चन्द्रबाबू नायडू उस समय संयुक्त मोर्चा के संयोजक भी बन गए थे और देश के मजबूत नेताओ मे शुमार हो गए थे। देवेगौड़ा सरकार के पतन के बाद यदि नायडू चाहते तो देश के प्रधानमंत्री भी बन सकते थे, लेकिन उतनी कम उम्र में प्रधानमंत्री बनना उन्होंने उचित नहीं समझा, क्योंकि संयुक्त मोर्चा की सरकार का भविष्य कांग्रेस पर निर्भर होने के कारण अनिश्चित था और एक बार प्रधानमंत्री बन जाने के बाद नायडू अपने आपको प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए मिसफिट पाते।
1998 में चन्द्रबाबू नायडू ने चुनावी नतीजे के बाद पाला बदलने में देर नहीं की। वे संयुक्त मोर्चा के संयोजक थे, लेकिन चुनाव नतीजे के बाद वे अटल बिहारी वाजपेयी के सरकार गठन के समर्थक बन गए। सीताराम केसरी को कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाने के बाद सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर दे दिया कि उनकी पार्टी सरकार बनाने में सक्षम नहीं है और इस तरह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त हो गया।
अब 1996 की तरह चन्द्रबाबू नायडू एक बार फिर कुछ ऐसा करने की फिराक में हैं, जिससे वे राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्र बन जाएं और उसके लिए अभी से सक्रिय हो गए हैं। मीडिया में आ रही खबरों के अनुसार वे 23 मई के पहले दिल्ली में विपक्षी दलों की एक बैठक आयोजित करना चाहते हैं, ताकि नतीजे आने के तुंरत बाद त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में तुरंत दावा पेश कर दिया जाय। पिछले दिनों यह देखने को मिल रहा है कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में भारतीय जनता पार्टी सिर्फ इसी तर्क के आधार पर सरकार लेती है कि उसने पहले दावा पेश कर दिया। वह लोकसभा चुनाव के बाद भी ऐसी रणनीति अपना सकती है और राजग के बहुमत में न होने के बावजूद नरेन्द्र मोदी का शपथग्रहण हो सकता है। और यदि एक बार शपथग्रहण हो गया, तो उस सरकार को गिराना असंभव नही ंतो बेहद कठिन जरूर होगा।
इसी को ध्यान में रखकर नायडू पहले से ही तैयारी करके रखना चाहते हैं। इसलिए वह नतीजे आने के पहले ही विपक्षी एकता तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं। पर समस्या यह है कि प्रधानमंत्री कौन हो इस पर विपक्षी पार्टियां एक नहीं हैं। कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। भाजपा के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में वह ही उभरेगी, इसे लेकर किसी को कोई संदेह नहीं है, लेकिन ममता बनर्जी, मायावती, नवीन पटनायक और केसीआर जैसे नेता अलग किस्म की राय रखते हैं। मायावती और ममता बनर्जी तो खुद प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार हैं। अखिलेश यादव ने कभी भी कांग्रेस के नेता को प्रधानमंत्री बनाने की बात नहीं की। वे मुलायम और मायावती के बीच में डोल रहे हैं। नवीन पटनायक राष्ट्रीय राजनीति में सक्रियता दिखाते ही नहीं हैं, लेकिन वे भाजपा और कां्रगेस से समान दूरी बनाए रखने की राजनीति करते रहे हैं। इसलिए नरेन्द्र मोदी की सरकार नहीं ही बने, इसके प्रति उनका विशेष आग्रह नहीं दिखता।
चन्द्रबाबू नायडू के उत्साह पर ममता बनर्जी ने ही नहीं, बल्कि मायावती और अखिलेश ने भी पानी फेर दिया है। ममता चुनाव नतीजे के बाद ही किसी प्रकार के वैकल्पिक सरकार की तैयारी के पक्ष में है और अखिलेश और मायावती भी यही चाहते हैं। अखिलेश की पार्टी के एक नेता ने तो कहा कि बातचीत की टेबल पर बैठे नेताओं को यह तो पता होना चाहिए कि किस नेता के पास कितने सांसद हैं। दिलचस्प बात यह है कि खुद चन्द्रबाबू नायडू की स्थिति उनके अपने प्रदेश में बहुत अच्छी नहीं है। उन्हें खुद नहीं पता है कि उनके कितने उम्मीदवार लोकसभा में जीतकर आ रहे है, पर वे अभी से सक्रिय हैं। इधर मायावती और अखिलेश को लगता है कि उनके गठबंधन के 60 से भी ज्यादा सांसद लोकसभा में होंगे, इसलिए प्रधानमंत्री पद पर उनका ही दाव बड़ा होगा। उनकी सोच है कि कांग्रेस को करीब 100 सीटें मिलेगे और यदि भाजपा विरोधी सरकार बनती है, तो 170 प्लस गैर कांग्रेसी सांसदों का नेता प्रधानमंत्री बनेगा न कि कांग्रेस का कोई नेता। इसलिए वे अभी बैठक में जाने की हड़बड़ी में नहीं हैं।
उधर कांग्रेस को बैठक से कोई समस्या नहीं है। सबसे बड़ी भाजपा विराधी पार्टी होने के कारण उसका दावा सबसे मजबूत है। हां, यदि ममता और शरद पवार जैसे नेताओं को राहुल गांधी को नेता मानने में आपत्ति हो, तो फिर मनमोहन सिंह को कांग्रेस सरकार का नेतृत्व करने की भूमिका में ला सकती है। लेकिन यह सब हो, उसके पहले नतीजे तो देख ही लिए जाने चाहिए। क्या पता राजग को अपने बूते ही समर्थन हासिल हो जाए और फिर गैर भाजपा सरकार बनाने की कवायद करने की जरूरत ही नहीं पड़े। मतदाताओं को कम करके आंकना गलत है। कौन कितनी सीटें जीतेगा, इसका आकलन करने के लिए सभी लोग स्वतंत्र हैं, लेकिन बहुत बार सारे के सारे आकलन धरे के धरे रह जाते हैं और नतीजे सबको चैंका देते हैं। 2014 के चुनाव में भी तो यही हुआ था। आखिर कितने लोग ऐसा मान रहे थे कि भारतीय जनता पार्टी अकेले लोकसभा में बहुमत हासिल कर लेगी। इसलिए नतीजे के पहले ज्यादा उत्साह दिखाने की जरूरत नहीं है। बेहतर हो, हम 23 मई का इंतजार करें। (संवाद)
चन्द्रबाबू नायडु का उत्साह
अभी हमें नतीजे का इंतजार करना चाहिए
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-05-15 09:41
अभीतक लोकसभा के चुनाव भी पूरी तरह से संपन्न नहीं हुए हैं। मतगणना 23 मई को होगी, लेकिन उसके पहले से ही चन्द्रबाबू नायडू एक गैर भाजपा सरकार बनाने के लिए उत्साह से जुट गए हैं। उन्होंने 1996 में एक कुशल राजनैतिक प्रबंधक की छवि हासिल कर ली थी। उनके कुशल प्रबंधन के कारण अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार तेरहवें दिन ही गिर गई थी। तब उन्होंने चुनाव नतीजे आते ही कुछ क्षेत्रीय दलों का एक मोर्चा बना डाला था और उस मोर्चे को भाजपा विरोधी मोर्चे में तब्दील कर दिया था। यदि नायडू ने वह मोर्चाबंदी नहीं की होती, तो अकाली दल जैसी पार्टियों का समर्थन कर भारतीय जनता पार्टी अटल सरकार को बचा भी सकती थी, लेकिन अकाली दल भी तब चन्द्रबाबू नायडू के मोर्चे में आ गया था और फिर वे सभी दल संयुक्त मोर्चा बनाकर एक मंच पर आ गए और कांग्रेस के समर्थन से देवेगौड़ा की सरकार बन गई।