मतदाताओं का एक वर्ग ऐसा भी होता है, जो जीतने वालों को मतदात करता है। जैसी हवा बहती है, उसी के अनुसार वे अपनी पीठ करते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाय, तो हवा के साथ चलना चाहते हैं। यदि इस नजरिए से देखा जाय, तो भारतीय जनता पार्टी ने अपने विरोधियों पर बढ़त हासिल कर ली है। उसके विरोधी गठबंधन और महागठबंधन के लंबे चैड़े वायदे कर रहे थे, लेकिन यह गठबंधन या तो हो ही नहीं रहा है और यदि कहीं हो भी रहा है, तो उसमें इतना मोलतोल हो रहा है कि मतदाता इस बात को लेकर भ्रमित हो रहे हैं कि आखिर विपक्षी पार्टियों की मंशा क्या है।
एक औसत मतदाता एक स्थिर सरकार चाहता है। वह एक ऐसी सरकार चाहता है, जो चले और काम करे। और इधर विपक्षी पार्टियां गठबंधन न कर या इसमे विलंब कर यह संदेश दे रही है कि वे एक साथ चल ही नहीं सकतीं। ज्यादा से ज्यादा वे एक साथ मिलकर सरकार का विरोध कर सकती है, लेकिन खुद सरकार मे आने के बाद वह एक रहेगी, इसकी संभावना कम है।
जिस तरह से अलग अलग राज्यों में कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच गठबंधन को लेकर नोक झोंक चल रही है, उससे यह पता चलता है कि इन सब पार्टियों की दिलचस्पी नरेन्द्र मोदी की सरकार को हटाने में कम है और वे मोदी विरोध के नाम पर अपने आपको मजबूत करने में लगी हुई है। वे बातें तो कर रही हैं, इस चुनाव की, लेकिन उनकी नजरें अगले चुनाव पर टिकी हुई हैं। वह अगला चुनाव लोकसभा का भी हो सकता है और विधानसभा का भी हो सकता है।
बिहार का उदाहरण लें। यहां मुख्य रूप से कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के बीच ज्यादा से ज्यादा सीटें पाने को लेकर दांव पेच चलता रहा। कांग्रेस को ज्यादा सीटें चाहिए, क्योंकि उसे यहां अपनी राजनैतिक जमीन मजबूत करनी है। राजनीति मे लालू यादव की अनुपस्थिति के बाद कांग्रेस को लगता है कि वह यहां एक बार फिर अपने पांव जमा सकती है। उसके पास कुछ मजबूत उम्मीदवार भी आ रहे हैं, जो उसके टिकट से चुनाव लड़ना चाहते हैं। कांग्रेस उन सबका स्वागत कर रही है और उन्हें लोकसभा चुनाव भी लड़ाना चाहती है। इसका उद्देश्य इस चुनाव में जीत हासिल करना कम बल्कि आगे की तैयारी करना ज्यादा है।
उसी तरह तेजस्वी यादव को भी आगे की राजनीति देखनी है। इसके लिए इस चुनाव में ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार चाहिए और यह भी कोशिश होनी चाहिए कि कहीं कांग्रेस का फिर से प्रदेश में उत्थान न हो जाय। यदि कांग्रेस के हिस्से में ज्यादा सीटें गईं और उसके साथ प्रदेश के कुछ मजबूत नेता जुड़े, तो उसकी जमीन मजबूत हो जाएगी और इसका असर राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति पर पड़ सकता है, जिसकी राजनीति मजबूत बने रहने के लिए मुस्लिम समर्थन आवश्यक है। कांग्रेस का उत्थान राजद के मुस्लिम आधार को कमजोर करेगा। इसलिए राजद क्यों चाहेगा कि कांग्रेस प्रदेश में मजबूत हो।
बिहार में विपक्षी एकता में संघर्ष का एक स्तर उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी के बीच भी है। मांझी को लगता है कि वे उपेन्द्र कुशवाहा से बड़ा जनाधार रखते हैं, इसलिए उन्हें लोकसभा की ज्यादा सीटें मिले। इसके अलावा यह गणना भी है कि यदि इस बार कम सीटें मिलीं, तो विधानसभा चुनाव में भी कम सीटें मिलेंगी। अतः वे कुशवाहा से ज्यादा सीटें मांगते रहे। यहां भी भाजपा को हराने की इच्छा कम, बल्कि गठबंधन के अंदर एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा की राजनीति का अहम रोल है।
उत्तर प्रदेश मे तो महागठबंधन बना ही नहीं। मायावती को कांग्रेस के उत्थान से डर लगता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में आज जो दलित हाथी को वोट दे रहे हैं, वह हाथ के भी वोटर रहे हैं। हाथी चूंकि कमजोर हो रहा है, इसलिए मायावती को डर है कि दलित फिर कहीं कांग्रेस का हाथ न थाम ले। इसलिए दलित नेता ने कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में गठबंधन का हिस्सा बनने ही नहीं दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि देश के किसी भी हिस्से में कांग्रेस के साथ उनकी पार्टी का गठबंधन नहीं होगा। मायावती कांग्रेस को दलित विरोधी पार्टी के रूप में दुनिया के सामने पेश करना चाहती हैं, ताकि उत्तर प्रदेश के दलित एक बार फिर कांग्रेस की ओर मुखातिब न हों।
देश की राजधानी दिल्ली का भी वही हाल है। अरविंद केजरीवाल कांग्रेस से समझौता चाहते हैं। वे किसी भी हालत में नरेन्द्र मोदी को सत्ता से बाहर देखना चाहते हैं, लेकिन इसके साथ साथ वे कांग्रेस से हरियाणा और पंजाब में भी समझौता कर लोकसभा में अपनी सीटें बढ़वाना चाहते हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस की चिंता यह है कि यदि आम आदमी पार्टी से दिल्ली में समझौता होता है, तो भले ही भाजपा के सातों लोकसभा उम्मीदवार चुनाव हार जाएं, पर पार्टी देश की राजधानी में और कमजोर हो जाएगी। इसलिए दिल्ली के अधिकांश क्षेत्रीय नेता आम आदमी पार्टी से गठबंधन नहीं चाहते और केन्द्रीय नेतृत्व को यह समझ में नहीं आ रहा कि वह क्या करे और क्या न करे।
पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों के साथ कांग्रेस का गठबंधन विफल हो गया है। उसका गठबंधन कर्नाटक में संभव हो गया है, क्योंकि वहां वह जनता दल सेकुलर के साथ पहले ही गठबंधन की सरकार चला रही है। महाराष्ट्र में वह लंबे समय से एनसीपी के साथ गठबंधन करती रही है। इसलिए वहां भी ज्यादा परेशानी नहीं हुई, लेकिन अन्य राज्यों मे या तो गठबंधन हो ही नहीं रहा है और यदि हो भी रहा है, तो वह काफी हुज्जत के साथ। (संवाद)
विपक्ष के विभाजन का लाभ भाजपा को
एकता की बात थोथी साबित हुई
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-03-20 10:11
आखिर वही हुआ जो होना था। तमाम दावों के बावजूद भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों की एकता महज एक राजनैतिक स्टंट साबित हुआ है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कुछ राज्यों में अभी भी एकता, गठबंधन और तालमेल की बात चल रही थी, लेकिन अब देर हो चुका है। गठबंधन से सिर्फ राजनैतिक दलों के वोट ही आपस मे नहीं जुड़ते, बल्कि इसके कारण जो राजनैतिक संदेश फैलते हैं उसके कारण फ्लोटिंग वोटर भी अपनी राय बनाते हैं। हार और जीत मे इन वोटरों की काफी भूमिका होती है। ये जिधर जाते हैं, जीत उन्हीं की होती है।