपा विरोधी पार्टियां मोदी सरकार के इस सबसे बड़े नीतिगत फैसले की विफलता को एक बार फिर रेखांकित करने लगी हैं। हालांकि वित्तमंत्री बार बार इसे सफल बता रहे हैं और इसकी सफलता को नये पैमाने पर दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन एक निष्पक्ष विश्लेषक के लिए इस फैसले की विफलता स्वतः स्पष्ट है।
8 नवंबर 2016 को नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा था कि 500 और 1000 रुपये के नये नोट अब कागज की रद्दी में तब्दील हो रहे हैं। लेकिन वे नोट कागज की रद्दी में तब्दील नहीं हुए। लगभग सभी पुराने नोट नये नोटों मंे तब्दील हो गए। वह घोषणा पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर भारतीय सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक की चर्चा की पृष्ठभूमि में किया गया था और उसे काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक बताया गया, लेकिन काले धन का उससे कुछ भी नहीं बिगड़ा। उन नोटों के रूप में जमा किया गया काला धन बैंकिंग सिस्टम से होता हुआ सफेद हो गया। भारतीय रिजर्व बैंक ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उनसे स्पष्ट हो गया है कि लगभग सारा का सारा कैश बैंको में जमा हो चुके थे।
कुछ विशेषज्ञों का मानना था कि नोटबंदी की उस घोषणा से 3 लाख करोड़ रुपये का काला धन समाप्त हो जाएगा। वे कह रहे थे कि कुल काला धन 25 लाख करोड़ रुपये का है, जिनमें से अधिकांशतः रियल इस्टेट के रूप में जमा है और उसके बाद सबसे ज्यादा काला धन सोने, हीरे व अन्य जेवरातों के रूप में है। वे मात्र तीन लाख करोड़ रुपये के काले धन पर इस तरह के सर्जिकल स्ट्राइक को उचित नहीं ठहरा रहे थे, क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था का जो नुकसान हो रहा था, वह 3 लाख करोड़ रुपये से कहीं ज्यादा था।
लेकिन परिणाम यह आया कि बड़े करंसी नोटों में जमा 3 लाख करोड़ रुपये के काला धन का भी कुछ नहीं बिगड़ा। जब सरकार को विफलता साफ दिखाई दे रही थी, तो उसने कुछ प्रलोभन भी दिए, ताकि सजा और पूर्ण जब्ती से बचने के लिए काले धन के मालिक अपने काले धन को घोषित कर दें, लेकिन उन प्रलोभनों का भी कोई लाभ नहीं हुआ और नोटबंदी के कारण जो कैश का संकट खड़ा हुआ, वह भारत के इतिहास मे ही नहीं, बल्कि शायद विश्व इतिहास की अभूतपूर्व घटना थी।
नकली नोटों की समाप्ति और आतंकवाद पर लगाम लगाना भी उसके उद्देश्यों में शामिल था, लेकिन नये नोटों की नकल भी शुरू हो गयी और वह समस्या जहां की तहां है। कश्मीर से बाहर का आतंकवाद अभी नियंत्रण में है। नोटबंदी के बाद कश्मीर से बाहर आतंकवाद की कोई बड़ी घटना नहीं घटी है, लेकिन दावे से यह नहीं कहा जा सकता कि यह नोटबंदी के कारण संभव हो पाया है। इसका श्रेय गुप्तचर और सुरक्षा एजेंसियों को दिया जाना चाहिए। कश्मीर में तो आतंकवाद की घटनाएं और बढ़ी हैं, जबकि दावा किया जा रहा था कि पुराने नोटों के बंद होने के कारण वहां भी आतंकवादी की कमर टूटेगी, क्यांेंकि यह मान लिया गया था कि नकली नोटों के बल पर वहां पाकिस्तान आतंकवाद को प्रश्रय दे रहा है।
जब नोटबंदी प्रधानमंत्री द्वारा 16 नवंबर 2016 को घोषित उद्देश्यों को पाने में विफल होने लगी, तो एकाएक उसका एक नया उद्देश्य डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देना हो गया। कैश की तंगी के दौर में डिजिटल पेमेंट बढ़ा भी, लेकिन जैसे जैसे कैश की आपूर्ति बढ़ती गई, डिजिटल पेमेंट घटता गया। हां, इसका एक असर यह हुआ कि कुछ लोगों को डिजिटल पेमेंट की जानकारी हो गई। वे इस तरह के पेमेंट के लिए शिक्षित हो गए और इसके कारण निश्चय ही डिजिटल पेमेंट 8 नवंबर 2016 के पहले की तुलना में आज बहुत ज्यादा है, लेकिन डिजिटल पेमेंट की सफलता का मानदंड खुद डिजिटल पेमेंट नहीं हो सकता। उसका मानदंड यह होगा कि कैश पेमेंट में कटौती हुई या नहीं और देश की अर्थव्यवस्था में रूपये की आपूर्ति का स्तर क्या है।
आज की सच्चाई यह है कि 8 नवंबर 2016 को भारत में कैश का जो स्तर था, आज का कैश स्तर उससे कहीं ज्यादा ऊंचा है। डिजिटल फ्रंट पर नोटबंदी की सफलता हम तब मानते, जब हम देखते की कैश की आपूर्ति कम हो जाने के बावजूद बाजार में कैश की किल्लत नहीं हो और कैश का स्थान व्यापक तौर पर डिजिटल पेमेंट ले ले। पर वैसा नहीं हो सका है।
अब सरकार आयकर और आयकर दाताओं में हुई बढ़ोतरी को नोटबंदी की सफलता बता रही है। यह इसका घोषित लक्ष्य नहीं था, लेकिन यदि इस मोर्चे पर सफलता प्राप्त हो रही है, तो यह अच्छी बात है। वित्तमंत्री जो आंकड़े पेश कर रहे हैं, उनसे तो यही लगता है कि वे सच कह रहे हैं। अब ज्यादा लोग आयकर देने लगे हैं। आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या भी बढ़ गई है और आयकर की प्राप्त राशि भी पहले से ज्यादा है।
नोटबंदी कितनी विफल रही और कितनी सफल रही, अब यह अकादमिक विमर्श का विषय बन गया है, पर सवाल यह है कि इसे राजनैतिक मुद्दा बनाने से कौन क्या हासिल करेगा और कौन क्या खोएगा। कांग्रेस और अन्य भाजपा विरोधी पार्टियां इसे चुनावी रूप से भुनाने की कोशिश में लगी हुई है, क्योंकि इसके कारण करोड़ों लोगों को नुकसान हुआ था, लेकिन लगता है कि लोग इसे एक बुरा हादसा समझकर भूल जाना चाहते हैं। यही कारण है कि चुनाव में कोई बड़ा मुद्दा इसके बनने की संभावना बहुत कम है। (संवाद)
नोटबंदी के दो साल
क्या यह बन पाएगा 2019 का चुनावी मुद्दा?
उपेन्द्र प्रसाद - 2018-11-08 15:41
नोटबंदी के दो साल पूरे हो चुके हैं और इस बीच कई चुनाव भी हुए हैं। उन चुनावों मे इसे भाजपा विरोधी पार्टियों ने मुद्दा भी बनाया, लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर इसके कारण न तो भाजपा को नुकसान हुआ और न ही भाजपा विरोधी पार्टियों को कोई फायदा। ज्यादातर चुनाव भाजपा ही जीती और जहां वह हारी, उसकी हार के कारण कुछ और थे न कि विरोधी पार्टियों द्वारा उठाया गया नोटबंदी की विफलता का मुद्दा।