चुनाव नतीजों की समीक्षा के लिए दिल्ली में बुलाई गई अपनी पार्टी के नेताओं की बैठक के बाद मायावती ने चुनाव में गठबंधन की हार का पूरा ठीकरा सपा के माथे पर फोडते हुए कहा कि वह अपना मूल जनाधार खो चुकी है, इसी वजह से वह न तो अपनी परंपरागत सीटें जीत पाई और न ही बसपा उम्मीदवारों को अपना वोट दिला पाई। यह कहते हुए मायावती ने ऐलान किया है कि उनकी पार्टी का सपा के साथ गठबंधन फिलहाल श्स्थगित’ रहेगा और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव जब भी अपनी पार्टी की कमियों को दूर कर लेंगे, यह गठबंधन फिर काम करने लगेगा।

आमतौर पर राजनीति में दो या दो से अधिक दलों के बीच गठबंधन होने या टूटने की घटनाएं तो आम हैं लेकिन बसपा सुप्रीमो ने गठबंधन की राजनीति में ‘स्थगित गठबंधन’ के रूप में एक नई शब्दावली ईजाद की है। मायावती इस शब्दावली की चाहे जो व्याख्या करे, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इसका अर्थ यही है कि सपा के साथ उनकी पार्टी का गठबंधन फिलहाल समाप्त हो गया है। खुद अखिलेश यादव भी ऐसा ही मान रहे हैं।

चुनाव में गठबंधन को मिली शिकस्त को लेकर जो तोहमत मायावती ने अखिलेश यादव और उनकी पार्टी पर लगाई, वही तोहमत उन्होंने गठबंधन के एक अन्य साझेदार राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के नेता चैधरी अजित सिंह पर भी जडी और कहा कि वे भी अपना आधार वोट बसपा को दिलाने में नाकाम रहे। यह कहकर उन्होंने सीधे तौर पर साफ कर दिया कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 10 सीटों पर बसपा को मिली जीत में सपा और रालोद का कोई योगदान नहीं रहा। गौरतलब है कि 2014 का लोकसभा चुनाव बसपा अकेले लडी थी, जिसमें उसका खाता भी नहीं खुल पाया था।

दरअसल मायावती पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से ही अपने राजनीतिक जीवन के बेहद चुनौती भरे दौर से गुजर रही है। पिछली लोकसभा में उनकी पार्टी प्रतिनिधित्वविहीन थी और उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भी उनकी पार्टी महज 19 सीटें ही जीत सकी थी। अन्य राज्यों की विधानसभाओं में भी बसपा का प्रतिनिधित्व लगातार कम होता गया और प्राप्त वोटों के प्रतिशत में भी गिरावट आई, जिसके चलते उसकी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी की मान्यता खत्म होने वाला है। इसलिए कुल मिलाकर 2019 का लोकसभा चुनाव मायावती के राजनीतिक जीवन का सबसे निर्णायक चुनाव रहने वाला था। उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को मिलने वाली सीटों पर ही उनका और उनकी पार्टी का राजनीतिक भविष्य टिका था। यही वजह है कि उन्होंने सपा से गठबंधन करते हुए उससे अपनी ढाई दशक पुरानी अदावत और अपने साथ हुए लखनऊ के कुख्यात गेस्ट हाउस कांड की कसैली यादों को भी भुला दिया था।

हालांकि इस गठबंधन को लेकर सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव खुश नहीं थे, लेकिन अखिलेश गठबंधन की सफलता को लेकर इतने अधिक आशान्वित थे कि उन्होंने अपने पिता की असहमति को भी नजरअंदाज कर दिया। दरअसल, गठबंधन का फैसला करते वक्त मायावती और अखिलेश के बीच यह सहमति भी बनी थी कि चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में मायावती का और बसपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में अखिलेश का समर्थन करेगी। अखिलेश तो इस गठबंधन में कांग्रेस को भी शामिल करना चाहते थे, लेकिन मायावती के दबाव में उन्हें अपना यह आग्रह छोडना पडा था।

कहा जाता है कि इस गठबंधन से कांग्रेस को अलग रखने का फैसला मायावती और भाजपा नेतृत्व के बीच बनी आपसी समझदारी का नतीजा था। इसी समझदारी के चलते चुनाव अभियान के दौरान मायावती ने अपने भाषणों और बयानों में भाजपा से ज्यादा कांग्रेस को ही अपने निशाने पर रखा। यहां तक कि जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी पार्टी की ओर से ‘न्यूनतम आमदनी गारंटी’ योजना प्रस्तुत की थी तो उस पर भी भाजपा से ज्यादा तीखी प्रतिक्रिया मायावती ने जताई थी। हालांकि अखिलेश ने राहुल की इस योजना पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी लेकिन मायावती को लग रहा था कि राहुल की इस योजना से उनका दलित जनाधार प्रभावित हो सकता है, लिहाजा उन्होंने राहुल पर निशाना साधते हुए इस योजना की खिल्ली उडाने में देरी नहीं की थी। उन्होंने अपने जनाधार वर्ग को सचेत किया था कि वह किसी तरह की झांसेबाजी या लालच में न फंसे। सक्रिय राजनीति में प्रियंका गांधी की एंट्री पर भी जहां अखिलेश ने बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया देते हुए राजनीति में उनके उतरने का स्वागत किया था, वहीं मायावती ने तीखी प्रतिक्रिया जताई थी।

लोकसभा चुनाव के पहले से लेकर अभी तक की मायावती की राजनीतिक पैंतरेबाजी पर जाने-माने दलित चिंतक और साहित्यकार कंवल भारती कहते हैं, ‘मायावती की ही नहीं, बल्कि कांसीराम की भी समूची राजनीति भाजपा को ताकत देने वाली रही है। उनके आंदोलन की रूपरेखा भी आरएसएस ने ही तैयार की थी और उन्हें आर्थिक मदद भी संघ ने उपलब्ध कराई थी। मकसद था कांग्रेस और वामपंथी दलों से बहुजन वर्ग को अलग करना। मायावती जो कुछ कर रही हैं, उसमें नया कुछ नहीं है बल्कि वे कांसीराम के रास्ते पर ही चल रही हैं।’

कंवल भारती की राय अपनी जगह है, लेकिन यह तो हकीकत है कि बसपा और भाजपा को कभी भी एक दूसरे से परहेज नहीं रहा। उत्तर प्रदेश में तीन मर्तबा भाजपा के समर्थन से मायावती का मुख्यमंत्री बनना इस बात का प्रमाण है। यह और बात है कि तीनों मर्तबा समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिराने का श्रेय भी भाजपा के ही खाते में दर्ज है। मायावती ने भी मौके-मौके पर भाजपा का समर्थन करने से परहेज नहीं बरता। (संवाद)