जो आरक्षण के भीतर आरक्षण चाहते हैं, उनकी जाति चिन्ता उनकी समाज चिंता के स्तर का परदाफाश करती है। पुराने द्विज संस्कारों की भुतहा नकल करते हुए पिछड़ी जातियों के ये तथाकथित नेता आम तौर पर अपनी बहू-बेटियों को सार्वजनिक जीवन में उतरने से रोकते हैं। लेकिन जब स्त्री मात्र के लिए विधायिका की कुछ जगहें स्थायी रूप से खाली कराने का मौका आता है, तब ये चौंक कर जाग उठते हैं और अपना फर्रा पेश कर देते हैं कि जब तक हमारे समुदाय की स्त्रियों को उनका हिस्सा नहीं दिया जाता, तब तक हम यह कानून नहीं बनने देंगे। इन शूर-वीरों में यह कहने की हिम्मत नहीं है कि महिलाओं को तमाम तरह की नौकरियों और पदों में एक-तिहाई या उससे ज्यादा हिस्सा दो, ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और सामाजिक रूप से सम्मानित महसूस कर सकें।
यह हिम्मत तो द्विजों में भी नहीं हैं, क्योंकि उनका एक बड़ा हिस्सा वास्तव में स्त्री-विरोधी है और नहीं चाहता कि स्त्रियों को आगे लाने के लिए कुछ दिनों के लिए खुद पीछे बैठा जाए। चूंकि संसद और विधान सभाओं में कुल सीटों की संख्या 543 और 4,109 है, इसलिए अगर 181 और 1,167 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाती हैं, तो पुरुष वर्ग का, वास्तविक जीवन में, कोई नुकसान होनेवाला नहीं है। पुरुषों की दरियादिली, जो अन्य मामलों में कम ही दिखाई पड़ती है, इस खास मामले में कबड्डी-कबड्डी का ध्वनि-घोष कर रही है, तो यह बहुत रहस्यमय नहीं हैं। वे बहुत कम कीमत चुका कर दानवीर का तगमा खरीदना चाहते हैं। असल बेचैनी सामान्य पुरुष सांसदों और विधायकों में है, लेकिन वे कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि उनके आका किसी भी कीमत पर लोक सभा का अगला चुनाव जीतना चाहते हैं। इनके लिए चुनावी जीत देश और उसके भविष्य से ज्यादा महत्वपूर्ण है। स्त्रियों के शुभैषी शायद यह उम्मीद कर रहे हैं कि संसदीय जीवन में स्त्रियों के इतनी बड़ी संख्या में उतरने से राजनीति का चरित्र ही बदल जाएगा। मेरी भविष्यवाणी यह है कि राजनीति का चरित्र बदले या न बदले, स्त्रियों का चरित्र जरूर बदल जाएगा। वे पुरुष मुट्ठियों में बंधे चुनाव टिकट के लिए जन सेवा के बल पर नहीं, बल्कि अपने स्त्रीत्व के बल पर वीभत्स और दयनीय प्रतिद्वंद्विता करेंगी, जैसे पुरुषों को पैसे, बाहुबल और शक्ति पीठों से सामीप्य के आधार पर प्रतिद्वंद्विता करते हुए देखा जाता है।
यह सारा माया लोक राजीव गांधी का खड़ा किया हुआ है जिसने शाह बानो नामक एक बेसहारा और बूढ़ी मुसलमान औरत से उसका मानवीय और संवैधानिक हक छीनने के के लिए देश का कानून ही बदल डाला था। पंचायतों और नगर निकायों में स्त्रियों के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण दे कर राजीव ने भारत के इतिहास में अपने दस्तखत जोड़ दिए हैं। पर यह कठोर सत्य बहुत आसानी और बेदर्दी से भुला दिया जाता है कि राजीव गांधी का लक्ष्य न तो पंचायतों को गांव की और न नहरपालिकाओं को शहर की संसद के रूप में विकसित करना था। तब भी यह सच था और आज भी यही सच है कि स्थानीय निकाय केंद्र और राज्य सरकारों की विभिन्न योजनाओ को लागू करने की प्रशासनिक इकाइयां मात्र हैं और निर्वाचित सरपंच को सरकार द्वारा नियुक्त खंड विकास अधिकारी के सामने भीगी बिल्ली बन कर रहना पड़ता है। स्त्रियों के नए हिमायती - कांग्रेस, भाजपा, वामपंथी, सभी - पंचायतों और नगरपालिकों पर से सरकारी अंकुश हटाने के लिए अभी भी राजी नहीं हैं। अपनी-अपनी पार्टियों में स्त्रियों को अधिक से अधिक जगह और सम्मान देने की बात तक उनके दिलों में पैदा नहीं होती। फिर भी वे महिला आरक्षण विधेयक के शैदाई बने हुए हैं, ताकि कोई एक दल अपने को महिला आरक्षण का एकमात्र पैरवीकार साबित कर वोटों का मैदान न चर जाए। पढ़ने-लिखनेवाली महिलाएं भी खुश हैं कि लोक सभा की अध्यक्षता का काम एक महिला को सौप दिया गया, तब जा कर संसद में महिलाओं के लिए अलग से एक टॉयलेट बन सका। अपनी बिरादरी को कानून के बल पर 33 प्रतिशत तक ले जाने की ख्वाहिश रखनेवाली महिला सांसद क्या अंधी हैं कि इसके पहले इस असाधारण स्त्री-विरोधी चूक पर उनकी नजर तक नहीं गई?
सरपंच या नगरपालिका अध्यक्ष का काम प्रशासनिक जिम्मेदारी का है। सरकार जैसी शक्ति न होते हुए भी बेचारों को, जिनके अधीन स्थानीय पुलिस तक नहीं होती, तमाम तरह के सरकारी काम निपटाने पड़ते हैं। इस व्यवस्था का सही विस्तार यह होता कि प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर — चपरासी से ले कर मुख्य सचिव तक — स्त्रियों को 33 या 50 प्रतिशत तक आरक्षण दे दिया जाता। इससे आम महिलाओं का ज्यादा भला और सशक्तीकरण भी होता। वर्तमान विधेयक स्त्रियों को पंद्रह सौ से भी कम सीटों के लिए आमंत्रित करता है। इसलिए महिला सशक्तीकरण की दृष्टि से भी यह विधेयक घाटे का सौदा है। दक्षिण एशिया में चुनिंदा सीटों पर महिलाओं को बैठते हुए हम पहले भी देख चुके हैं और आज भी देख रहे हैं। कौन दावा कर सकता है कि इससे राजनीति के चरित्र में कोई उल्लेखनीय फर्क आया है? यह सही है कि परिमाण में वृद्धि होने से गुण भी बदल जाता है, पर भारत की राजनीति में यह नहीं होने जा रहा है। पुरुषों की तरह महिलाएं भी अपने समय और संस्कृति की उपज होती हैं। विधायिकाओं में पिछड़ी जातियों और दलितों के बेशी संख्या में आने से बेईमानी और सत्तावाद बढ़ा है या कम हुआ है?
अगर आप चाहते हैं कि पैसा, पद और पॉवर के इस दलदल में नाक तक धंसने का अधिकार स्त्रियों को भी मिलना चाहिए, तो आप ऐसे समानतावादी हैं जो जन्नत और दोजख के फर्क को मिटा देना चाहता है। आपका एतराज यह है कि बदनीयती और बेईमानी पर किसी एक जेंडर का एकाधिकार क्यों हो? अगर लोक सभा का चुनाव लड़ने में दस-पंद्रह करोड़ और विधान सभा का चुनाव लड़ने पर दो-तीन करोड़ का न्यूनतम खर्च आता है, तो महिलाएं भी इसका जुगाड़ कर लेंगी। बेशक अपने पिता या पति की कमाई पर उनका अधिकार भरण-पोषण से ज्यादा न हो और अपनी कमाई पर वे सिर्फ अपना अधिकार रखना चाहें तो यह दांपत्य कलह का कारण बन जाता हो, लेकिन चूंकि सांसद और विधायक का पद हर तरह से लाभ का पद है, इसलिए महिला उम्मीदवारों को अपनी फाइनेंसिंग कराने में दिक्कत पेश नहीं आएगी। चुन लिए जाने के बाद उन्हें यह कर्ज उतारना भी होगा, जो जनता की कमाई हड़पने के पाप में हिस्सेदारी के बगैर मुमकिन नहीं है। अंतत: सचाई यही ठहरती है कि इस विधेयक के माध्यम से लोभी और छलात्कारी पुरुष महिलाओं को अपनी भ्रष्ट बिरादरी में शामिल करने पर आमादा हैं। यह बहुत खुशी की बात होगी अगर महिलाएं इस चक्रव्यूह को भेद सकें। लेकिन यह 33 प्रतिशत और 67 प्रतिशत अर्थात दिए और तूफान का मुकाबला होगा। फिर संसद के बाहर तो पुरुष वर्चस्व को बने ही रहना है।
मूल आपत्ति लेकिन दूसरी है। इसका संबंध राजनीति की परिभाषा से है। राजनीति क्या है? क्या यह पैसा, पद और पॉवर हासिल करने में प्रतिद्वंद्विता का खेल है? क्या राज्य की शक्तियां मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को अधिक से अधिक लूट का अवसर देने के लिए हैं? जो भी व्यक्ति ऐसा सोच कर राजनीति में आता है या राजनीति में बना हुआ है, वह राजनीति, संविधान और जनता के साथ खुल्लमखुल्ला बलात्कार करता है। जब कोई व्यक्ति राजनीति में आरक्षण की मांग करता है, तो यह मांग बलात्कारियों के इस नापाक क्लब में शामिल होने की मांग बन जाती है। कोई कह सकता है कि बेईमानी कहां नहीं है — धर्म में नहीं है, संस्कृति में नहीं है, शिक्षा में नहीं है या साहित्य में नहीं है? इसका त्वरित जवाब यह है कि भेड़ की खाल में कुछ भेड़िए भी टहल रहे हैं, इसलिए धर्म, संस्कृति, शिक्षा और साहित्य की परिभाषा तो नहीं बदल दी जाएगी? इसी तरह, अगर आज राजनीति अपने निम्नतम स्तर पर दिखाई पड़ रही है और राजनेता, एक वर्ग के रूप में, श्रद्धा और विश्वास के नहीं, बल्कि नफरत के पात्र हो गए हैं, तो इससे प्रभावित हो कर राजनीति की परिभाषा कैसे बदल दी जा सकती है? सांसद और विधायक चुने जाने पर संविधान की आत्मा और उसके शब्दों के अनुसार काम करने की जो शपथ ली जाती है, उस पर काली स्याही कैसे पोती जा सकती है?
राजनीति की एकमात्र वैध परिभाषा यह है कि यह जनता की सेवा करने का एक पवित्र माध्यम है। तकनीकी तौर पर तो हमारे मंत्री, सांसद, विधायक आदि भी जन सेवक (पब्लिक सरवेंट) कहलाते हैं और इसलिए उन्हें कुछ विशिष्ट अधिकार भी दिए गए हैं, लेकिन इनमें से प्रायः सभी पब्लिक को ही अपना सरवेंट समझते हैं। यह राजनीति का खलनायकीकरण है। धीरोदात्त नायक तो वही राजनेता कहलाएगा जिसे जनता की सेवा करने में आनंद आता है और जो अपने लिए कम से कम की कामना करता है। यही वह बिंदु है जहां आ कर राजनीतिक और नैतिक का द्वंद्व मिट जाता है। इसी अर्थ में हर नैतिक कर्म एक राजनीतिक कर्म है और हर राजनीतिक कर्म एक नैतिक कर्म।
इसीलिए यह प्रश्न भी वैध है कि नैतिकता में आरक्षण कैसा? अच्छा बनने के लिए 33 या 50 प्रतिशत आरक्षण की कामना क्यों ? सेवा के क्षेत्र में विशेषाधिकार के लिए जगह कहां है? जो स्त्री या पुरुष जन सेवा करना चाहता है, उसकी राह कौन रोक सकता है? जो संसद या विधान सभा में पहुंच कर जनता की सेवा करना चाहता है, उसके लिए दरवाजा पहले से ही खुला हुआ है — लोगों की भलाई करने में अपने आपको झोंक दीजिए, लोग आपको अपने कंधों पर बैठा कर संसद और विधान सभा के दरवाजे तक ले जाएंगे। अगर संसद या विधान सभा में सीट आरक्षित कर दिए जाने के बाद ही कोई जन सेवा के मैदान में उतरना चाहता है, तो उसकी नीयत पर शक करने का हमें पूरा हक है। महिला आरक्षण विधेयक राजनीति की पतित परिभाषा को मान्यता देता है और स्त्रियों को आमंत्रित करता है कि हम पुरुष जो कर रहे हैं, आओ,तुम भी वही करो। अन्यथा यह विधेयक पेश करने के पहले सरकार चुनाव कानून में ऐसे संशोधन जरूर करती, जिससे गरीब से गरीब आदमी भी चुनाव लड़ना चाहे तो लड़ सके। जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन सिर्फ 33 प्रतिशत नहीं, 100 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए खुल जाएंगी।
महिला आरक्षण के सख्त विरोध में
राजकिशोर - 2010-03-10 09:42
महिला आरक्षण विधेयक अगर पास हो गया, तो कोई प्रलय नहीं आ जाएगा। लेकिन मीडिया में और खासकर महिला जगत में इसे ले कर उत्सव का जो माहौल है, वह लगभग अश्लील जान पड़ता है। इनके मूड से ऐसा लगता है जैसे जन्नत का एक-तिहाई हिस्सा महिलाओं को सौंप दिया जानेवाला है और कुछ गंवार लोग इसके विरोध में लट्ठ ले कर घूम रहे हैं।