बाद में, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से चुनाव के दौरान सुरक्षा बलों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भी कहा। टीएन शेषण की विरासत जारी है, हालांकि चुनाव प्रक्रिया लगातार अधिक महंगी, जटिल और विवादास्पद होती जा रही है। 2014 के संसदीय चुनाव के दौरान कुल 1,20,000 अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया था। देश के विभिन्न हिस्सों से बड़ी संख्या में वर्दीधारी कर्मियों की आवाजाही में काफी समय लगता है। पोलिंग स्टाफ और मशीनों के मामले में भी ऐसा ही है।
चुनावी प्रणाली की तथाकथित सफाई आंशिक रूप से सफल हो सकती है, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की उपस्थिति के बावजूद चुनावी हिंसा, बूथ जाम, बूथ कैप्चरिंग, गुप्त धन खर्च और ’वैज्ञानिक’ वोट रिगिंग के मामले काफी बढ़ गए हैं। राजनीतिक गुंडों को अधिक शरारत पैदा करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए अब अधिक समय मिल रहा है। अभियान कटु और अधिक तीखे हो गए हैं। यदि इंडोनेशिया और ब्राजील जैसे विशाल आबादी वाले देश एक ही दिन में अपना चुनाव पूरा कर सकते हैं, तो भारत अपनी दुर्जेय चुनाव मशीनरी के साथ चुनावी प्रक्रिया को छोटा क्यों नहीं कर सकता है?
पिछले कुछ वर्षों में समग्र चुनाव खर्च में भारी वृद्धि के बावजूद, सामान्य अर्थव्यवस्था को बाजार में धन की अचानक आपूर्ति में वृद्धि से लाभ ही होता है। आर्थिक गतिविघियां तेज हो जाती हैं। कई अस्थायी रोजगार अवसर पैदा हो जाते हैं। कुछ उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है।हालांकि कुछ नुकसान भी होते हैं। सार्वजनिक परिवहन की उपलब्धता कम हो जाती है और सार्वजनिक परिवहन अधिक महंगे और दुखदाई हो जाते हैं। लंबी चुनाव प्रक्रिया से औद्योगिक उत्पादन, निर्माण और बुनियादी ढांचे और निश्चित रूप से स्कूल और कॉलेज की शिक्षा भी प्रभावित होती है। इसके अलावा केंद्र और राज्यों में उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के लिए आदर्श आचार संहिता के अमल में आने के कारण सभी विकास कार्य भी ठप होने लगते हैं।
16 वीं लोकसभा का गठन करने के लिए 7-अप्रैल 2014 से 12 मई 2014 के बीच 36-दिनों तक नौ चरणों में मतदान हुए थे। यह काफी लंबा था। अब 11 अप्रैल और मई 19 के बीच 17 वीं लोकसभा के लिए 39-दिनों और सात-चरणों में मतदान होंगे। चुनाव का संचालन कठिन और लंबे समय तक हो रहा है। पांच चरण के 2009 के संसदीय चुनाव में लगभग एक महीने का समय लगा। हालाँकि 1951-52 में भारत का ऐतिहासिक पहला आम चुनाव 25 अक्टूबर, 1951 से 21 फरवरी, 1952 तक पूरा होने में लगभग चार महीने लग गए थे, और पहली लोकसभा का गठन 17 अप्रैल, 1952 को ही किया जा सका था, हालाँकि बाद के आम चुनाव बहुत कम समय में ही पूरे होने लगे थे। 1962 से 1989 के बीच चार से 10 दिनों के बीच सारे क्षेत्रो में मतदान हो जाया करते थे। 1980 में चार दिवसीय लोकसभा मतदान देश का सबसे छोटा चुनाव था।
इस तरह की लंबी चुनावी प्रक्रिया से कुछ लोग लाभान्वित होते हैं और कुछ को नुकसान भी होते हैं। यही अब नियति बन गई है। जिनका चुनाव शुरू में ही हो जाता है, उनके लिए ज्यादा समस्या नहीं है, लेकिन जिन उम्मीदवारों को बाद वाले चुनाव मे मतदान का सामना करना पड़ता है, उन्हें काफी कठिनाई होती है। एक तो उन्हें लंबे समय तक प्रचार करना पड़ता है। जिसके कारण उनका खर्च काफी बढ़ जाता है। इसके अलावा उन्हें चिलचिलाती गरमी का सामना भी करना पड़ता है। सुरक्षा बलों को भी एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने और आने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अनेक की तो तबीयत ही खराब हो जाती है। उनपर सरकार का पैसा भी काफी खर्च होता है। इसलिए इस तरह की लंबी चुनावी प्रक्रिया से बचा जाना चाहिए। सच कहा जाय तो बाद वाले चरणों मे जब गर्मी का पारा काफी चढ़ जाएगा, तो मतदान का प्रतिशत भी कम हो जाएगा। यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। (संवाद)
चुनाव की लंबी प्रक्रिया उचित नहीं
सभी क्षेत्रों में मतदान कम से कम चरणों में संपन्न होन चाहिए
नंतू बनर्जी - 2019-03-19 11:03
यह सब 1990 के दशक में मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन के समय शुरू हुआ था। चुनाव के दौरान हिंसा को रोकने के लिए केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की तैनाती करने वाले वह पहले मुख्य चुनाव आयुक्त थे। पहली बार आदर्श आचार संहिता को प्रभावी ढंग से लागू करने, चुनावों में बाहुबल और धन शक्ति पर लगाम लगाने, मामलों को दर्ज करने और मतदान नियमों का पालन नहीं करने के लिए उम्मीदवारों को गिरफ्तार करने और उम्मीदवारों के साथ नापाक गठबंधन करने के लिए अधिकारियों को निलंबित करने का श्रेय श्री शेषण को ही जाता है।