यही कारण है कि यदि विपक्ष को भाजपा को सत्ता से बाहर करना है तो उसे भाजपा की सीटें 180 से नीचे सीमित करनी होगी और भाजपा के सहयोगी दलों को भी ज्यादा सीटें लाने से रोकना होगा और इसके लिए जरूरी है कि भाजपा विरोधी पार्टियां एक दूसरे के साथ एकताबद्ध होकर चुनाव लड़ें, लेकिन इस तरह की एकताबद्धता नहीं दिखाई दे रही है। कर्नाटक और महाराष्ट्र में कांग्रेस ने वहां के दो मजबूत दलों के साथ गठबंधन किया है, जिसमें कर्नाटक में भाजपा को हराने में उसे सफलता मिल पाएगी और महाराष्ट्र में भी उसे आंशिक सफलता मिल पाएगी, लेकिन अन्य राज्यों मे एकता अभी भी दूर की कौड़ी है।
उत्तर भारत के तीन हिन्दी राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक विपक्ष का वह महागठबंधन तैयार नहीं हो सका है, तो भाजपा को करारी शिकस्त दे सके। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का समझौता हो गया है, लेकिन वहां कांग्रेस भी पूरी ताकत के साथ अलग से चुनाव लड़ रही है। वहां भाजपा को हराने की आवश्यक शर्त थी सपा- बसपा- राष्ट्रीय लोकदल के साथ कांग्रेस का गठजोड़, लेकिन मायावती के कारण वह संभव नहीं हो सका है और कांग्रेस ने वहां अपनी वजूद की लड़ाई लड़ते हुए प्रियंका गांधी को मैदान में उतार दिया है। इसके कारण भाजपा विरोधी मतों का दो भाग में बंटना अवश्यंभावी है और इसका लाभ सत्तारूढ़ दल को मिलेगा। उत्तर प्रदेश का जातीय समीकरण भी भाजपा के पक्ष मे बना हुआ है। गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित अभी भी जाटवों और यादवों के खिलाफ है। यादव- जाटव गठजोड़ के खिलाफ वे भाजपा के पक्ष में भारी मतदान कर सकते हैं और भाजपा 2014 और 2017 को नहीं दुहराने के बावजूद अच्छी खासी सीटें हासिल कर लेंगी। यदि महागठबंधन बनता और उसमें कांग्रेस भी साथ होती, तो भारतीय जनता पार्टी को दर्जन भी सीटें लाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता, लेकिन वैसा होता नहीं दिखाई पड़ रहा है।
बिहार की स्थिति उत्तर प्रदेश से थोड़ी अलग है। वहां इन पंक्तियों के लिखे जाने तक महागठबंधन की प्रक्रिया जारी है, लेकिन उसके रास्ते में अनेक कांटे हैं। कांग्रेस को लगता है कि बिहार में वह फिर एक उभरती ताकत है और अपने बेहतर भविष्य का सपना देख रही है। तीन हिन्दी राज्यों मे जीत के बाद वह बिहार में भी फिर से उभरने का सपना देख रही है और उसके इस सपने को इसलिए भी बल मिल रहा है कि अनेक चुनावबाज नेता दूसरे दलों से आकर उसमें शामिल होना चाहते हैं और कुछ तो शामिल भी हो चुके हैं। इसके कारण कांग्रेस को लगता है कि उसे ज्यादा सीटें मिलनी चाहिए। इसलिए उसके रणनीतिकारों ने राजद के बराबर सीटों की मांग कर दी थी। यह मांग स्वीकार किया ही नहीं जाना था, क्योंकि लालू यादव अपने दल की बराबरी का रूतबा कांग्रेस को प्रदान नहीं करना चाहेंगे। लेकिन कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा सीटों की मांग कर रही है। इसके अलावा सीटों की उसकी अपनी पसंद भी है, जिसके कारण महागठबंधन बनने में कठिनाई हो रही है। शायद गठबंधन न हो या शायद गठबंधन हो जाय, पर दोनों स्थितियों में भाजपा विरोधी दलों को नुकसान ही होना है, क्योंकि उन्हें तैयारी के लिए समय कम मिल रहा है।
बिहार का जातीय गणित भी भारतीय जनता पार्टी और जद(यू) गठबंधन के पक्ष में है। यहां ओबीसी मतदाताओ की संख्या 60 फीसदी है और वे हार या जीत को तय करते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में गैर यादव ओबीसी के बहुत बड़े हिस्से ने भाजपा का साथ दिया था और भाजपा को भारी जीत मिली थी। विधानसभा चुनाव में लालू यादव ने मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा से संबंधित बयानों को आधार बनाकर ओबीसी मतदाताओं को भाजपा से अपने महागठबंधन की ओर खींच लिया था। चूुकि नीतीश महागठबंधन के नेता थे, इसलिए लालू को वैसा करने में परेशानी नहीं हुई थी। बहुत चुनावों के बाद यादव और गैरयादव ओबीसी मतदाता एक मंच पर आ गए थे और फिर भाजपा की हालत पतली हो गई थी।
अब बिहार में ओबीसी मतदाताओं के एक बहुत बड़े हिस्से का रूझान मोदी- नीतीश गठबंधन की ओर है। लालू यादव और उनके बेटे इस रूझान को बदल नहीं सकते, क्योंकि नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार दोनो ही ओबीसी है। इसके कारण उनके खिलाफ ओबीसी कार्ड नहीं चल सकता। रामविलास पासवान के नीतीश- मोदी गठबंधन के साथ होने के कारण दलितों का एक मुखर हिस्सा में एनडीए के साथ है। इसलिए राजद के नेतृत्व वाले गठबंधन या महागठबंधन के सामने चुनौतियां बहुत ही विकट हैं।
झारखंड में स्थिति बेहतर है। वहां कांग्रेस ने भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन में अच्छी प्रगति कर ली है और एक सीट को लेकर कांग्रेस और झारखंड विकास मोर्चा के बीच मतभेद उभर रहा है, लेकिन इस मतभेद का चुनावी तैयारियों पर पड़ रहा है। गठबंधन का यह काम बहुत पहले कर लिया जाना चाहिए था, लेकिन चुनाव की घोषणा होन के बाद भी यदि भ्रम फैला हुआ है, तो यह मानना पड़ेगा कि भाजपा विरोधी पार्टियां भाजपा को हराने से ज्यादा महत्व अपने राजनैतिक हित को साधने में दे रही है। (संवाद)
घोषित हुई चुनाव की तारीखें
पर विपक्षी एकता अभी भी दूर की कौड़ी
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-03-12 10:00
निर्वाचन आयोग ने चुनाव की तारीखें घोषित कर दी हैं और चुनाव में भाजपा को पराजित कर सत्ता से बाहर करने के लिए ताल ठोकने वाले विपक्षी पार्टियों के नेता अभी भी सिर्फ ताल ही ठोंक रहे हैं। इस बात को उनको अहसास बहुत पहले हो चुका है कि बिना विपक्षी एकता के नरेन्द्र मोदी और उनकी भाजपा को सत्ता से बाहर नहीं किया जा सकता, क्योंकि अभी भी देश में नरेन्द्र मोदी सबसे लोकप्रिय नेता हैं। यह सच है कि 2014 जैसी लोकप्रियता अब उनकी नहीं रही और उस चुनाव की सफलता को वे बहुत संभव है कि दुहरा भी नहीं पाएं, लेकिन यह भी सच है कि फिर से सरकार बनाने के लिए 2014 जैसी सफलता जरूरी भी नहीं है। यदि भाजपा को दो सौ सीटें आ गईं और उनके सहयोगी दलों को 40 सीटें भी आ गईं, तो सरकार बनाकर उसे स्थायित्व देने में नरेन्द्र मोदी को बहुत मशक्कत का सामना नहीं करना पड़ेगा।