वीपी सिंह ने किन परिस्थितियों मंे मंडल आयोग की सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने वाली सिफारिश के अमल की घोषणा की थी, यह अब ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं रह गया है। बल्कि ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसने पूरे समाज को आलोड़ित कर दिया था। उसका सबसे बड़ा असर यह पड़ा कि पहले से आरक्षण पा रहे अनुसूचित जाति-जनजाति के लोग और मंडल आयोग के तहत आने वाले अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग एक मंच पर आ गए थे।
चूंकि आरक्षण का खूब विरोध हो रहा था और यह विरोध काफी हिंसक और कहीं कहीं आत्मघाती भी था, इसलिए आरक्षण पाने वाले समुदायों के बीच परस्पर अपनापन का बोध हुआ। और इसी बोध से एक नई राजनीति निकली, जिसे बहुजन राजनीति कहा जाता है। इस राजनीति में बहुत संभावनाएं थीं, लेकिन इसका नेतृत्व जातिवादी नेताओं के हाथ में था। उनके जातिवाद का पहला असर तो यह हुआ कि खुद विश्वनाथ प्रताप सिंह उस बहुजनवादी स्कीम से बाहर हो गए, क्योंकि वे आरक्षित तबके से नहीं थे। जातिवादी ओबीसी और दलित नेताओं ने न तो उनका नेतृत्व स्वीकार किया और न ही वह सम्मान दिया, जो उन्हें एक नई राजनीति शुरू करने के लिए मिलना चाहिए था।
पहली गद्दारी मुलायम सिंह यादव ने की। मुलायम की सरकार बिना भाजपा या कांग्रेस के समर्थन के उत्तर प्रदेश में बनी रह सकती थी, लेकिन वीपी सिंह के जनता दल से अलग होकर न केवल मुलायम ने वीपी सिंह को कमजोर किया, बल्कि खुद कांग्रेस के समर्थन पर वह आश्रित हो गए। वीपी सिंह से अलग होकर चुनाव लड़ने वाले मुलायम की अपनी राजनीति समाप्त होती दिखाई दी, तो उन्होंने 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांशीराम और मायावती की बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन कर लिया।
मुलायम यादव की इस नाजायज राजनीति से कांशीराम और मायावती जैसे नेता पैदा हुए। ये दोनों पहले से ही बहुजन समाज पार्टी बनाकर चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन इन्हें सफलता नहीं मिल रही थी। उत्तर प्रदेश के 1989 और 1991 के विधानसभा चुनावों में बसपा को 11 -12 सीटें मिली थीं। एक बार मायावती सांसद भी बनी थीं, लेकिन 1991 में अपना चुनाव हार गई थीं।
कांशीराम ने 1980 के दशक में ही यह महसूस कर लिया था कि यदि दलित और ओबीसी का मोर्चा बन जाय, तो यह मोर्चा सत्ता में आ सकता है। लेकिन उस समय समस्या यह थी कि देश के स्तर पर दलितों को तो आरक्षण मिला हुआ था, लेकिन ओबीसी के आरक्षण के लिए बने मंडल आयोग की फाइल केन्द्र सरकार ने दबा रखी थी। उसके लिए कर्पूरी ठाकुर, चैधरी ब्रह्म प्रकाश, चन्द्रजीत यादव, महेन्द्र कुमार सैनी, रामअवधेश सिंह और मधु लिमये जैसे नेता लगातार आंदोलन कर रहे थे। अपनी सीमित शक्ति के साथ कांशीराम भी जब तब मंडल आयोग लागू करो कि नारेबाजी करवा देते थे।
कांशीराम की बहुजन राजनीति के लिए ओबीसी को आरक्षण मिलना जरूरी था। जनता दल का चुनावी घोषणा पत्र मधुलिमये जैसे विद्वान नेता लिखा करते थे और उन्होंने 1989 चुनाव के पहले जनता दल के घोषणा पत्र में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का वायदा डाल रखा था। उस वायदे का दबाव वीपी सिंह सरकार पर था। वीपी सरकार द्वारा बुलाए गए संसद के पहले ही संयुक्त सत्र में जिसे राष्ट्रपति संबोधित करते हैं, लोकदल केे राज्यसभा सांसद रामअवधेश सिंह और बसपा की लोकसभा सांसद मायावती में हंगामा खड़ा कर दिया। उन दोनों ने मंडल आयोग लागू करो के नारे लगाए और जनता दल के कर्पूरी ठाकुर और मुलायम के समर्थकों ने भी उनका साथ दिया।
बहरहाल, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की घोषणा हुई और इसके साथ ही दलित और ओबीसी का एक साझा मंच बहुजन नाम से तैयार हो गया। राजनीति पर इसका असर पड़ना लाजिमी था, लेकिन बिकाऊ नेतृत्व के कारण इससे कथित बहुजनों का नुकसान ही हो गया। बहुजन आंदोलन के नेता नैतिक रूप से कमजोर थे। वे लोभी थे और उनमें प्रतिबद्घता भी नहीं थी। बहुजन का नारा लगाकर सत्ता में आना और सत्ता की लूटपाट करना ही उनका उद्देश्य था। सत्ता की लूट में वे एक दूसरे से लड़ते और झगड़ते भी रहे और इस तरह कभी मिलते और कभी टूटते भी रहे।
मुलायम के वीपी द्वेष से पैदा हुए कांशीराम और मायावती ने सबसे पहले बहुजन आंदोलन से गद्दारी की। वे मुलायम के समर्थन से अपनी पार्टी के 67 विधायक जिताने में सफल हुए थे और उनके बूते उन्होंने भाजपा से समर्थन लेकर मुलायम का साथ ही छोड़ दिया। इस तरह उनकी बहुजन राजनीति उनके लालच का शिकार हो गई और उसके बाद समाज में जो कुछ होता रहा, वह तो बहुत ही शोचनीय है। विदेशी शक्तियां भारतीय जातिव्यवस्था में पैदा हो रहे विक्षोभ का लाभ उठाने लगी। बिकाऊ बहुजन बुद्धिजीवियों का एक वर्ग तैयार हो गया और सत्ता के लिए हुई कथित बहुजन एकता को साम्प्रदायिकता की ओर मोड़ दिया गया। सांपद्रायिकता का वह स्वर हिन्दू धर्म और पहचान का विरोधी था। समाज में एक नई बीमारी पैदा हो गई और इस बीमारी की प्रतिक्रिया ने हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा को सत्ता में लाने का काम कर दिया।
अब सवर्णों को भी आरक्षण मिल गया है। इसके कारण देश की 100 फीसदी जातियां आरक्षण के दायरे में आ गई हैं। दलित और ओबीसी जातियों के आरक्षण के दायरे में आने से वे एक मच पर आ गई थीं और अनारक्षित तबका उनके विरोधी के रूप में उनके अस्तित्व को पहचान दे रहा था। अब जब सारी जातियां आरक्षण के दायरे में आ गई हैं, तो फिर आरक्षण पाने वाली ओबीसी और दलित जातियों के लिए एक काॅमन पहचान की जरूरत ही नहीं रही, क्योंकि यह पहचान आरक्षण विरोधी जातियों के कारण ही थीं। लिहाजा अब बहुजन विमर्श का अंत हो रहा है। (संवाद)
अनारक्षितों को 10 फीसदी आरक्षण बहुजन राजनीति का अंत
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-01-11 12:11
मोदी सरकार द्वारा अनारक्षित समुदायों की कम आय वाले लोगों को आरक्षण देकर सामाजिक बदलाव को एक नई दिशा दे दी है। जाति आधारित भारतीय समाज पर इसका जबर्दस्त असर पड़ेगा और यह बदलाव सकारात्मक ही होगा। 1990 में वीपी सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की कुछ सिफारिशों के लागू किए जाने के बाद भी समाज पर जबर्दस्त असर पड़ा था और उस असर को आजतक महसूस किया जा सकता है।