वैसे चुनाव पूर्व होने वाले राजनैतिक सर्वेक्षण फर्जी होते हैं। वे किसी न किसी निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा प्रायोजित होते हैं और उनका उद्देश्य अपने प्रायोजकों के हितों की पूर्ति करना होता है। इस तथ्य के बावजूद बिहार के लेकर किए गए सर्वेक्षणों के निष्कर्ष सच्चाई के बहुत नजदीक हैं। उन सर्वेक्षणों के अनुसार राजग को बिहार की 40 में से 35 सीटें आ सकती हैं। बिहार की राजनीति की जिसे समझ है, वह इन निष्कर्षों को ठुकरा नहीं सकता।

इसका कारण यह है कि बिहार का जातीय गतिण राजग के पक्ष में है। लालू यादव अब ओबीसी के मसीहा नहीं रहे। वे गरीबों के मसीहा भी नहीं रहे। वे एक यादव नेता मात्र रह गए है। मुसलमानों का समर्थन उन्हें भाजपा को हराने के लिए मिलता है। जाहिर है, वह लालू को मिल रहा नकारात्मक समर्थन है। एक समय था, जब ओबीसी की अन्य जातियों के लोग भी लालू को अपना नेता मानते थे। लेकिन आज स्थिति यह है कि ओबीसी की गैर यादव जातियों के लोग लालू यादव को न केवल नापसंद करते हैं, बल्कि उनसे घोर नफरत करते हैं।

और यही बिहार में मोदी और नीतीश की सबसे बड़ी राजनैतिक पूंजी है। बिहार में हिन्दू ओबीसी की आबादी करीब 54 फीसदी है, जिसमें 12 फीसदी यादव हैं। शेष 42 फीसदी आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा आज मोदी- नीतीश के साथ है। 5 फीसदी वाले कुशवाहा जाति के लोग उपेन्द्र कुशवाहा के प्रति सम्मान और समर्थन भले रखते हों, लेकिन लालू के लिए पल रही उनकी घृणा उन्हें उन लोकसभा क्षेत्रों में महागठबंधन के उम्मीदवारो की ओर ही झुकाएगी, जहां कुशवाहों का कोई गंभीर उम्मीदवार नहीं हैं। अति पिछड़े वर्ग की जातियां पहले से ही नीतीश कुमार के साथ है। मोदी खुद ओबीसी हैं। इसके कारण पिछड़े वर्गों का एक बड़ा हिस्सा राजग के साथ है।

यही कारण है कि पांच दलों के महागठबंधन से भी मोदी-नीतीश की जोड़ी को मतदाताओं के स्तर पर कोई नुकसान नहीं पहुंचाने वाला है, क्योंकि यह महागठबंधन सामाजिक स्तर पर कोई मायने नहीं रखता। इस गठबंधन का उद्देश्य भी यही है कि मुस्लिम वोट नहीं बिखरे। पर सिर्फ मुस्लिम वोट से जीत नहीं मिलती। मुस्लिम यादव समीकरण लालू यादव को चुनाव में जीत दिलवाने मे विफल रहा है। राबड़ी देवी भी इस समीकरण पर भरोसा कर चुनाव हार चुकी हैं। पिछले चुनाव में लालू- राबड़ी की बड़ी बेटी मीसा भारती भी चुनाव हारी थीं। विधानसभा में लालू के राजद को जो 80 सीटें मिली थीं, वह मुस्लिम यादव समीकरण के कारण नहीं, बल्कि ओबीसी की अन्य जातियों के मतों के कारण मिली थीं, जो नीतीश के कारण राजद को वोट दे रहे थे।

पर नीतीश आज मोदी के साथ हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में नीतीश के जनता दल(यू) को 16 फीसदी वोट मिले थे। जब वह 16 फीसदी लालू के मुस्लिम यादव समीकरण से मिले थे, तो महागठबंधन को 2015 के विधानसभा चुनाव में भारी जीत मिली थी। अब नीतीश मोदी के साथ हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा और सहयोगी दलों को 39 फीसदी वोट मिले थे। यदि उसमें 16 फीसदी जोड़ दिया जाय, तो वह 55 फीसदी हो जाता है, जो बिहार की लगभग सभी सीटों पर राजग को जीत दिलाने के लिए पर्याप्त है। 2015 के विधानसभा चुनाव में राजग को 32 फीसदी मत मिले थे। यदि उसमें नीतीश का 16 फीसदी जुड़ जाता है, तो यह 48 फीसदी हो जाता है। इतने मत पाकर बिहार की 35 सीटें आसानी से जीती जा सकती हैं।

और इस बीच तेज प्रताप का विद्रोह कथित महागठबंधन को और भी कमजोर करेगा। गठबंधन के कारण सहयोगी पार्टियों को मिली सीटों पर राजद के अनेक महत्वाकांक्षी नेता छटपटा रहे हैं। ऐसे नेताओं को तेज प्रताप एक मंच दे सकते हैं और बागी चुनाव मे उतर कर मोदी- नीतीश विरोधी मतों का ही बंटवारा करेंगे। इसके कारण राजग का काम और भी आसान हो जाएगा और महागठबंधन की गरीबी और भी बढ़ जाएगी।

सच कहा जाय, तो तेज प्रताप के साथ लालू और राबड़ी ने अच्छा नहीं किया। जब वे दोनों सामंती राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं, तो सामंती मूल्यों के हिसाब से अपने बड़े बेटे को अपना उत्तराधिकारी बनाएं, लेकिन उन्होंने अपना उत्तराधिकारी अपने छोटे बेटे को बना दिया। अब यदि छोटे बेटे को उत्तराधिकारी बना भी दिया, तो बड़े बेटे को राजनीति से पूरी तरह अलग कर दिया जाना चाहिए था। कहते हैं कि तेज प्रताप धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति हैं। इसलिए उनको धर्म-कर्म की दुनिया में भेज कर संन्यासी बनवा दिया जाना चाहिए था, लेकिन उन्हें रखा गया राजनीति में।

राजनीति में यदि रखा भी गया, तो उन्हें कुछ तो महत्व मिलना चाहिए था। उन्हें कुछ तो काम सौंपा जाना चाहिए था। तेज प्रताप के बारे में तरह तरह की नकारात्मक बातें फैली हुई हैं, जो जाहिराना तौर पर गलत हैं। तेज प्रताप को राजनैतिक जिम्मेदारियां देकर उन नकारात्मक बातों का शमन किया जा सकता था, लेकिन उसका मौका भी उन्हें नहीं दिया गया। और यदि अब वे राजनीति में हैं, तो साथ में काम करने वाले कुछ लोगों को वे भी टिकट दिलवाना चाहेंगे। इसलिए दो सीटों से अपनी पसंद के उम्मीदवार को टिकट दिलवाने की उनकी मांग गलत भी नहीं है। यदि उपेन्द्र कुशवाहा को अपनी पसंद के 5, जीतन राम मांझी को अपनी पसंद की 3 और सहनी को अपनी पसंद की 3 सीट दी जा सकती है, तो फिर तेज प्रताप को दो सीटें क्यों नहीं दी जा सकती? जाहिर है, तेज प्रताप के साथ अन्याय हुआ है। (संवाद)