वाराणसी के जिस व्यक्ति ने आत्महत्या की, उसने पहले अपनी तीन बेटियों को जहर खिलाया और फिर खुद भी जहर खाकर अपनी जान दे दी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस व्यक्ति पर बेटियों के पालन-पोषण, शिक्षा, शादी आदि जिम्मेदारियों को लेकर कितना दबाव रहा होगा। इसी के चलते उसने आसानी से बहुत सारा पैसा कमाने की ललक में आईपीएल की सट्टेबाजी का विकल्प चुना होगा। मगर वहां भी उसे नाकामी हाथ लगी और वह कर्ज में डूबता गया, स्वाभाविक रूप से निराशा और अवसाद ने उसे घेर लिया होगा और अपनी असफलता और विपन्नता से पार पाने का रास्ता उसे आत्महत्या में नजर आया होगा। इसी तरह मुरादाबाद में खुदकुशी करने वाला व्यक्ति महाराष्ट्र से चलकर किसी कारोबार की तलाश में मुरादाबाद आकर बस गया था। उसने भी इसी तरह पारिवारिक दायित्व का निर्वाह न कर पाने की स्थिति में आईपीएल की सट्टेबाजी का रास्ता चुना और अपना पैसा डूब जाने की वजह से खुदकुशी का रास्ता चुना।

वाराणसी और मुरादाबाद के इन दो लोगों ने जिस आईपीएल को अपनी उम्मीदों और सपनों का सहारा बनाया था, वह दरअसल खेल नहीं, बल्कि सट्टेबाजों, आवारा पूंजी के मालिकों, भ्रष्ट क्रिकेट प्रशासकों और मुनाफाखोर मीडिया के लिए एक ऐसा सालाना कारोबारी इवेंट है, जो तरह-तरह के छल छद्म से भरा होता है। इस इवेंट को कामयाब बनाने के लिए देश में बढती बेरोजगारों की फौज तो है ही, जो इसे खेल या मनोरंजन मानकर टीवी या मोबाइल से चिपकी रहती है। कई लोग अपना काम-धन्धा छोडकर इस बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बनकर इस या उस टीम के जीतने हारने की कामना करते हैं और उन पर सट्टे का दांव भी लगाते हैं। दुनिया भर के किक्रेट खिलाडियों की हैसियत इस कारोबार में मोहरों से ज्यादा की नहीं होती। हालांकि उन्हें भी अपनी भूमिका निभाने के लिए भरपूर पैसा मिलता है।

इस कारोबारी किक्रेट इवेंट के तहत होने वाले मुकाबलों पर अरबों रुपए का सट्टा होता है। विभिन्न टीमों के बीच होने वाले मुकाबलों का नतीजा भी अक्सर सट्टा कारोबार के सूत्रधार ही तय करते हैं, जिसे मैच फिक्सिंग कहा जाता है। कम समय में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की ललक में कई लोग इस सट्टेबाजी के जाल में फंस जाते हैं और पहले अपनी जेब का पैसा और फिर जान भी गंवा बैठते हैं। ऐसा नहीं है कि खेल की आड में होने वाले इस फरेबी कारोबार की जानकारी सरकार को न हो, लेकिन उसकी तटस्थता बताती है कि उसका भी परोक्ष संरक्षण सामाजिक तौर पर विनाशकारी इस कारोबार को प्राप्त है। यही वजह है कि सभी सरकारें अपने-अपने राज्य में इस आयोजन के लिए बिजली, पानी, पुलिस और अन्य तमाम संसाधन उदारतापूर्वक उपलब्ध कराती हैं।

बहरहाल, आईपीएल की सट्टेबाजी के जाल में उलझकर होने वाली आत्महत्या की घटनाएं यह बताती हैं कि हमारे समाज में घनघोर आर्थिक गैर बराबरी के चलते पिछले कुछ दशकों से जल्द से जल्द और गलत तरीकों से पैसा कमाने की प्रवृत्ति लोगों में तेजी से विकसित हुई है। इसके बावजूद आर्थिक विषमता की खाई को पाटने की दिशा में व्यवस्थागत चिंता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। इन दिनों परिवार का उचित तरीके से भरण-पोषण, बच्चों की पढाई- लिखाई, स्वास्थ्य, मनोरंजन, विवाह जैसी जरूरी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर पाना आम आदमी के लिए कई तरह की दुश्वारियों से भरा होता जा रहा है। खासकर शहरी जीवन में ये दुश्वारियां कभी-कभी ज्यादा ही त्रासद रूप में सामने आती हैं।

किसानों की आत्महत्या के लंबे अरसे से जारी सिलसिले से हटकर बात करें तो भी पिछले कुछ सालों के दौरान आर्थिक तंगी के चलते कर्ज का बोझ, पारिवारिक कलह, बेरोजगारी या फिर परीक्षा या प्रेम में नाकामी के चलते खुदकुशी की घटनाएं हमारे समाज में लगातार बढती गई हैं। इसे लेकर अनेक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी हो चुके हैं। मगर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि लोग मानसिक तौर पर इतने लाचार या कमजोर कैसे होते जा रहे हैं कि जीवन की चुनौतियों और समस्याओं मुकाबला करने में मामूली सी असफलता मिलने पर अपनी जान दे देने को आसान विकल्प के रूप में चुन लेते हैं? सवाल यह भी है कि आखिर हमारा समाज भी इतना आत्मकेंद्रित और निष्ठुर कैसे हो गया है कि वह ऐसे लोगों को किसी तरह का सहारा नहीं दे पाता?

ये वे सवाल हैं, जो हमारे सामाजिक विमर्श में अक्सर सतह पर आते रहते हैं और फिलहाल आईपीएल क्रिकेट के सट्टे में भारी नुकसान उठाने के बाद दो लोगों की खुदकुशी के बाद एक बार फिर सतह पर तैर रहे हैं। आत्महत्या की इसी तरह की और भी खबरें आए दिन मिलती रहती हैं, जो अलग-अलग कारणों के चलते होती हैं। दरअसल ऐसी त्रासद घटनाओं के पीछे बडी वजह बढता शहरी दबाव है। बहुत सारे लोग सुदूर गांवों, कस्बों और छोटी जगहों से पलायन कर बडे शहरों या महानगरों में इस उम्मीद के साथ जाते हैं कि वे वहां जीवन यापन के लिए कोई बेहतर साधन तलाश लेंगे, लेकिन जब ऐसा करने में नाकाम रहते हैं तो निराशा और अवसाद के शिकार हो जाते हैं और मौत को गले लगा लेते हैं।

कई समाजशास्त्रीय अध्ययन बताते हैं कि आर्थिक तंगी के चलते खुदकुशी की जितनी भी घटनाएं होती हैं, उनमें आमतौर पर परिवार के भरण-पोषण के लिए संघर्ष कर रहे लोग होते हैं। उन्हें परिवार की बुनियादी जरुरतों को पूरा करने के लिए काफी मशक्कत करनी पडती हैं और कई दुश्वारियों का सामना करना पडता है। यही वजह है कि खुदकुशी की ज्यादातर घटनाएं सीमांत किसानों, छोटे और मझौले व्यापारियों में अधिक दिखाई देती हैं। किसानों की आत्महत्या को लेकर तो खेती में सुविधाएं बढाने की बातें और दावें हमारी सरकारें खूब करती हैं, लेकिन छोटे-बडे शहरों में रोजमर्रा की जरूरतों के लिए संघर्ष करने वाले लोगों के लिए जीवन संबंधी सुरक्षा के किसी व्यावहारिक उपाय पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया जाता। (संवाद)