यह सच है कि मायावती की जाति प्रदेश की सबसे अधिक आबादी वाली जाती है। वह पूरे प्रदेश की आबादी की 12 फीसदी है। अखिलेश की जाति पूरे प्रदेश की आबादी की 8 फीसदी है। इन दोनों के साथ प्रदेश की मुस्लिम आबादी को जोड़ दिया जाय, तो करीब 19 फीसदी है, तो तीनों मिलकर 39 फीसदी हो जाते हैं। अजित सिंह के जाट की एक फीसदी आबादी मिलाकर कुल 40 फीसदी होते हैं। अब इसी 40 फीसदी आबादी से उत्तर प्रदेश के कथित गठबंधन को मत प्राप्त करने थे। यदि मुकाबला तीन तरफा हो, तो 40 फीसदी मतों से भारी जीत दर्ज की जा सकती है, लेकिन जब मुकाबला सीधा हो, तो फिर 40 फीसदी मत कोई खास मायने नहीं रखते। यही इस बार उत्तर प्रदेश में हुआ।

पिछली बार नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए को करीब 43 फीसदी वोट मिले थे। माया और अखिलेश के सम्मिमित मत कुछ ज्यादा थे, लेकिन तब अखिलेश यादव की वहां सरकार थी और सरकार होने का कुछ न कुछ फायदा तो होता ही है। इसके अलावा माया और अखिलेश के एक साथ आने के कारण इन दोनों की जातियों के बाहर के लोग भयभीत भी हो गए। इन दोनों के 5-5 साल के शासन के दौरान उत्तर प्रदेश के लोग अलग अलग कारणों से उत्पीड़ित हुए थे। माया राज में हरिजन एक्ट के तहत झूठे मुकदमो का बोलबाला था। इस एक्ट का डर दिखाकर समाज के कमजोर वर्गों के लोगों से उगाही भी की जाती थी। इसलिए हताश होकर कमजोर वर्गो के लोगों ने मुलायम की समाजवादी पार्टी को वोट देकर सत्ता में बैठा दिया था। इन कमजोर वर्गो के लोगों मे ज्यादातर ओबीसी ही थे।

लेकिन अखिलेश सरकार में पुलिस थानों पर यादव जाति का कब्जा हो गया। लगभग सारे थानों के थानेदार यादव जाति के ही दिखाई पड़ते थे। हालांकि कुछ मामले ऐसे थे जिसमें अन्य जातियों के लोगों ने भी अपना सरनेम अदालत से बदलवाकर यादव लगा लिया था ताकि सत्ता प्रतिष्ठान में उनको तवज्जो मिले। सच्चाई जो भी हो, पूरे प्रदेश में यह संदेश गया कि सभी थानों पर एक जाति विशेष का कब्जा है और उस जाति के व्यक्ति ने यदि कोई अपराध किया हो, तो उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराना आसान नहीं। यही कारण है कि 2014 और 2017 मे हुए चुनावों में अखिलेश की समाजवादी पार्टी की भी दुर्गति हो गई और कमजोर ओबीसी का बहुत बड़ा तबका मोदी के नाम पर भारतीय जनता पार्टी का मतदाता बन गया।

2019 के पहले मायावती और अखिलेश यादव के बीच हुए गठबंधन से समाज का कमजोर तबका और भी भयभीत हो गए। दोनों के शासनकाल मे अलग अलग कारणों से जो प्रताड़ित हुए थे और दोनों के एक साथ आने के कारण दोहरा प्रताड़ित होने का खतरा उन पर मंडराने लगा और वे मोदी के नाम पर 2014 और 2017 के मुकाबले ज्यादा मोदी समर्थक हो गए। यही कारण है कि इस बार भारतीय जनता पार्टी को मिले मतों का प्रतिशत 2014 और 2017 से भी ज्यादा हो गया। माया और अखिलेश के गठबंधन को 37 फीसदी मत मिले, जो उनके सम्मिलित सामाजिक आधार के 40 फीसदी से थोड़े ही कम हैं। मुस्लिम मतदाता कांग्रेस और कुछ अन्य उम्मीदवारों की ओर भी बढ़े, लेकिन माया और अखिलेश की जातियों का एकमुश्त वोट इस तथाकथित महागठबंधन को मिला। लेकिन शेष 60 फीसदी आबादी का 80 फीसदी से भी ज्यादा मोदी के पीछे लामबंद हो गया। उसमें भाजपा का परंपरागत आधार भी शामिल था और माया और अखिलेश से भयभीत ओबीसी और दलित जातियों के लोग भी थे।

जब माया और अखिलेश को यह अहसास हुआ के कमजोर वर्ग के ये लोग मोदी का नाम लेकर भाजपा को वोट दे रहे हैं, तो उन्होंने मोदी के बारे में झूठा बयान देना शुरू कर दिया कि वे फर्जी ओबीसी हैं, जबकि सच्चाई यह है कि मोदी वास्तव में एक अति पिछड़ी जाति जिसे उत्तर प्रदेश में तेली और गुजरात में घांची कहा जाता है, से हैं। मोदी को फर्जी ओबीसी कहकर माया और अखिलेश ने अपनी ही हंसी उड़ाई, क्योंकि उत्तर प्रदेश के लोगों को पता चल गया था कि मोदीजी तेली हैं और तेली फर्जी ओबीसी नहीं होता। जाति व्यवस्था में उस जाति का सामाजिक स्तर क्या रहा है, यह सबको पता है।

मायावती का साथ लेकर अखिलेश ने गलती कर दी। माया उत्तर प्रदेश की 21 फीसदी दलित आबादी की नेता अब नहीं रही, बल्कि वह सिर्फ 12 फीसदी जाटव/चर्मकार जाति की नेता हैं और उनकी जाति के बाहर के दलित अब उन्हें उसी तरह नकार चुके हैं, जिस तरह अखिलेश और मुलायम को उनकी जाति के बाहर के ओबीसी। अखिलेश को सभी सीटों पर लड़कर गैर चर्मकार दलितों और गैर यादव ओबीसी को ज्यादा से ज्यादा टिकट देना चाहिए था। यदि उनकी पार्टी मंे इन तबकों के उम्मीदवार नहीं थे, तो उन्हें ढूंढ़कर लाना चाहिए था और दलित व ओबीसी में अपना जनाधार बढ़ाना चाहिए था। तभी वे बेहतर प्रदर्शन कर सकते थे, लेकिन जाति और सांप्रदायिक समीकरण बनाने के शाॅर्टकट के चक्कर में अखिलेश ने इस मौके को भी गंवा दिया और उनकी पार्टी को पिछले दो चुनावों की तरह ही भारी हार का सामना करना पड़ा।(संवाद)