उसका भरपूर लाभ उठाते हुए नरेन्द्र मोदी ने अपनी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत दिलवा दिया। वह नरेन्द्र मोदी की निजी जीत थी। वह न तो भाजपा की जीत थी और न ही आरएसएस की। सच तो यह है कि यदि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में भाजपा प्रोजेक्ट नहीं करती, तो उसे कांग्रेस से ज्यादा सीटें नहीं मिलती और आंकड़ा 100 के आसपास ही रहता। आज भी भाजपा के पास नरेन्द्र मोदी के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। सच तो यह है कि पार्टी की नरेन्द्र मोदी पर निर्भरता और भी ज्यादा बढ़ गई है। पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में भी पार्टी को जो सफलता मिलती रही है, उसमें नरेन्द्र मोदी का सबसे ज्यादा योगदान रहता है। कर्नाटक चुनाव में भाजपा की हातल पतली थी, लेकिन नरेन्द्र मोदी के धुआंधार प्रचार के बाद वह प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और सत्ता तक पहुंचते पहुंचते रह गई।
जाहिर है, आगामी लोकसभा चुनाव भी नरेन्द्र मोदी के नाम और चेहरे पर ही लड़ा जाएगा, लेकिन आज की सच्चाई यह है कि मोदी की छवि अब पहले वाली नहीं रही। उनकी सुपरमैन छवि धूमिल हो गई है। अब उन्हें देश की सभी समस्याओं का समाधान के रूप में भी नहीं लिया जा रहा। उनके भाषणों से अभी भी लोग प्रभावित होते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अब काफी कम हो गई है। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों में तथ्यों का ध्यान नहीं रखते और कुछ ऐसी बातें कह देते हैं, जिसकी अपेक्षा प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति से नहीं की जा सकती। इसके कारण उनके विरोधी उन पर हावी हो जाते हैं। मेन स्ट्रीम टीवी न्यूज चैनल प्रघानमंत्री के भाषणों के कमजोर पहलुओं पर ध्यान नहीं देते, लेकिन सोशल मीडिया पर उनकी खूब चर्चा होती है और इस तरह मोदी की चमक धूमिल होती जा रही है।
जब नरेन्द्र मोदी अगले लोकसभा चुनावों का सामना कर रहे होंगे, ता उन्हें अपने कार्यकाल का हिसाब किताब देना होगा। नोटबंदी और जीएसटी विपक्षी पार्टियों द्वारा उठाए जाएंगे। मोदी सरकार ने इन दोनों निर्णयों से जिनको जितना नुकसान होना था, वह हो गया, इसलिए इन मुद्दों के कारण शायद ही भाजपा को अब नुकसान पहुंचाया जा सकता है। नोटबंदी एक अच्छे उद्देश्य से किया गया एक असफल घोषणा के रूप में लोगों के दिमाग मंे दर्ज हो गई है। जीएसटी एक आवश्यक नीतिगत फैसला ही था, जिसके कारण व्यापारियों को शुरुआती तौर पर परेशानी हुई, जो अस्वाभाविक नहीं था। एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में प्रवेश के कारण नुकसान तो होना ही था, सो हो गया। इसलिए जीएसटी को चुनावी मुद्दा बनाकर नरेन्द्र मोदी को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता।
हां, एससी/एसटी एक्ट में संशोधन कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को धता बता देने का मोदी सरकार का एक ऐसा निर्णय है, जिसके कारण उनके समर्थकों का एक वर्ग उनके खिलाफ खड़ा हो गया है। इसे कोई भी पार्टी मुद्दा नहीं बनाएगी, क्योंकि कोई भी बड़ी पार्टी एससी/एसटी को नाराज नहीं करना चाहती, लेकिन इसके कारण जो नुकसान नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को हुआ है, उसका असर चुनाव में जरूर दिखेगा। यह असर तो हो रहे विधानसभा चुनावों मे भी दिखेगा। अगड़ी जातियों के लोगों का समर्थन नरेन्द्र मोदी और भाजपा के प्रति सबसे ज्यादा था। उनके अलावा ओबीसी जातियो के लोगों का भी खासा समर्थन उन्हें मिला था। दलित और मुस्लिम भाजपा के खिलाफ ही थे। लेकिन सत्ता में आने के बाद नरेन्द्र मोदी और भाजपा ने दलितों को अपने पक्ष में लाने का काफी प्रयास किया। प्रयास करना गलत भी नहीं था, लेकिन वैसा करते समय यह ध्यान रखना चाहिए था कि कहीं पुराना जनाधार दरक न जाये।
एससी/एसटी एक्ट में बदलाव कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी करने का मोदी सरकार का निर्णय दलितों को अपने पक्ष में करने का ही प्रयास था, लेकिन इसके कारण अगड़ी और ओबीसी जातियों के लोग उनसे नाराज हो गए, क्योंकि इस कानून का काफी दुरुपयोग हो रहा है और इसके शिकार भारी पैमाने पर लोग हो रहे हैं। सरकारी आंकडों के अनुसार इस एक्ट में दर्ज किए मामलों का लगभग 80 फीसदी अदालत में टिक नहीं पाता। यानी 100 में 80 मामले झूठे साबित होते हैं। यह तो सिक्के का एक पहलू हुआ। दूसरा पहलू यह है कि एससी/एसटी कानून का डर दिखाकर भारी पैमाने पर ब्लैकमेल का धंधा भी चल रहा है। मुकदमे का डर दिखाकर भी इसका दुरुपयोग हो रहा है और एक दावे के अनुसार वैसे मामले दर्ज मुकदमों की संख्या से कई गुना ज्यादा हैं।
जाहिर है, एससी/एसटी एक्ट नरेन्द्र मोदी के लिए 2019 के चुनाव में काफी निर्णायक साबित होने वाला है। यदि भाजपा की हार होती है, तो इसका सबसे बड़ा कारण मोदी सरकार का यह फैसला ही होगा। वैसे 2014 के चुनावों के पहले किए गए वायदों को पूरा नहीं करना भी उनपर भारी पड़ने वाला है। (संवाद)
मोदी की असली चुनौती विधानसभा चुनावों के बाद
एससी एसटी एक्ट पड़ सकता है भारी
उपेन्द्र प्रसाद - 2018-11-17 10:06
पांच प्रदेशों की विधानसभाओं के चुनाव के नतीजों के बाद आगामी लोकसभा चुनाव का मूड तैयार हो जाएगा और वह चुनाव अन्य चुनावों से काफी अलग होगा। उसमें एक बार फिर नरेन्द्र मोदी की निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी होगी। पिछले 2014 का लोकसभा चुनाव भ्रष्टाचार के खिलाफ चले एक बहुत बड़े आंदोलन की पृष्ठभूमि में हुआ था। उस आंदोलन ने कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों की चूलें हिला दी थी। राजनीति में एक निर्वात पैदा हो गया था, जिसे नरेन्द्र मोदी ने अपने मार्केटिंग कौशल से भर दिया। सोशल मीडिया और टीवी मीडिया का इस्तेमाल करके भी एक ऐसा माहौल तैयार किया गया, जिसमें लगने लगा कि नरेन्द्र मोदी ही देश की सभी समस्याओं का समाधान हैं। भारतीय जनता पार्टी की स्थिति उस समय कांग्रेस से बेहतर नहीं थी। भ्रष्टाचार का आंदोलन भी उसके नेतृत्व में नहीं हुआ था। वह आंदोलन एक अराजनैतिक नेता अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुआ था, जो आंदोलन के बाद अपने गांव वापस लौट गए थे और उससे पैदा हुए माहौल को भुनाने का मौका नरेन्द्र मोदी पर छोड़ दिया।