लेकिन राजनीति भी कोई मामूली चीज नहीं है। पहले जो काम धर्म करता था, लोकतंत्र के समय में वे सभी काम राजनीति करती है। बल्कि वह नियमन में धर्म से भी बहुत आगे निकल गया है। इस मायने में हम कह सकते हैं कि आज राजनीति ही धर्म है। इसलिए राजनीति को शुद्ध बनाने की अहमियत सबसे ज्यादा है। राजनीति शुद्ध रहेगी, तो महिलाओं का जीवन भी बेहतर होगा। बुरी राजनीति क्या पुरुष क्या महिला सभी के लिए अभिशाप है। इसलिए राजनीति की फिक्र करना महिलाओं की फिक्र करना भी है। अगर हमारे देश की राजनीति ठीक दिशा में चली होती, तो आज महिलाओं को आरक्षण देने की कोई जरूरत नहीं होती। वे अपने हक से और किसी की मेहरबानी के बगैर बड़ी संख्या में विधायिका में, न्यायपालिका में और प्रशासन में मौजूद होतीं। स्वीडन मे कोई आरक्षण नहीं है, फिर भी सरकार चलाने में महिलाओं की भूमिका पुरुषों से कहीं बहुत ज्यादा है। इस जादू का रहस्य स्वीडन के समाजवादी रुझानों में है।

मामला महिलाओं का है, इसलिए गलत समझ लिए जाने का खतरा उठा कर भी मैं बहुत सख्त अंदाज में यह कहना चाहता हूं कि राजनीति में किसी भी प्रकार का आरक्षण बुरा है। यह कुछ वैसी ही बात है जैसे धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में आरक्षण लागू कर दिया जाए। अगर कोई धार्मिक संप्रदाय है, तो उसका सबसे ऊंचा पद सबसे ज्यादा धार्मिक व्यक्ति को मिलना चाहिए, न कि यह पद किसी पुरुष या स्त्री के लिए आरक्षित कर दिया जाना चाहिए। जीवन के प्राय: सभी क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें लिंग भेद की कोई अहमियत नहीं है। यह मांग तो स्त्रियों की भी है कि उन्हें लिंग भेद से निजात मिलनी चाहिए। 33 प्रतिशत आरक्षण एक नए लिंग भेद को स्थापित करना है। जब लिंग भेद किसी वर्ग के खिलाफ हो, तब वह बुरा है और जब लिंग भेद किसी वर्ग के पक्ष में हो, तो वह अच्छा है, कौन कहेगा कि यह कुतर्क नहीं है?

बहरहाल, राजनीति में आरक्षण के खिलाफ मेरा मूल तर्क यह नहीं है। मूल तर्क यह है कि राजनीति सत्ता की सुविधाएं पाने का जरिया नहीं है। सत्ताखोर जब राजनीति में आते हैं, तब वे इसे मलिन करते हैं। तब राजनीति राजनीति नहीं रह जाती, वह स्टॉक एक्सचेंज में तब्दील हो जाती है। हमारी समझ से अगर लोकतंत्र को चलना है, तो इसके सिवाय कोई चारा नहीं है कि राजनीति को जन सेवा का माध्यम बनाया जाए। पहले भी उन्हीं राजाओं की कद्र की जाती थी जो दयालु होते थे और प्रजा के हित को सर्वोपरि मानते थे। हर्षवर्धन को आज भी इसीलिए याद किया जाता है कि वह प्रत्येक कुंभ के अवसर पर अपना सब कुछ दान दे दिया करता था - यहां तक कि अपने कपड़े भी। इसी तरह, लोकतंत्र में सबसे अच्छा नेता वह है जो राजनीति के माध्यम से संपत्ति नहीं जमा करता, अपने परिवार और संबंधियों को अनुचित लाभ नहीं पहुंचाता और सार्वजनिक काम करने के लिए कम से कम सुविधाओं का उपयोग करता है। राजा अगर लुटेरा, चोर या लंपट है, तो राज्याधिकारी भी ऐसे ही होंगे।

अगर आप इस विचार से सहमत हैं कि राजनीति जन सेवा है, तो आप यह भी मानेंगे कि सेवा के क्षेत्र में किसी भी प्रकार का आरक्षण अनैतिक और अवैध है। सेवा करने का अधिकार सभी है। बल्कि यह सभी का कर्तव्य भी है। यह तय नहीं किया जा सकता कि अमुक वर्ग जनता की सेवा पहले करेगा और तमुक वर्ग का नंबर उसके बाद आएगा। अगर किसी वर्ग को देश की सेवा करने की चाहत है, तो उसे कौन रोक सकता है? जो देश की जितनी अच्छी सेवा करेगा, उसे उतनी ज्यादा संख्या में वोट मिलेगा। राजनीतिक सफलता भी उसे उतनी ज्यादा मिलेगी। अब कोई कहे कि वह जन सेवा का काम तभी करेगा, जब लोक सभा या विधान सभा में उसके लिए सीट आरक्षित कर दी जाएगी, तो यह ज्यादती है।

दुर्भाग्य से, राजनीति आज सत्ता, पैसे, जाति और बाहुबल का रणक्षेत्र बन चुकी है। जो एमपी बन जाता है, उसका साल भर में करोड़पति बन जाना तय है। वह 'उचित' दिशाओं में सक्रिय हो, तो पांच वर्ष के बाद अरबपति बन सकता है। कौन बता सकता है कि सोनिया गांधी, शरद पवार, मायावती, मुलायम सिंह, जयललिता, करुणानिधि, चंद्रबाबू नायडू आदि के पास कितना पैसा है? जो राजनीति की इस परिभाषा का समर्थन करते हैं, वही इसरार कर सकते हैं कि अलीबाबा के चालीस चोरों में स्त्रियों को भी 33 प्रतिशत या 50 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए। इस तरह का समर्थन तो मैं भी करूंगा। लेकिन मुझे भय यह है कि महिला आरक्षण विधेयक भारत की राजनीति को और गंदा करेगा। मैं सिर्फ चाह ही सकता हूं कि ऐसा न हो।