दरअसल देश में चुनावों के दौरान कुछ वर्षों से यही ट्रैंड बन चुका है कि कहीं भी हार की स्थिति दिखाई देने पर विपक्षी दलों द्वारा अपनी हार के लिए ईवीएम को दोषी ठहराकर सारा ठीकरा ईवीएम पर ही फोड़ दिया जाता है। हर राजनीतिक दल द्वारा अपनी हार के लिए नए-नए बहाने तलाशने की कोशिश की जाती है और पिछले कुछ समय से इसके लिए ईवीएम ही तमाम राजनीतिक दलों के लिए सबसे बड़ा हथियार बना है। ये वही ईवीएम हैं, जिन्होंने पिछले साल पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान तीन में कांग्रेस को सत्ता के पायदान तक पहुंचाया और सत्ता तक पहुंचने में सफलता मिलते ही तमाम विपक्षी दलों के ईवीएम विरोधी स्वर खामोश हो गए थे। ऐसे में हर बार चुनावी प्रक्रिया के दौरान ही ईवीएम के विरोध का कोई औचित्य समझ से परे है। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ओमप्रकाश रावत बैलेट पेपर से मतदान कराए जाने की मांग पर अपने कार्यकाल के दौरान कह चुके हैं कि जो भी दल हारता है, वह किसी को तो जिम्मेदार ठहराता ही है और जिस प्रकार खेल में हारने पर रैफरी को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है, उसी प्रकार चुनाव में हारने पर ईवीएम को जिम्मेदार ठहराया जाता है।
चुनाव आयोग तमाम दलों को कई बार ईवीएम में गड़बड़ी साबित करने या ईवीएम हैक करके दिखाने की चुनौती दे चुका है लेकिन हर बार चुनावों के दौरान ईवीएम का बेसुरा राग अलापने वाले राजनीतिक योद्धा ऐसी चुनौती स्वीकारने के बजाय अपनी भूमिका ईवीएम को कोसने तक ही सीमित रखते हैं। इस तथ्य को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि चुनाव के लिए नामांकन भरते समय तमाम दलों के प्रत्याशियों द्वारा ईवीएम से चुनाव कराए जाने पर सहमति प्रकट की जाती है किन्तु जनता को बरगलाने के लिए ईवीएम को लेकर अनावश्यक विवाद खड़ा करने की कोशिशें की जाती हैं। यह हाल तो तब है जबकि कई अवसरों पर न केवल चुनाव आयोग बल्कि सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि ईवीएम से बेहतर और कोई चुनावी प्रक्रिया नहीं है। हालांकि तमाम आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच यह चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि लोकसभा के बाकी चरणों के मतदान के दौरान ईवीएम में गड़बड़ी के मामले सामने न आएं।
हालांकि कई बार मतदान प्रक्रिया के दौरान ईवीएम में खराबी के कुछ मामले सामने आते हैं लेकिन ऐसे मामलों को ईवीएम में छेड़छाड़ या हैकिंग जैसे आरोपों से जोड़ना कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता। वैसे ईवीएम को लेकर चुनाव आयोग द्वारा यह स्पष्ट किया जा चुका है कि ईवीएम के फेल होने का प्रतिशत महज 0.6 फीसदी ही है। दरअसल किसी भी इलैक्ट्राॅनिक मशीन में कभी भी खराबी आना संभव है और ऐसे में अगर ईवीएम में आने वाली खराबियों के समाधान को लेकर विपक्षी दलों द्वारा आवाज उठाई जाती तो उसका स्वागत होता लेकिन ईवीएम के बजाय बैलेट पत्र से चुनाव कराए जाने की मांग को पूर्णतया अव्यावहारिक बताते हुए अदालत भी पहले ही इसे नकार चुकी है। चुनाव के दौरान मतपत्रों के इस्तेमाल की मांग कर विपक्षी दल देश को कौनसे पुराने युग में ले जाने की बातें कर रहे हैं? आधुनिकीकरण में हम अब इतने आगे निकल चुके हैं कि मतपत्रों के युग में वापस लौटना असंभव है। वैसे भी इस प्रकार की मांग उठाते वक्त हमें यह तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि मतपत्रों से चुनाव कराने के लिए हमें हर चुनाव के लिए कितनी बड़ी संख्या में पेड़ काटने पड़ेंगे और ऐसी स्थिति में पर्यावरण की क्या दुर्दशा होगी। हम इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते कि चुनावी प्रक्रिया में ईवीएम के इस्तेमाल के बाद से ही निरस्त मतों की संख्या में अभूतपूर्व गिरावट देखने को मिली है।
कुछ ही माह पहले सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह धारणा गलत है कि ईवीम के बजाय मतपत्रों के जरिये चुनाव ज्यादा विश्वसनीय है। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का कहना था कि हर मशीन के ठीक या गलत होने की संभावना रहती है और यह उपयोग करने वालों पर निर्भर करता है कि वे उसका कैसे इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में ईवीएम के सही इस्तेमाल की जिम्मेदारी और जवाबदेही अब चुनाव आयोग तथा संबंधित अधिकारियों की ही है। हालांकि हम इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि ईवीएम के जरिये चुनाव कराने की प्रक्रिया में क्रांतिकारी बदलाव आए हैं। अब ईवीएम के साथ वीवीपैट का इस्तेमाल होता है, जिसके जरिये मतदाता अपने मत का प्रयोग करते हुए स्वयं यह देखकर आश्वस्त हो सकता है कि उसका मत उसी उम्मीदवार को गया है या नहीं, जिसके लिए उसने ईवीएम का बटन दबाया है और ऐसे में ईवीएम मशीनों को वीवीपैट से जोड़े जाने के बाद ईवीएम में छेड़छाड़ कर चुनावी नतीजों में हेरफेर की संभावना लगभग खत्म हो गई है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद जब ईवीएम पर गंभीर सवाल उठे थे तो चुनाव आयोग द्वारा व्यवस्था को ज्यादा पारदर्शी बनाने के लिए वीवीपैट मशीनों का प्रयोग शुरू किया गया था।
ईवीएम को देश की मतदान प्रणाली में एक क्रांतिकारी बदलाव के रूप में देखा गया है क्योंकि इससे जहां देश के हर क्षेत्र में और यहां तक कि आतंकवाद प्रभावित इलाकों में भी मतदान प्रतिशत बढ़ता गया, मतों की गिनती में लगने वाला कई-कई दिनों का समय चंद घंटों में सिमट गया, वहीं बूथों पर कब्जे की घटनाएं भी अप्रत्याशित रूप से बेहद कम हो गई तथा ईवीएम के इस्तेमाल से निरस्त होने वाले मतों की संख्या में काफी कमी आई है। जब बैलेट पेपर के जरिये मतदान होता था, तब प्रायः रद्द होने वाले मतों की संख्या हार के अंतर से भी ज्यादा होती थी। ईवीएम पर वोट डालने का सिस्टम ऐसा है कि लोग चाहकर भी कैप्चरिंग नहीं कर सकते। हालांकि कड़वा सच यही है कि ईवीएम हमेशा ही किसी न किसी राजनीतिक दल के निशाने पर रही है। जो भी दल चुनाव हारता है, वह हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ देता है। कभी विपक्ष में रही भाजपा ईवीएम के विरोध में मुखर थी तो भाजपा के केन्द्र में सत्तासीन होने के बाद से विपक्ष ईवीएम विरोध का राग अलापता रहा है। आश्चर्य की बात सदैव यही रही कि जब भी कोई विपक्षी दल चुनाव जीत जाता है तो ईवीएम राग पर विराम लग जाता है और अगले चुनाव के समय फिर यही बेसुरा राग शुरू हो जाता है।
बहरहरल, ईवीएम पर आरोप-प्रत्यारोपों के इस दौर में यह भी जान लेते हैं कि वास्तव में ईवीएम और वीवीपैट हैं क्या और ये कैसे कार्य करते हैं। ईवीएम यानी ‘इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन’ का इस्तेमाल भारत की चुनावी प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए सबसे पहले 1998 में हुआ था, जब केरल के नाॅर्थ पारावूर विधानसभा क्षेत्र के कुछ बूथों पर ईवीएम के जरिये चुनाव कराए गए थे। प्रथम चरण में प्रयोग सफल रहने के बाद लोकसभा व विधानसभा चुनाव ईवीएम से ही कराए जाने लगे। ईवीएम वास्तव में दो अलग-अलग मशीनें होती हैं, जिसकी कंट्रोल यूनिट मतदान अधिकारी के पास होती है जबकि बैलेट यूनिट का प्रयोग मतदाता करते हैं और जब तक मतदान अधिकारी कंट्रोल यूनिट से बैलेट का बटन नहीं दबाता, बैलेट यूनिट से वोट नहीं डाले जा सकते। कई बार ईवीएम धोखा भी दे जाती हैं लेकिन उस स्थिति के लिए हर सेक्टर मजिस्ट्रेट को कुछ अतिरिक्त ईवीएम दी जाती हैं तथा मशीन खराब होने पर पांच मिनट में इसे बदला जा सकता है। हालांकि ईवीएम को लेकर हमेशा संदेह व्यक्त किया जाता रहा है लेकिन कोई भी राजनीतिक दल चुनाव आयोग की खुली चुनौती के बावजूद ईवीएम में धांधली साबित करने में नाकाम रहा है। चुनावी प्रक्रिया को ज्यादा पारदर्शी बनाने के लिए अब ईवीएम के साथ वीवीपैट अर्थात् ‘वोटर वैरीफाइड पेपर आॅडिट ट्रेल’ को भी जोड़ा जाता है। जब भी कोई भी व्यक्ति ईवीएम का उपयोग कर अपना वोट देता है तो वह इस मशीन में उस प्रत्याशी का नाम और चुनाव चिन्ह अपनी चुनी गई भाषा में देख सकता है, जिसे उसने वोट दिया है। वीवीपैट से मतदाता की जानकारी प्रिंट कर मशीन में स्टोर कर ली जाती है और विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर सुरक्षित जानकारी के जरिये समस्या का समाधान किया जाता है। (संवाद)
चुनाव आते ही क्यों शुरू हो जाता है ईवीएम राग?
ईवीएम को लेकर अनावश्यक विवाद
योगेश कुमार गोयल - 2019-04-18 19:18
विगत दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने ईवीएम के मतों की वीवीपैट पर्चियों से मिलान की संख्या पांच करने का निर्णय सुनाया था तो उम्मीद जगी थी कि इस निर्णय के बाद ईवीएम राग शांत हो जाएगा किन्तु प्रथम चरण के मतदान के बाद जिस प्रकार 21 विपक्षी दलों ने एकजुट होकर एक बार फिर ईवीएम में गड़बड़ियों के आरोप लगाकर सारा ठीकरा चुनाव आयोग पर फोड़ते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया है, उससे यह आईने की तरह साफ हो गया है कि लोकसभा चुनाव के परिणाम आने तक तो ईवीएम राग शांत नहीं होने वाला है। इससे पहले विपक्षी दलों की वीवीपैट की 50 फीसदी पर्चियों की गिनती की मांग को अव्यावहारिक मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए चुनाव आयोग को निर्देशित किया था कि वह हर विधानसभा क्षेत्र से एक के बजाय पांच मतदान केन्द्रों से मतों की गिनती करे। फिलहाल सारा विवाद पहले चरण के मतदान के तुरंत बाद तब खड़ा हुआ, जब आंध्र प्रदेश की 25 लोकसभा सीटों और 175 विधानसभा सीटों पर मतदान हुआ और मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू द्वारा आशंका जताई जाने लगी कि उनके राज्य में चुनाव प्रक्रिया में काफी गड़बड़ियां हुई हैं।