जब गुरू नानक मात्र पांच वर्ष के थे, तभी धार्मिक और आध्यात्मिक वार्ताओं में गहन रूचि लेने लगे थे। अपने साथियों के साथ बैठकर वे परमात्मा का कीर्तन करते और जब अकेले होते तो घंटों कीर्तन में मग्न रहते। वे दिखावे से कोसों दूर रहते हुए यथार्थ में जीते थे। जिस कार्य में उन्हें दिखावे अथवा प्रदर्शन का अहसास होता, वे उसकी वास्तविकता जानकर विभिन्न सारगर्भित तर्कों द्वारा उसका खंडन करने की कोशिश करते।

नानक जब 9 वर्ष के हुए तो उनके पिता कालूचंद खत्री, जो पटवारी थे और खेती-बाड़ी का कार्य भी करते थे, ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराने के लिए पुरोहित को बुलाया। जब पुरोहित ने यज्ञोपवीत पहनाने के लिए नानक के गले की ओर हाथ बढ़ाया तो नानक ने पुरोहित का हाथ पकड़ लिया और पूछने लगे कि आप यह क्या कर रहे हैं और इससे क्या लाभ होगा?

पुरोहित ने कहा, ‘‘बेटे, यह जनेऊ है। इसे पहनने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसे पहने बिना मनुष्य शूद्र की श्रेणी में रहता है।’’

तब नानक ने पुरोहित से पूछा, ‘‘यह सूत का बना जनेऊ मनुष्य को मोक्ष कैसे दिला सकता है? मनुष्य का अंत होने पर जनेऊ तो उसके साथ परलोक में नहीं जाता।’’

नानक के इन शब्दों से वहां उपस्थित सभी व्यक्ति बेहद प्रभावित हुए। अंततः पुरोहित को कहना ही पड़ा कि तुम सत्य कह रहे हो, वास्तव में हम अंधविश्वासों में डूबे हुए हैं।

19 वर्ष की आयु में नानक का विवाह गुरदासपुर के मूलचंद खत्री की पुत्री सुलखनी के साथ हुआ किन्तु धार्मिक प्रवृत्ति के नानक को गृहस्थाश्रम रास न आया और वे सांसारिक मायाजाल से दूर रहने का प्रयास करने लगे। यह देखकर इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाना चाहा किन्तु इसमें भी नानक का मन न लगा। एक बार नानक के पिता ने इन्हें कोई काम-धंधा शुरू करने के लिए कुछ धन दिया लेकिन नानक ने सारा धन साधु-संतों और जरूरतमंदों में बांट दिया और एक दिन घर का त्याग कर परमात्मा की खोज में निकल पड़े।

गुरू नानक पाखंडों के घोर विरोधी थे और उनकी यात्राओं का वास्तविक उद्देश्य लोगों को परमात्मा का ज्ञान कराना और बाह्य आडम्बरों एवं पाखंडों से दूर रखना ही था।

एक बार ऐसी ही यात्रा करते हुए जब गुरू नानक हरिद्वार पहुंचे तो उन्होंने देखा कि बहुत से लोग गंगा में स्नान करते समय अपनी अंजुली में पानी भर-भरकर पूर्व दिशा की ओर उलट रहे हैं। उन्होंने विचार किया कि ये लोग किसी अंधविश्वास के कारण ही यह सब कर रहे हैं। तब उन्होंने लोगों को वास्तविकता का बोध कराने के उद्देश्य से अपनी अंजुली में पानी भर-भरकर पश्चिम दिशा की ओर उलटना शुरू कर दिया।

कुछ लोगों ने उन्हें काफी देर तक इसी प्रकार पश्चिम दिशा की ओर पानी उलटते देखा तो उन्होंने गुरू नानक से पूछ ही लिया, ‘‘भाई तुम कौन हो और किस जाति के हो तथा पश्चिम दिशा में जल देने का तुम्हारा क्या अभिप्राय है?’’

नानक बोले, ‘‘पहले आप लोग बताएं कि आप पूर्व दिशा में पानी क्यों दे रहे हैं?’’

‘‘हम अपने पूर्वजों को जल अर्पित कर रहे हैं ताकि उनकी प्यासी आत्मा को तृप्ति मिल सके।’’ लोगों ने कहा।

‘‘तुम्हारे पूर्वज हैं कहां?’’

‘‘वे परलोक में हैं लेकिन तुम पश्चिम दिशा में किसे पानी दे रहे हो?’’

‘‘यहां से थोड़ी दूर मेरे खेत हैं। मैं यहां से अपने उन खेतों में ही पानी दे रहा हूं।’’ गुरू नानक बोले।

‘‘खेतों में पानी ...!’’ लोग आश्चर्य में पड़ गए और पूछने लगे कि पानी खेतों में कहां जा रहा है? यह तो वापस गंगा में ही जा रहा है और यहां पानी देने से आपके खेतों में पानी जा भी कैसे सकता है?

‘‘अगर यह पानी नजदीक में ही मेरे खेतों तक नहीं पहुंच सकता तो इस तरह आप द्वारा दिया जा रहा जल इतनी दूर आपके पूर्वजों तक कैसे पहुंच सकता है?’’ गुरू नानक ने उनसे पूछा।

लोगों को अपनी गलती का अहसास हो गया और वे गुरू नानक के चरणों में गिरकर उनसे प्रार्थना करने लगे कि उन्हें सही मार्ग दिखलाइये, जिससे उन्हें परमात्मा की प्राप्ति हो सके।

‘एक पिता एकस के हम बारिक’ नामक उनका सिद्धांत समाज में ऊंच-नीच और अमीर-गरीब के भेद को मिटाता है। गुरू नानक छोटे-बड़े का भेद मिटाना चाहते थे। उन्होंने निम्न कुल के समझे जाने वाले लोगों को सदैव उच्च स्थान दिलाने के लिए प्रयास किया।

एक बार भागो मलिक नामक एक अमीर ने गुरू नानक को अपने घर पर भोजन के लिए निमंत्रण दिया लेकिन गुरू जी जानते थे कि ये लोग गरीबों पर बहुत अत्याचार करते हैं, इसीलिए उन्होंने भागो का निमंत्रण स्वीकार नहीं किया और एक मजदूर के निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भागो ने इसे अपना अपमान समझा और उसने गुरू नानक को खूब खरी-खोटी सुनाई तथा अपमानजनक शब्द कहे लेकिन नानक ने इसका बुरा न मानते हुए उसे कहा कि तेरी कमाई पाप की कमाई है जबकि इस मजदूर की कमाई वास्तव में मेहनत की कमाई है।

यह सुनते ही भागो भड़क उठा और गुस्से में भरकर कहने लगा, ‘‘वास्तव में तुम अव्वल दर्जे के पाखंडी हो और नीच कुल के हो, तभी तो नीच कुल वालों का ही निमंत्रण स्वीकार करते हो।’’

‘‘भागो, मैं वह भोजन कदापि ग्रहण नहीं कर सकता, जो गरीबों का खून चूसकर तैयार किया गया हो।’’

‘‘मेरे स्वादिष्ट व्यंजनों से तुम्हें खून निकलता दिखाई देता है और उस मजदूर की बासी रोटियों से ...?’’ भागो ने फुफकारते हुए पूछा।

‘‘दूध। और अगर तुम्हें विश्वास न हो तो स्वयं आजमाकर देख लो।’’ नानक ने कहा।

घमंड व क्रोध से सराबोर भागो ने अपने घर से स्वादिष्ट व्यंजन मंगवाए और नानक ने उस मजदूर के घर से बासी रोटी। तब नानक ने एक हाथ में भागो के स्वादिष्ट व्यंजन लिए और दूसरे में मजदूर के घर की बासी रोटी और दोनों हाथों को एक साथ दबाया। यह नजारा देख रहे लोगों के दिलों की धड़कन बढ़ गई, जब उन्होंने देखा कि मजदूर की बासी रोटी में से दूध की धार निकल रही है जबकि भागो के स्वादिष्ट व्यंजनों में से खून की धार। यह देख भागो का अहंकार चूर-चूर हो गया और वह उसी क्षण गुरू नानक के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा।

वास्तव में नानक सदैव मानवता के लिए जीए और जीवन पर्यन्त शोषितों व पीड़ितों के लिए संघर्षरत रहे। उनकी वाणी को लोगों ने परमात्मा की वाणी माना और इसीलिए उनकी यही वाणी उनके उपदेश एवं शिक्षाएं बन गई। ये उपदेश किसी व्यक्ति विशेष, समाज, सम्प्रदाय अथवा राष्ट्र के लिए ही नहीं बल्कि चराचर जगत एवं समस्त मानव जाति के लिए उपयोगी हैं। (संवाद)