अखिलेश की बीवी डिंपल सिंह भी चुनाव हार गईं। उनके दो चचेरे भाई भी चुनाव हार गए। मायावती ने उन तीनों हारों की नमक पर मिर्च रगड़ते हुए कहा कि जो अखिलेश अपनी बीवी और भाइयों को चुनाव नहीं जिता सकते, वे उनके किस काम के हैं। इसलिए उन्होंने समाजवादी पार्टी से अपना नाता तोड़ डाला है। अगर वे नाता तोड़ने का फैसला साफ साफ सुना देतीं, तब भी गनीमत थी। मायावती ने तो नाता तोड़ने समय भी अखिलेश को उनकी हैसियत दिखाते हुए कहा कि उनका यह ब्रेकअप अभी कुछ समय के लिए ही है और यदि उन्होंने ( अखिलेश ने) अपनी पार्टी में सुधार कर लिया, तो वह फिर गठबंधन कर सकती हैं।

सवाल उठता है कि अखिलेश की पार्टी में मायावती क्या सुधार चाहती हैं? क्या समाजवादी पार्टी के संगठन में बदलाव अपने तरीके से चाहती हैं या यह चाहती हैं कि शिवपाल यादव को दुबारा सपा में प्रतिष्ठापित किया जाय? जाहिर है सुधार के बाद सपा से गठबंधन की बात करके मायावती अखिलेश यादव को नीचा दिखा रही हैं। यानी मायावती ने समाजवादी पार्टी का साथ ही नहीं छोड़ा, बल्कि उसे नीचा दिखाते हुए साथ छोड़ा है।

मायावती अखिलेश को डिंपल की हार की याद दिला रही हैं, लेकिन वह खुद इस बात को भूल रही हैं कि हार के डर से उन्होंने खुद लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा। वह राज्यसभा की सदस्य थीं। कार्यकाल समाप्त होने के कुछ महीने पहले उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। उसके बाद उनके पास इतनी सदस्य संख्या नहीं थी कि वह अपनी पार्टी के बूते राज्यसभा में दुबारा आतीं। इसलिए वे संसद से बाहर हैं। लोकसभा चुनाव ने उन्हें फिर से संसद में जाने का एक अवसर दिया था और संयोग से समाजवादी पार्टी से उनकी पार्टी का गठबंधन हो गया था और उनकी जीत की संभावना भी बढ़ गई थी। लेकिन हार के डर के कारण वे चुनाव ही नहीं लड़ीं। और चुनाव लड़कर हारने वाली डिंपल का उल्लेख कर अखिलेश को नीचा दिखा रही हैं।

सच तो यह है कि मायावती का इतिहास ही धोखा देने का इतिहास रहा है। सबसे पहले उन्होंने 1995 में अखिलेश के पिता मुलायम सिंह को धोखा दिया था। उनकी सहायता से बसपा को 67 सीटें मिली थीं। उसके पहले वह 12 या 13 सीटों तक ही सीमित रह जाती थी। 67 सीटें जीतकर कुछ समय के बाद वह भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बन गईं। हालांकि बाद में उसे भी धोखा दिया। तीन बार वह भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं और तीनों बार उन्होंने भाजपा को धोखा दिया।

इसलिए अखिलेश के साथ मायावती ने जो बर्ताव किया है, वह बिल्कुल उनके स्वभाव के अनुकूल है। वे कहती हैं कि सपा के साथ गठबंधन से उनको नुकसान हुआ है। इससे बेतुकी बात और कुछ हो नहीं सकती। 2014 के लोकसभा चुनाव वह अकेली लड़ रही थीं। तब उनको एक भी सीट नहीं मिली थी। इस बार 10 सीटें मिल गई। हां, समाजवादी पार्टी को इस गठबंधन से कोई लाभ नहीं हुआ। बिना गठबंधन के पिछले चुनाव में उसे 5 सीटें मिली थीं और इस बार भी उन्हें 5 सीटें ही मिली हैं। संख्या के लिहाज से भले सपा ने 2014 के आंकड़े को छू लिया है, लेकिन मुलायम परिवार के तीन सदस्यों की हार निश्चय ही उसके लिए बहुत बड़ा नुकसान है।

मायावती कह रही हैं कि सपा का वोट आधार उसकी पार्टी में ट्रांसफर नहीं हुआ और सपा के लोग कह रहे हैं कि बसपा का को वोट उनके उम्मीदवारों को ट्रांसफर नहीं हुए, जबकि आंकड़े बता रहे हैं कि दोनो के आधार वोट एक दूसरे को ट्रांसफर हुए थे। तभी तो गठबंधन को वहां सवा 37 फीसदी से ज्यादा वोट आए। लेकिन एनडीए के वोट 49 फीसदी थे, जो 37 फीसदी से बहुत ज्यादा थे। इसके कारण ही गठबंधन को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। गठबंधन के आधार वोट वहां यादव, चर्मकार और मुस्लिम थे। तीनों मिलाकर उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 40 फीसदी होता है। गठबंधन को वहीं से वोट मिलना था और उसे करीब साढ़े 37 फीसदी वोट मिले।

इससे यह स्पष्ट है कि वोटों का ट्रांसफर अच्छी तरह हुआ। अब यह माया और अखिलेश की गलती थी कि अपने आधार वोट को लेकर उनको भ्रम था। अखिलेश समझ रहे थे कि बुआ जी के पास दलितों के 22 फीसदी मत हैं, जबकि आज वह सिर्फ अपनी जाति की नेता हैं। वे उसी तरह अब दलित नेता नहीं रही, जिस तरह अखिलेश ओबीसी नेता नहीं हैं। मायावती जाटव नेता हैं और अखिलेश यादव नेता और दोनों की जातियों की कुल संख्या उत्तर प्रदेश में 20 फीसदी है। वहां 19 फीसदी मुस्लिम हैं और एक फीसदी जाट। कुल मिलाकर हुए 40 फीसदी और उनमें से 37 फीसदी वोट आ जाना बड़ी बात है।

उत्तर प्रदेश मंे 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं। 9 भाजपा, 1 सपा और 1 बसपा विधायक सांसद बन गए हैं। उसके कारण खाली सीटों पर उपचुनाव होंगे और सपा व बसपा एक दूसरे के आमने सामने होगी। चुनाव तिनतरफा होंगे और भाजपा को हराने से ज्यादा सपा और बसपा की दिलचस्पी एक दूसरे पर भारी पड़ने की होगी। मायावती की पार्टी उपचुनाव नहीं लड़ा करती थी। इसलिए अखिलेश को लग रहा था कि उनकी पार्टी अकेली सभी सीटों पर लड़ेगी और बुआजी की पार्टी उनको समर्थन देंगी। लेकिन वैसा नहीं होगा, क्योंकि उत्तर प्रदेश का गठबंधन अखिलेश के लिए ठगबंधन साबित हो चुका है।(संवाद)