अलगावादी नेताओं की सुरक्षा वापस लेने के बाद 28 फरवरी को अलगाववादी संगठन जमात-ए-इस्लामी पर आतंकवाद निरोधक कानून के तहत 5 साल का प्रतिबंध लगाया गया और अब 22 मार्च को आतंक विरोधी कानून के तहत जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) को प्रतिबंधित कर दिया गया है। हालांकि विपक्षी दलों द्वारा अलगाववादियों पर इस प्रकार की बड़ी कार्रवाइयों को लोकसभा चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन भले ही इस तरह के कठोर कदम सरकार द्वारा चुनाव से ठीक पहले चुनाव में फायदा लेने के दृष्टिगत उठाए गए हों, फिर भी आतंक के खिलाफ ऐसा कठोर रूख अपनाने के लिए वह सराहना की पात्र तो है ही क्योंकि कश्मीर आतंकी घटनाओं से दशकों से कराह रहा है और इससे पहले चुनाव से पहले भी कोई भी सरकार आतंकियों और उनके सरपरस्तों पर शिकंजा कसने की ऐसी हिम्मत नहीं दिखा सकी।
कश्मीर में आतंकियों की नृशंसता का खुलकर समर्थन करने वाले, पत्थरबाजों को संरक्षण देने वाले अलगाववादियों पर जब भी कठोर कार्रवाई की जाती है, तब हर बार यह देखकर घोर आश्चर्य होता है कि किस प्रकार राज्य की कमान संभाल चुके महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला जैसे लोग खुलकर अलगाववादियों के पक्ष में सुर बुलंद करते नजर आते हैं। स्मरण रहे कि जब जमात-ए-इस्लामी पर पाबंदी लगाई गई थी, तब महबूबा और उमर ने खुलकर इस पाबंदी का कड़ा विरोध करते हुए केन्द्र की नीतियों पर निशाना साधा था और अब जेकेएलएफ पर पाबंदी के बाद भी महबूबा ने वही बगावती तेवर दिखाते हुए चेतावनी भरे शब्दों में कहा है कि ऐसे कदमों से कश्मीर खुली हवा में एक जेल जैसा बन जाएगा। हमें अब भली-भांति समझ लेना चाहिए कि जम्मू कश्मीर के सरपरस्त बनते रहे ऐसे नेता खाते तो भारत का है लेकिन वफादारी दिखाते हैं आतंकियों के सरपरस्त पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के प्रति। अगर जम्मू कश्मीर की सियासत के ऐसे कर्णधार घाटी के भटके हुए नौजवानों को सही राह दिखाकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास करने के बजाय अपने सियासी फायदे के लिए अलगाववादियों और पाकिस्तान की जुबान में बात करते हैं तो ऐसे में आज समय की मांग यही है कि ऐसे दोगले नेताओं का राष्ट्रीय स्तर पर बहिष्कार किया जाए।
महबूबा तर्क देती हैं कि जेकेएलएफ प्रमुख यासीन मलिक ने बहुत साल पहले ही कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए हिंसा का रास्ता त्याग दिया था जबकि इस बात के तमाम सबूत मौजूद हैं कि जेकेएलएफ किस प्रकार जम्मू कश्मीर में आतंकी गतिविधियों को समर्थन देता रहा है और किस प्रकार आतंकवादियों का वित्त पोषण करता रहा है। इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जेकेएलएफ उस हुर्रियत कांफ्रैंस का ही हिस्सा है, जो घाटी में खूनखराबे के लिए कुख्यात है। जिस यासीन मलिक और उसके संगठन की महबूबा तरफदारी कर रही हैं, वही यासीन 22 फरवरी को जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत हिरासत में लिया गया था और फिलहाल जम्मू की कोट बलवाल जेल में बंद है। बता दें कि पीएसए के तहत यासीन को दो साल तक हिरासत में रखा जा सकता है। यासीन मलिक ऐसा शख्स है, जो सही मायने में भारत की सरजमीं पर तमाम सरकारी सुविधाएं प्राप्त कर सरकारी रहमोकरम पर पलता रहा पाकिस्तानी मोहरा है, जिसकी आस्था शुरू से ही पाकिस्तान से जुड़ी रही है। कुछ साल पहले तक गुपचुप तरीके से वह पाकिस्तानी नेताओं से मिलता या बात करता था किन्तु पिछले कुछ वर्षों से वह खुलेआम पाकिस्तान की हिमायत करता रहा है।
यह वही यासीन मलिक है, जिसकी 1990 में हिन्दुओं का कत्लेआम कर उन्हें कश्मीर से बेदखल करने के आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। यह वही यासीन मलिक है, जिसने भारतीय संसद पर हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरू को फांसी दिए जाने के खिलाफ और कहीं नहीं बल्कि इस्लामाबाद में ही बैठकर 24 घंटे का अनशन किया था और उस अनशन में उसके साथ 2006 के मुम्बई हमले का मास्टरमाइंड लश्कर-ए-तैयबा का संस्थापक हाफीज सईद भी शामिल था। यह वही यासीन मलिक है, जिसने उस अनशन के दौरान संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू को फांसी दिए जाने के भारत के फैसले को यहां के लोगों को संतुष्ट करने के लिए एक बेगुनाह शख्स को फांसी पर चढ़ाए जाने के रूप में प्रचारित करते हुए उसे कानून और संविधान का कत्ल बताया था। यासीन खुद स्वीकार चुका है कि 1987 में उसने 4 भारतीय सुरक्षाकर्मियों की हत्या की थी, जिसके लिए उसे जेल में भी रहना पड़ा था। 2002 में उसे ‘पोटा’ कानून के तहत भी गिरफ्तार किया गया था। अगर ऐसे शख्स का महबूबा मुफ्ती सरीखी पूर्व मुख्यमंत्री यह कहकर बचाव करती हैं कि यासीन ने कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए हिंसा का रास्ता बहुत पहले ही त्याग दिया था तो यासीन सरीखे अलगाववादियों और पाकिस्तानी मोहरों तथा महबूबा में अंतर करना कठिन नहीं है। ऐसे ही लोगों के कारण देश में अफजल गुरू जैसे आतंकी जन्म लेते हैं और बेखौफ फलते-फूलते हुए दहशत का पर्याय बनते हैं।
यासीन मलिक पर बरसों से पाकिस्तान के आतंकी संगठनों के साथ संबंधों के आरोप लगते रहे हैं लेकिन वोट बैंक की सड़ी-गली राजनीति के चलते केन्द्र में बैठी कोई भी सरकार उसकी गतिविधियों पर लगाम लगाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी और ऐसी नीतियों का ही नतीजा रहा कि यासीन जैसे अनेक कुकुरमुत्ते अलगावादियों के रूप में पनपते गए और उनके हौंसले बुलंद होते गए। केन्द्रीय गृह सचिव राजीव गाबा ने खुलासा किया है कि यासीन का संगठन जेकेएलएफ अलगाववादी सिद्धांतों पर चलने वाला प्रमुख संगठन है, जो घाटी में अलगाववादी मानसिकता फैला रहा है और 1998 से घाटी में अलगाववादी गतिविधियों तथा हिंसक घटनाओं में यह सबसे आगे रहा है। इस संगठन के खिलाफ जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा 37 केस दर्ज किए गए हैं जबकि सीबीआई द्वारा भी भारतीय वायुसेना के चार लोगों की हत्याओं से जुड़े इस पर दो केस दर्ज हैं। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए) द्वारा भी जेकेएलएफ के खिलाफ एक केस दर्ज किया गया है, जिसकी जांच चल रही है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा भी टेरर फंडिंग के सिलसिले में जेकेएलएफ नेताओं सहित कई अन्य अलगाववादी नेताओं पर भी शिकंजा कसा जा रहा है। देखा जाए तो आज घाटी में जो हालात हैं, जिस प्रकार आए दिन बेगुनाह लोग मारे जा रहे हैं, पत्थरबाजों के हौंसले बुलंद हैं, ऐसे में इस प्रकार की घटनाओं में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से मददगार बनते रहे अलगाववादियों को कुचलना समय की बहुत बड़ी मांग है। कल्पना की जा सकती है कि घाटी में टेरर फंडिंग करने वाले अलगाववादी नेताओं की रीढ़ ही तोड़ दी जाएगी तो टेरर फंडिंग के लिए उनके पास अपार धन-दौलत कहां से आएगी और कैसे वे यहां के युवाओं को हरे-गुलाबी नोटों का लालच देकर बरगलाने के अपने नापाक मंसूबों में सफल होंगे। (संवाद)
जेकेएलएफ पर सरकार का हथौड़ा
अलगाववादियों पर शिकंजा कसना ही होगा
योगेश कुमार गोयल - 2019-03-23 10:26
पुलवामा आतंकी हमले के बाद घाटी में आतंकियों के पैरोकार बनते रहे अलगाववादियों की कमर तोड़ने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा जो कदम उठाये जा रहे हैं, उनकी जरूरत जम्मू कश्मीर में अमन-चैन की बहाली के लिए लंबे समय से महसूस की जा रही थी। इसी कड़ी में सबसे पहले सरकार द्वारा घाटी के कुछ प्रमुख अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापस लेने का अहम फैसला लिया गया था, जिनमें हुर्रियत नेता एसएएस गिलानी, आगा सैय्यद मौसवी, मौलवी अब्बास अंसारी, यासीन मलिक, सलीम गिलानी, शाहिद उल इस्लाम, जफर अकबर भट्ट, नईम अहमद खान, मुख्तार अहमद वाजा, फारूख अहमद किचलू, मसरूर अब्बास अंसारी, अगा सैयद अब्दुल हुसैन, अब्दुल गनी शाह, मोहम्मद मुसादिक भट इत्यादि शामिल थे। इन अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा में 100 से भी ज्यादा सरकारी गाड़ियां और 1000 से ज्यादा पुलिसकर्मी लगे थे और सरकारी खजाने से इनकी सुरक्षा पर हर साल अरबों रुपये लुटाये जा रहे थे।