यह भी गौरतलब है कि किसी भी सांसद, यहां तक कि पीडीपी के सांसद ने भी आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट को वापस लेने या उसे ढीला करने की बात नहीं की। कश्मीर मानवाधिकारों की बहाली के लिए जरूरी है कि वहां इस कानून के उपयोग पर पुनर्विचार किया जाए।
विपक्ष ने यह जरूर दिखाया कि उसे राज्य के लोगों के अलगाव और दर्द का अहसास है। राजद सांसद प्रो मनोज झा का यह सवाल वाकई असरदार था कि भाजपा कश्मीर के अवाम को चाहती है या केवल वहां की जमीन को।
भाजपा ने वित्त मंत्री अरूण जेटली ने ऐसा भाषण दिया कि यह भ्रम हो जाता है कि घाटी में लोकतंत्र के साथ जो खिलवाड़ हुआ है, वह उसके खिलाफ है। उन्होंने नई दिल्ली की ओर से लादी गई कठपुतली सरकारों की आलोचना की और इसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि शेख अब्दुल्ला के सबसे बड़े विरोधी आरएसएस और जनसंघ ही थे। कश्मीर की स्वायत्तता के सबसे बड़े विरोधी भी वही थे। आज भी कश्मीर में स्वायत्तता की गारंटी देने वाली धारा 370 की समाप्ति भाजपा का प्रमुख एजेंडा है।
गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने इस आरएसएस के इस सिद्धांत को दोहरा ही दिया कि भाजपा तुष्टिकरण की नीति के खिलाफ है। मोदी सरकार के रवैये से यही पता चलता है कि वह मान चल रही है कि कश्मीर की समस्या के हल का कोई रास्ता तुरंत निकलने वाला नहीं है। अब चुनावों तक हुर्रियत, राजनीतिक दल और पाकिस्तान- से कोई बातचीत की उम्मीद नहीं है। भाजपा 2019 के लोक सभा चुनावों में कश्मीर को जरूर एक चुनावी मुद्दा बनाएगी।
इसमें कोई शक नहीं है कि बातचीत और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के जरिए ही घाटी में आतंकवाद में कमी आ सकती है। गृह मंत्री ने राज्य में रोजगार पैदा करने के उपाय गिनाए, इनमें ज्यादातर सुरक्षा बलों के नए बटालियन बनाने और पुलिस में भर्ती की ही चर्चा है। यह राज्य हिंसा-प्रतिहिंसा के चक्र में ही धकेलेगा। पिछले साढे चार सालों में भाजपा ने अपनी नीतियांे से कश्मीर में शांति का लंबे समय का नुकसान कर दिया है। इसके साथ आने से पीडीपी की विश्वसनीयता चली गई और राज्य ने एक ऐसी लोकतंात्रिक शक्ति की उपस्थिति खो दी है जो अलगाववादियों और उदारपंथियों के बीच संवाद करा सकती थी।
कश्मीर की समस्या हल करने में नई दिल्ली की नाकामयाबी नई नहीं है। इसके लिए कांग्रेस कम जिम्मेदार नहीं है। सच कहिए तो इस मामले में पूरा राष्ट्र ही विफल रहा। शेख की गिरफ्तारी के बाद से राज्य में नई दिल्ली ऐसी सरकारें ही बिठाती रही है जो भ्रष्ट थीं और राज्य के लोगों का भरोसा जीतने में अक्षम। नब्बे के दशक में कश्मीर उग्रवाद की गिरफ्त में आ गया और उसके बाद से सारा फोकस हिंसा को काबू करने पर है। लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि हिंसा लक्षण है, रोग नहीं। कश्मीरी जनता में असंतोष और नई दिल्ली के न्याय में उसका भरोसा खत्म हो जाना असली बीमारी हैं।
राज्य में वे ही सवाल आज भी मौजूद है जो शेख की गिरफ्तारी के समय थे। ये सवाल हैं -राज्य की राजनीतिक स्थिति क्या हो और वह कितनी स्वायत्त हो। क्या जिस भारत को कश्मीरियांे ने चुना था वह आज वजूद में है? क्या देश के बाकी हिस्सों में सांप्रदायिक नफरत का जो माहौल है वह कश्मीरियों को परेशान नहीं करता है ? ऐसे माहौल में जहां हर मुसलमान और हर कश्मीरी शक की निगाह से देखा जाता हो, वहां उनके मुख्यधारा में शामिल होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
भाजपा कश्मीर की कहानी में जिन्हें खलनायक बता रही है, वे असल में नायक थे । उस नायक ने ही मजहब के आधार पर हुए बंटवारे के समय एक मुस्लिम बहुल और देश की मुख्यधारा से अलग रहने वाले प्रदेश को भारत का हिस्सा बनाने का अजूबा कर दिखाया। वह नायक थे शेख अब्दुल्ला। कांगे्रस भी इस बात को जोर लगा कर नहीं कहती है।
यहां पर यह याद दिलाना जरूरी होगा कि सन् 1930 में जब हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग आजादी के आंदोलन से दूर भाग रहे थे और अंग्रेजों से अपने रिश्ते जोड़ रहे थे, शेख अब्दुल्ला 1932 में बने मुस्लिम कांफ्रेंस को सेकुलर और प्रगतिशील राजनीति की ओर ले जाने में लगे थे। उन्होंने मुस्लिम कांफ्रेंस का नाम 1939 में नेशनल कांफ्रेस कर दिया और इसमें गैर-मुसलमानों को पद सौंपे। वह मोहम्मद अली जिन्ना के कट्टर विरोधी थे और उन्होंने लीग को घाटी में कभी पैर जमाने नहीं दिया। इसका कारण यही था कि नेशनल कांफ्रंेस पर जवाहर लाल नेहरू तथा गांधी जी का काफी असर था।
नेशनल कांफ्रेंस के भूमि सुधार के फैसलों के करण महाराजा और हिंदू जमींदार शेख के बुरी तरह खिलाफ थे। नेहरू जी दबाव में आ गए और कश्मीर को किए वायदे निभाने के बदले नौकरशाही की सलाह पर अमल किया और उन्होंने शेख को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।
कश्मीर ने पाकिस्तान के बदले भारत को इसलिए चुना था कि यह एक सेकुलर राष्ट्र था और उसे भरोसा था कि ं कश्मीरी अस्मिता की रक्षा इस प्रगतिशील राष्ट्र का हिस्सा बनने से ही हो सकती है। नई दिल्ली ने उनके इस भरोसे को तोड़ दिया। कश्मीर की अस्मिता को स्वीकारे बगैर इस समस्या का हल नहीं हो सकता और इस समस्या का हल किए बगैर हम भारत-पाकिस्तान की सीमा पर अमन कायम नहीं कर सकते। (संवाद)
कश्मीर पर नई दिल्ली का वही पुराना रवैया
कश्मीर की अस्मिता को स्वीकारे बगैर इस समस्या का हल नहीं हो सकता
अनिल सिन्हा - 2019-01-07 11:07
जम्मू और कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लग गया है और उसे संसदीय मंजूरी भी मिल गई है। मंजूरी के लिए राज्यसभा में हुई बहस से फिर एक बार साबित हुआ कि देश का नेतृत्व निहायत असंवेदनशील लोगों के हाथ में है। इससे यही साबित हुआ कि नई दिल्ली सैनिक तंत्र के जरिए ही घाटी पर शासन करना चाहती है। विपक्ष ने भी बेचारगी ही दिखाई है। सीपीएम के सांसद रंगराजन को छोड़ कर किसी ने वहां के नागरिकोें की हत्या की जांच और इसकी जिम्मेदारी तय करने की मांग नहीं की और सीपीआई नेता डी राजा को छोड़ कर किसी ने पाकिस्तान और भारत की जनता के बीच अच्छे संबंध बनाने की बात नहीं कही।