प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बेहद खर्चीले और बहुप्रचारित देशव्यापी स्वच्छता अभियान चला रखा है, उसमें भी इस औद्योगिक जहरीले कचरे और प्रदूषण से मुक्ति का महत्वपूर्ण पहलू शामिल नहीं है। अलबत्ता मोदी ने पिछले दिनों मध्य प्रदेश में अपनी चुनावी सभाओं में कांग्रेस पर गरजते-बरसते हुए जरूर भोपाल गैस त्रासदी को भी याद किया था और यूनियन कार्बाइड कंपनी के भारत स्थित इकाई के तत्कालीन अध्यक्ष वॉरेन एंडरसन के भारत से भाग निकलने के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया था, लेकिन उस त्रासदी के बाद जो त्रासदी आज तक जारी है, उसका कोई जिक्र उनके भाषण में नहीं था।

बहरहाल तात्कालिक तौर पर लगभग दो हजार और उसके बाद से लेकर अब तक कई हजार लोगों की अकाल मृत्यु की जिम्मेदार विश्व की यह सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी आज करीब साढे तीन दशक बाद भी औद्योगिक विकास के रास्ते पर चल रही दुनिया के सामने एक सवाल बनकर खडी हुई है। इंसान को तमाम तरह की सुख-सुविधाओं के साजो-सामान देने वाले सतर्कताविहीन या कि गैरजिम्मेदाराना विकास का यह रास्ता कितना मारक हो सकता है, इसकी मिसाल भोपाल में 34 बरस पहले भी देखने को मिली थी और अब भी देखी जा रही है। गैस रिसाव से वातावरण और आसपास के प्राकृतिक संसाधनों पर जो बुरा असर पड़ा, उसे दूर करना भी संभव नही हो सका। नतीजतन, भोपाल के काफी बडे इलाके के लोग आज तक उस त्रासदी के प्रभावों को झेल रहे हैं। जिस समय देश औद्योगिक विकास के जरिए समृद्ध होने के सपने देख रहा है, तब उन लोगों की पीडा भी अवश्य याद रखी जानी चाहिए। सिर्फ उनसे हमदर्दी जताने के लिए नहीं, बल्कि भविष्य में ऐसी त्रासदियों से बचने के लिए भी यह जरुरी है।

इस त्रासदी के 34 साल बीत जाने के बावजूद प्रशासन अभी तक त्रासदी में मारे गए लोगों से जुडे आंकडे उपलब्ध नहीं करा सका है। गैर सरकारी संगठन जहां इस गैस कांड से अब तक 25 हजार से ज्यादा लोगों के मारे जाने का दावा करते है, वहीं राज्य सरकार के आंकडों के मुताबिक इस हादसे में 5295 लोग मारे गए और साढे पांच लाख लोग जहरीली गैस के असर से विभिन्न बीमारियों के शिकार हुए। मगर हकीकत में यह संख्या कहीं ज्यादा है, क्योंकि 1997 के बाद सरकार ने गैस पीडितों के बारे में पता लगाना बंद कर दिया। यूनियन कारबाइड कारखाने के परिसर में रखे गए 350 मीटिक टन जहरीले रासायनिक कचरे वजह से भी हर साल बढते रोगियों के आंकडे नहीं जुटाए जा रहे हैं।

बीसवीं सदी की इस सबसे बडी औद्योगिक त्रासदी में हुई बेहिसाब जनहानि के बाद बडा मुद्दा जिम्मेदारी और जवाबदेही का सामने आया। अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कारबाइड की भारत स्थित इकाई का तत्कालीन अध्यक्ष वॉरेन एंडरसन जो उस समय बचकर हमारे राजनीतिक नेतृत्व की मेहरबानी से अमेरिका भाग गया था, उसकी तो कुछ साल पहले अमेरिका में मौत हो गई। वह अपनी कंपनी की आपराधिक लापरवाहियों का नतीजा भुगते बिना ही दुनिया से चला गया। लेकिन पीडितों को उचित मुआवजा दिलाने का सवाल भी लटका हुआ है। 1989 में भारत सरकार ने 47 करोड डॉलर मुआवजे के लिए कारबाइड के साथ अदालत के बाहर समझौता कर लिया था। लेकिन जिस पैमाने की त्रासदी भोपाल ने देखी, उसकी तुलना में यह राशि नगण्य ही थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर सवाल उठाए। लेकिन अपने देश में उद्योगों को उत्तरदायी बनाने की अपर्याप्त वैधानिक व्यवस्था और सरकारों की लापरवाही के कारण पीडितों को इंसाफ नहीं मिला तो नहीं ही मिला।

जहां तक यूनियन कारबाइड कारखाने के परिसर में रखे 350 टन जहरीले रासायनिक कचरे का सवाल है, उसका निपटान सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अन्यान्य कारणों से नहीं हो सका है और निकट भविष्य में भी होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। कायदे से तो इस कचरे को ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी यूनियन कारबाइड कारखाने के प्रबंधन की थी, मगर जब सरकार खुद उसके बचाव में खडी हो गई तो उससे वाजिब सख्ती की उम्मीद कैसे की जा सकती थी! सरकार ने इस कंपनी के अमेरिकी प्रबंधन से अदालत के बाहर समझौता कर लिया था और रासायनिक मलबे को कारखाना परिसर में ही या तो जमीन के नीचे दबा दिया गया या फिर खुला छोड दिया गया। तब से उस कचरे के निपटान की कोई पहल नही की गई। वर्ष 2004 में मध्यप्रदेश हाई कोर्ट में जहरीली गैस कांड संघर्ष मोर्चा की ओर से दायर याचिका मे गैस प्रभावित बस्तियों में पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे इस रासायनिक कचरे को नष्ट करने के आदेश देने की मांग की गई थी, जिस पर हाई कोर्ट ने केंद्र एवं राज्य सरकार को निर्देश दिए थे कि इस जहरीले कचरे को मध्य प्रदेश के धार जिले के पीथमपुर में इन्सीनेटर में नष्ट कर दिया जाए। लेकिन इस निर्देश का इसलिए पालन नहीं किया जा सका क्योंकि अनेक स्वयंसेवी संगठनों ने यह कहकर इसका विरोध किया था कि पीथमपुर में इसे जलाने से वहां के पर्यावरण के साथ ही वहां रह रहे लोगों को नुकसान होगा। (संवाद)