लेकिन जिसने लोगों के नब्ज को समझा हो, उसे इस नतीजे पर आश्चर्य नहीं हो सकता। यह सच है कि 2014 की तरह इस बार मोदी लहर नहीं थी, लेकिन मोदी के पक्ष में बह रही अंडर करंट को महसूस किया जा सकता था। मतदाता शांत थे, लेकिन कुरेदने पर यह पता चलता था कि वे मोदी के पक्ष में हैं। वैसे जो भाजपा के कार्यकत्र्ता थे, वे तो मुखर थे ही, लेकिन आम आदमी मुखर नहीं था, लेकिन उनमें से अधिकांश ने मोदी को वोट देने का मन बना लिया था। उस अंडर करंट के कारण ही भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राजग को बहुत बड़ा बहुमत मिला है। और जो ईवीएम का रोना रो रहे हैं, वे जनादेश का अपमान कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश और बिहार को लेकर भाजपा विरोधी ज्यादा आश्वस्त थे। उन्हें लग रहा था कि इन दोनों में जो महागठबंधन बने हैं, वे भाजपा के दिल्ली का रास्ता रोक देंगे, लेकिन इन दोनों राज्यों में भी भाजपा को जबर्दस्त सफलता मिली। बिहार में तो पिछली सफलता का रिकार्ड भी टूट गया और उत्तर प्रदेश में माया, अखिलेश और अजित सिंह की मिली जुली ताकत भी भाजपा के सामने दम तोड़ती दिखाई दी। इन दोनो राज्यो की बात करें, तो यहां वंचित समाज ने मौन क्रांति कर दी है। लोग समझ रहे थे कि यादव, जाटव, जाट और मुस्लिम मिलकर महागठबंधन को भारी सफलता दिलाएंगे, लेकिन वे भूल गए कि इनका सम्मिमिल योगदान उत्तर प्रदेश की कुल आबादी में 40 फीसदी ही है और शेष 60 फीसदी मतदाता और भी हैं, जिन्हें भी मतदान का अधिकार प्राप्त है और उनके एक मत की ताकत भी उतनी ही होती है, जितनी ताकत मुलायम, माया और अजित सिंह की जाति के एक मतदाता की होती है।

कभी उत्तर प्रदेश में मुलायम और माया के साथ ओबीसी व दलित का वंचित समाज हुआ करता था, लेकिन माया, मुलायम और बाद में अखिलेश ने उनके समर्थन को इज्जत नहीं दिया। वे वंचित समाज के वोटों से जीतते रहे, लेकिन सरकार चलाने मे तवज्जो सिर्फ अपनी जाति और मुस्लिम समुदाय को देते रहे। वंचित समाज के लोग कभी माया के पक्ष में तो कभी मुलायम के पक्ष में वोट डालते थे। 2009 में तो उन्होंने कांग्रेस के पक्ष में भी वोट डाला, लेकिन उनके वोटों की गिनती ही कभी नहीं हुई। सरकार चलाते हुए न तो कांग्रेस ने और न ही माया- अखिलेश ने उनको कभी तवज्जो दिया। वे 2014 में मोदी की तरफ झुके। 2017 में भी उनका मोदी प्रेम बना रहा। वे मोदी को समर्थन देकर माया और अखिलेश को जो संकेत दे रहे थे, उन संकेतों को समझने से भी उन्होंने इनकार कर दिया और पहले की तरह ही जातिवादी, वंशवादी और टिकट बेचने की राजनीति में लगे रहे।

माया और अखिलेश के एक साथ आने के कारण प्रदेश का वंचित समाज, जो मुख्य रूप से दलित और ओबीसी हैं, भयभीत भी हो गए, क्योंकि माया राज में वंचित ओबीसी को हरिजन एक्ट के कारण बुरे दिन देखने पड़ते थे और अखिलेश राज में तो एक जाति विशेष के लोग ही थानों में थानेदार हुआ करते थे। अपराधियों के खिलाफ अनेक बार वे मुकदमे भी दर्ज नहीं करा सकते थे। अखिलेश और मायावती के एक साथ आ जाने के कारण उनका डर और बढ़ा और वे भाजपा के पक्ष में गोलबंद हो गए। माया और अखिलेश को लगा कि मोदी के ओबीसी होने कारण वे उनके साथ है, इसलिए मोदी की तेली जाति को ही वे फर्जी ओबीसी कहने लगे, जबकि उनका मोदी प्रेम उनके असुरक्षा बोध का परिणाम था। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा और उसके समर्थक दलों को मिले वोट 2014 और 2017 के चुनाव में मिले वोटों से भी ज्यादा हो गए और गठबंधन को मिले वोट बढ़ने के बावजूद कम पड़ गए।

बिहार में भी वही हाल है। सच कहा जाय तो वहां के वंचित समाज न केवल लालू को नापसंद करता है, बल्कि उनसे नफरत भी करता है। इसका कारण यह है कि वंचित समाज के मतों से ही लालू सत्ता में आते थे, लेकिन सत्ता में आने के बाद वे सरकार एमवाय( मुस्लिम यादव) समीकरण से चलाते थे। वे अपनी जीत का श्रेय भी इसी समीकरण को देते थे, जबकि सच्चाई यह थी कि वे ओबीसी के वंचित समाज के वोटों से जीतते थे। उस समाज के लोगों को वह पचपौनिया कहकर हिकारत की दृष्टि से देखते थे। वे पचपौनिए पहले नीतीश और फिर मोदी के साथ हो लिए। इस चुनाव में तो मोदी और नीतीश एक ही साथ हैं, इसलिए कथित पचपौनिए, जिनके वोट मुस्लिम और यादव के सम्मिलित वोट से भी ज्यादा है, मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा के साथ हैं। उनके समर्थन के बाद तो फिर वहां के महागठबंधन का बेड़ा तो गर्क होना ही था। और वही हुआ। सच तो यह है कि लालू की राजनैतिक मौत 2014 के लोकसभा चुनाव में ही हो चुकी थी। नीतीश कुमार से मिलकर ओबीसी एकीकरण के द्वारा वे 2015 में अपने दोनों बेटों को राजनीति में स्थापित करने में सफल रहे। लेकिन नीतीश के हटते के साथ ही अपने माय समीकरण के साथ उनका परिवार एक बार फिर राजनैतिक हाशिए पर चला गया है। (संवाद)