आखिर लालू की लालटेन बिहार में डूबी क्यों? इस तरह के प्रदर्शन की उम्मीद तो लालू के अधिकांश विरोधी भी नहीं कर रहे थे। 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू के राजद को 80 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और वह बिहार विधानसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरा था। वह अभी भी बिहार विधानसभा मे सबसे बड़ा दल है। लेकिन लोकसभा चुनाव में उसके हाथ सिर्फ शून्य हाथ लगा। 1997 में गठन के बाद ऐसा मौका कभी नहीं आया कि लोकसभा में राजद का सदस्य हो ही नहीं। पिछली लोकसभा में बहुजन समाज पार्टी का कोई सदस्य नहीं था, तो इस लोकसभा में राष्ट्रीय जनता दल का कोइ्र्र सदस्य नहीं होगा।

लालू यादव एक समय पिछड़े, दलितों और गरीबों के मसीहा हुआ करते थे। उनके नाम का मंदिर बनने लगा था और उनकी पूजा भी होने लगी थी। किसी ने लालू चालीसा लिखा था और कुछ लोग लालू चालीसा का पाठ भी करने लगे थे। लेकिन वे अपनी लोकप्रियता को बरकरार न रख सके और धीरे धीरे अपनी जाति के दायरे में ही सिमटते गए। पता नहीं किसने उन्हें समझा दिया कि चुनावों में वे भारी जीत मुस्लिम यादव गठबंधन के कारण जीतते हैं। अपनी इस समझ के आधार पर सिर्फ यादवों और मुस्लिमों की राजनीति करने लग गए। राज्यसभा का चुनाव हो या विधानपरिषद की, मुस्लिम और यादव को नामित करना उन्होंने हमेशा आवश्यक समझा। मुस्लिम यादव के बीच एकता करना गलत नहीं था। इसके सामाजिक फायदे थे। इस एकता के कारण सांप्रदायिक दंगों के लिए कुख्यात बिहार में हिन्दू मुस्लिम दंगों की घटनाएं काफी कम हो गईं। इसका कारण यह है कि बिहार में 10 में 8 हिन्दु मुस्लिम दंगे यादवों और मुसलमानों के बीच ही हुआ करते थे।

लेकिन लालू यादव ने मुस्लिम यादव के समीकरण में अतिविश्वास के कारण ओबीसी की अन्य जातियों की घोर उपेक्षा शुरू कर दी। इसके कारण ही नीतीश कुमार 1994 में उनसे अलग हो गए थे। अन्य ओबीसी जातियों को लालू सत्ता संरचना में देखना ही नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने मुस्लिम यादव के साथ राजपूतों का समीकरण बनाना चाहा। उन्होंने वैशाली उपचुनाव में नारा दिया था, ‘ एमवाई हो गया एलवाईआर, मिलकर लेंगे सारा बिहार’। लेकिन उस उपचुनाव में जीत आनंद मोहन की पत्नी लवली सिंह की हुई और लालू की राजपूत उम्मीदवार किशोरी सिंह हार गई। किशोरी सिंह इस तथ्य के बावजूद हारीं कि वह बिहार की सबसे प्रतिष्ठित राजपूत परिवार की थीं। मुस्लिम यादव और राजपूत समीकरण की विफलता के बाद लालू ने उस प्रयास को कुछ समय तक स्थगित कर दिया और 1995 की अपने सबसे बड़ी जीत दर्ज की। लेकिन प्रशासन में वे एमवाई की नीति से ही सरकार चलाते रहे और धीरे धीरे ओबीसी उनका त्यागते गए।

उसके कारण ही नीतीश कुमार का राजनैतिक उदय हुआ। नीतीश ने भाजपा के समर्थन से चुनाव जीता। केन्द्र में मंत्री रहे। बिहार मे मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपनी स्थिति मजबूत कर ली। जहां लालू सिर्फ अपनी जाति तक सीमित हो गए थे, वहीं नीतीश कुमार ने समाज के सभी वर्गो में अपनी जगह बनाई। अत्यंत पिछड़े वर्गो को स्थानीय निकायों में आरक्षण दिया और उस सूची मे कुछ अन्य जातियों को डालकर अपनी स्थिति मजबूत कर ली। पर उनकी समस्या थी कि अति पिछड़े उतने संगठित नहीं थे, जितने संगठित यादव थे। इसलिए वह अकेले चुनावी रूप से सफल नहीं हो सकते थे। पर भाजपा के साथ मिलकर 2010 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने 82 फीसदी सीटों पर जीत हासिल कर ली थी। लालू के दल को मात्र 22 सीटें मिली थीं। 2014 में नीतीश बीजेपी से अलग होकर लड़े और मोदी के ओबीसी होने के कारण उनके समर्थक ओबीसी का एक वर्ग बीजेपी की तरफ चला गया और उनकी हार हो गई। पर 2015 के चुनाव में लालू के साथ गठबंधन कर उन्होंने फिर एक बड़ी कामयाबी हासिल की। उस चुनाव में लालू और नीतीश के मिल जाने के कारण ओबीसी मतदाताओं का महागठबंधन हो गया था। उसके कारण ही लालू को 8 विधानसभा सीटें मिल गईं। वह नीतीश के कारण ही संभव हो पाया था। लेकिन लालू ने गलती से उसे अपनी जीत मान ली। उन्हें लगा कि उनके कारण नीतीश एक बार और मुख्यमंत्री बने हैं, जबकि सच्चाई यह थी कि यदि नीतीश ने बीजेपी का साथ नहीं छोड़ा होता और उसके साथ 2014 और 2015 का चुनाव लड़ा होता, तो लालू की पार्टी लोकसभा में एक भी सीट नहीं जीत पाती और विधानसभा में भी 10 से ज्यादा सीटों पर जीत हासिल नहीं कर पाती।

2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश और बीजेपी फिर एक साथ थे। इसमें रामविलास पासवान भी शामिल थे। फिर 2010 को तो दुहराया जाना ही था। चूंकि ओबीसी में लालू का जनाधार सिर्फ यादवों तक सीमित रह गया है और मुस्लिम भी भाजपा विरोध में उनके साथ आ जाते हैं, तो जो भी वोट लालू को मिलना था, इन्हीं दो समुदायांे से ही मिलना था। ओबीसी के आधार का विस्तार करते हुए लालू ने उपेन्द्र कुशवाहा और किसी निषाद नेता से समीकरण भिड़ाया, लेकिन ये दोनों खुद अपने जाति के स्थापित नेता नहीं रहे हैं। इसलिए इसका लालू को कोई फायदा नहीं हुआ। कांग्रेस के पास भी कोई जनाधार नहीं है, इसलिए वह भी लालू के एमवाई आधार पर निर्भर थी। इसके कारण न केवल लालू डूबे, बल्कि उनकी नाव पर जो भी चढ़ा वह भी डूबा। (संवाद)