इसीलिए माना जाता रहा है कि केन्द्र की सत्ता का रास्ता इसी राज्य से होकर निकलता है और यदि उत्तर प्रदेश में भाजपा का विजय रथ रोकने में सफलता मिल गई तो उसे सत्ता तक पहुंचने से रोकना सहज हो जाएगा। यही कारण है कि यहां किसी भी दल की बड़ी जीत को राष्ट्रीय राजनीति में गेमचेंजर के रूप में देखा जाता रहा है। यह वही राज्य है, जिसने अब तक देश को जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चै. चरण सिंह, राजीव गांधी, वी पी सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी सहित नौ प्रधानमंत्री दिए हैं।
पिछले लोकसभा चुनाव में सहयोगी दल सहित 73 सीटें जीतकर आसानी से केन्द्र में सरकार बनाने में सफल हुई और उसके बाद विधानसभा चुनावों में भी 312 सीटें जीतकर सत्तारूढ़ हुई भाजपा को तो इस बात का बखूबी अहसास होगा ही कि इस राज्य में जीत उसके लिए क्या मायने रखती है, यही कारण है कि सपा-बसपा गठबंधन के बाद से भाजपा खेमे में बेचैनी का माहौल है। यह अलग बात है कि पार्टी कार्यकताओं में जोश भरने के लिए सपा-बसपा गठबंधन को चुनावी ढ़कोसला बताकर खारिज करने की बातें कही जा रही हैं लेकिन हकीकत यही है कि उसे भी बखूबी मालूम है कि यह गठबंधन उसकी जीत की संभावनाओं पर भारी पड़ सकता है। यही कारण है कि भाजपा चुनावी मुकाबले को तिकोना या चैकोना बनाने की कोशिशों में जुट गई है और संभवतः इसीलिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल सिंह यादव को प्रोत्साहित कर वह अपनी गोटियां फिट करने की जुगत में लगी है।
सपा-बसपा द्वारा अपने गठबंधन में कांग्रेस के लिए मात्र दो सीटें छोड़ने की घोषणा के बाद भले ही कांग्रेस ने अकेले सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है किन्तु लोकसभा चुनाव के मद्देनजर यूपीए को एकजुट करने की उसकी मुहिम को इससे तगड़ा झटका लगा है। दोनों ही दलों ने अपने-अपने राजनीतिक हितों की गणनाएं करते हुए कांग्रेस से दूरी रखना ही मुनासिब समझा। फिलहाल सपा-बसपा गठबंधन के बाद देशभर में विपक्षी एकता का जो परिदृश्य उभरकर सामने आ रहा है, उसमें कांग्रेस के नेतृत्व के बजाय विभिन्न क्षेत्रीय दल अपने-अपने स्तर पर भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की मुहिम में जुटे नजर आते हैं और भाजपा से उनका सीधा मुकाबला होने की संभावना ज्यादा दिख रही हैं। ममता बनर्जी पहले से ही ‘फेडरल फ्रंट’ बनाने के लिए विभिन्न क्षेत्रीय दलों के सम्पर्क में हैं। चंद्रबाबू नायडू, के चंद्रशेखर राव इत्यादि कई क्षेत्रीय दलों के नेता भी अपनी-अपनी मुहिम चला रहे हैं। दरअसल मायावती हों या अखिलेश अथवा ममता या चंद्रबाबू अथवा शरद पवार, हर कोई खुद प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब संजोये हुए है। ऐसे में सपा-बसपा गठबंधन के बाद अगर लोकसभा चुनाव से पहले बिहार, कर्नाटक, जम्मू कश्मीर इत्यादि कुछ दूसरे राज्यों में भी सहयोगी दल अपना कद बड़ा करने के लिए कांग्रेस को हाशिये पर रखकर उसे ऐसे ही झटके देते दिखाई पड़ें तो आश्चर्य नहीं होगा।
बहरहाल, उ.प्र. में दो धुर विरोधी दलों सपा-बसपा के साथ मिल जाने और कांग्रेस के चुनाव में बगैर महागठबंधन के अकेले उतरने के चलते सियासी माहौल काफी दिलचस्प हो गया है। दरअसल दोनों क्षेत्रीय दलों के लिए इस सूबे में कांग्रेस का साथ इसलिए जरूरी नहीं था क्योंकि कांग्रेस की यहां कोई बहुत दमदार भूमिका नहीं मानी जा रही। वैसे भी 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा प्रमुख अखिलेश कांग्रेस के साथ गठजोड़ कर उसका खामियाजा भुगत चुके हैं। हालांकि अखिलेश-राहुल ने ‘यूपी को ये साथ पसंद है’ का नारा देते हुए कई रैलियां एक साथ की थी किन्तु जनता ने इस साथ को पसंद नहीं किया था। मायावती ने तो साफतौर पर कहा भी है कि सपा-बसपा दोनों का ही यह अनुभव रहा है कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से उनके वोट तो कांग्रेस को ट्रांसफर हो जाते हैं लेकिन कांग्रेस अपना वोट उन्हें ट्रांसफर नहीं करा पाती। वैसे भी ब्राह्मण, सवर्ण तथा अल्पसंख्यक समुदाय एक जमाने में कांग्रेस का परम्परागत वोटबैंक हुआ करता था किन्तु बीते वर्षों में उसका ब्राह्मण तथा सवर्ण वोटबैंक छिटककर भाजपा के पाले में चला गया जबकि अल्पसंख्यक सपा-बसपा पर भरोसा करने लगे हैं। दलित और पिछड़ा वर्ग तो पहले से ही सपा-बसपा के साथ है। ऐसे में कांग्रेस को साथ लेकर चलने का सपा-बसपा को कोई लाभ होता भी नहीं दिख रहा था।
अब अगर कांग्रेस राज्य में सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ती है तो इससे उसे कितना फायदा होगा और सपा-बसपा को कितना नुकसान पहुंचेगा, यह तो समय ही बताएगा किन्तु मुकाबला त्रिकोणीय या चतुर्कोणीय होने की स्थिति में भाजपा को अप्रत्यक्ष लाभ अवश्य मिल सकता है। हालांकि तीन राज्यों में जीत से उत्साहित कांग्रेस को उम्मीद है कि वह अकेले लड़कर उ.प्र. में बेहतर प्रदर्शन करेगी। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस महज 7 सीटें जीत सकी थी और उसकी इस शर्मनाक हार का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि पहले जहां वह 27 सालों में राज्य का विकास अवरूद्ध होने को लेकर जिस सपा पर तीखे प्रहार करती रही, चुनाव में उसी सपा के साथ गठजोड़ कर जनता के सामने गई और कांग्रेस के इस दोहरे चरित्र को जनता ने नकार दिया। वैसे सपा-बसपा की कांग्रेस से नाराजगी की एक वजह यह भी मानी जा रही है कि जो कांग्रेस हालिया विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा को पटखनी देने के लिए सभी क्षेत्रीय दलों से एकजुट होने का आव्हान कर रही थी, उसी कांग्रेस ने तीन राज्यों में जीत के बाद सहयोगी क्षेत्रीय दलों की मांगों का सम्मान नहीं किया। मध्य प्रदेश से सपा के एकमात्र विधायक को मंत्रिमंडल में शामिल न किया जाना भी सपा की नाराजगी का कारण माना जा रहा है।
जहां तक अवसरवादी जातिगत क्षेत्रीय राजनीति के लिए विख्यात दो क्षेत्रीय दलों सपा और बसपा के गठबंधन की बात है तो दोनों ही दलों ने भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस को भी अपने निशाने पर रखा है और इससे साफ पता चलता है कि इस गठबंधन का स्पष्ट उद्देश्य यही है कि चुनाव के पश्चात् केन्द्र में जो भी सरकार बने, उसके साथ सौदेबाजी के लिए तुरूप का पत्ता इनके पास रहे। वैसे इस गठबंधन की बिसात उसी दिन बिछ गई थी, जब एक-दूसरे की धुर-विरोधी बुआ-भतीजे की जोड़ी ने साथ मिलकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के गढ़ गोरखपुर तथा फूलपुर के उपचुनावों में भाजपा को जबरदस्त पटखनी दी थी। सियासी फायदे के लिए उसी जीत के बाद तमाम पुरानी कड़वी यादों को भुलाकर दोनों ने एक-दूसरे पर जुबानी हमले बंद करते हुए साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरने का निश्चय कर लिया था। स्मरण रहे कि जहां गोरखपुर तथा फूलपुर में बसपा ने सपा प्रत्याशी का समर्थन किया था और दोनों सीटें सपा जीत गई थी, वहीं कैराना उपचुनाव में सपा ने रालोद को समर्थन दिया था और उसका प्रत्याशी भी जीत गया था। इसी से प्रभावित होकर सपा-बसपा ने लोकसभा चुनाव के दृष्टिगत गठबंधन का ताना-बाना बुना और 25 साल बाद एक-दूसरे के साथ गठजोड़ कर चुनाव मैदान में उतरने का ऐलान कर दिया। इससे पहले दोनों दलों ने 1993 में मुलायम सिंह यादव तथा कांशीराम के नेतृत्व में गठबंधन कर चुनाव लड़ा था और सरकार बनाई थी, तब सपा को 109 और बसपा को 67 सीटें मिली थी किन्तु 2 जून 1995 को लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित गेस्ट हाउस में सपा कार्यकर्ताओं द्वारा मायावती के कमरे में तोड़फोड़ और मायावती के साथ कथित मारपीट के बाद यह गठबंधन टूट गया था।
बहरहाल, अगर 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनावों में दोनों दलों के वोट प्रतिशत को देखें तो सपा-बसपा के गठबंधन को हल्के में नहीं लिया जा सकता। 2017 में जहां भाजपा 41.35 फीसदी मतों के साथ 325 सीटें जीतने में सफल हुई थी, वहीं सपा 28.07 फीसदी मतों के साथ महज 54 सीटें और बसपा को 22.23 फीसदी मतों के साथ सिर्फ 19 सीटें मिली थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 42.63 फीसदी मतों के साथ 71 सीटें मिली थी जबकि सपा को 22.35 फीसदी मतों के साथ सिर्फ 5 सीटों पर संतोष करना पड़ा था और 19.77 फीसदी मत प्राप्त करने वाली बसपा का तो खाता तक नहीं खुला था। कांग्रेस को 7.53 फीसदी मतों के साथ सिर्फ दो सीटें मिली थी। पिछले चुनाव परिणामों पर भी नजर डालें तो 2004 के लोकसभा चुनाव में सपा को 35 और बसपा को 19 तथा 2009 में सपा को 22 और बसपा को 20 सीटें मिली थी। सपा-बसपा का कुल वोट प्रतिशत देखा जाए तो 2014 में उसे 42.12 फीसदी मत मिले जबकि 2017 में दोनों को कुल 50.30 फीसदी मत मिले थे। ऐसे में देखा जाए तो सपा-बसपा के गठजोड़ के बाद दोनों के वोट बैंक मिल जाने से उनका मत प्रतिशत बढ़ना स्वाभाविक है और उससे चुनाव परिणाम बड़े स्तर पर प्रभावित होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
दोनों दलों का राज्य में मजबूत जातीय आधार है। मध्य उत्तर प्रदेश में जहां सपा की मजबूत पकड़ मानी जाती है, वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा का मजबूत जनाधार है। 28 लोकसभा सीटें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हैं, जहां 2014 के चुनाव में सपा 3 सीटों पर जीती थी जबकि 13 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी और बसपा 9 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी। माना जा रहा है कि करीब 41 सीटों पर यह गठबंधन मजबूत स्थिति में है। ऐसे में स्पष्ट है कि कांग्रेस को दूर रखने के बावजूद गठबंधन की स्थिति बेहतर है और आम चुनाव में भाजपा को इससे कड़ा मुकाबला करने के लिए तैयार रहना होगा। हालांकि दोनों ही दलों पर उनके सत्ता में रहते अपराधियों को संरक्षण देने, भारी अनियमितताओं और विकास कार्यों की अनदेखी जैसे गंभीर आरोप लगते रहे हैं। सपा कुछ ही समय पहले बड़ी टूट की शिकार हुई है और बसपा के जातीय समीकरणों में कुछ छोटे दल सेंध लगा चुके हैं। दूसरी ओर भाजपा और कांग्रेस भी इस महासमर को जीतने के लिए अपनी सारी ताकत झोंकने के लिए तैयार हैं, इसलिए बुआ-बबुआ की जोड़ी के लिए गठजोड़ के बाद भी मुकाबले को जीतना इतना आसान नहीं होगा। बहरहाल, अब यह देखना दिलचस्प होगा कि उत्तर प्रदेश में आम चुनावों में ऊंट किस करवट बैठता है! (संवाद)
उत्तर प्रदेश में बुआ-बबुआ की जोड़ी
किस करवट बैठेगा ऊंट?
योगेश कुमार गोयल - 2019-01-15 16:42
लोकसभा को करीब 15 फीसदी सीटें देने वाले देश के बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में ‘बुआ-बबुआ’ का 38-38 सीटों पर गठबंधन हो जाने और देशभर में महागठबंधन बनाने की कोशिशों में जुटी कांग्रेस के इस सूबे में अलग-थलग पड़ जाने के बाद एक बार फिर यह बात आईने की तरह साफ हो गई है कि भारतीय राजनीति में न कोई किसी का स्थायी दुश्मन है और न दोस्त और न ही भारतीय राजनीति में नैतिकता और शुचिता नाम की कोई चीज शेष रह गई है। सपा-बसपा गठबंधन के बाद अब हर किसी की नजरें इसी राज्य की भावी राजनीति पर केन्द्रित हैं। दरअसल महागठबंधन बनाने के प्रयासों में जुटे विपक्षी दलों की यही कोशिश रही है कि किसी भी प्रकार भाजपा को सत्ता से बाहर किया जा सके और इस लिहाज हर किसी की नजरें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश पर ही टिकी थी क्योंकि कुल 545 सीटों वाली लोकसभा में 80 सीटें अकेले उत्तर प्रदेश से ही हैं, जिनमें 63 सामान्य और 17 आरक्षित सीटें हैं।