शुक्रवार, 11 मई, 2007
दिल्ली का संकट : कुप्रशासन या बाहरी लोग
मुख्य मंत्री शीला ने माफी मांगी, लेकिन...
ज्ञान पाठक
दिल्ली की बदहाली के लिए बाहर से आने वाले लोगों, विशेषकर बिहार और उत्तर प्रदेश से, को दोषी ठहराने वाले अपने बयान पर मुख्य मंत्री शीला दीक्षित ने माफी मांग ली, लेकिन इससे मूल मुद्दा खत्म नहीं होता। लोक सभा में उनके बयान पर हंगामा होने और सदन में उन्हें तलब किये जाने के बाद उनके पास माफी मांगने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था, लेकिन दिल्ली की बदहाली के लिए उनकी सरकार को माफ नहीं किया जा सकता।
आखिर बदहाली के लिए दोष किसका है ? इस सवाल के जवाब में स्वयं केन्द्र की सरकार को समर्थन देने वाले वाम पक्ष के एक नेता गुरुदास दासगुप्ता ने पूरा दोष केन्द्र की सरकार की गलत आर्थिक नीतियों का बताया और सवाल किया कि यदि अन्य राज्यों में रोजगार नहीं हैं तो इसके लिए दोषी कौन है? श्री दासगुप्ता ने सही कहा। बाहर देश भर से लोग रोजगार की तलाश में दिल्ली आते हैं और यहां शोषण से लेकर आमानवीय स्थितियों में जीवन जीने को मजबूर हो रहे हैं। इस यंत्रणा को गले लगाना उनके लिए आत्महत्या करने या भूखों मरने से बेहतर होता है। बस इतनी सी ही बात है, अन्यथा लोग नहीं आते। दिल्ली अपराध की राजधानी बन गयी है। पीड़ा और संत्रास आम आदमी की नियति है। यहां के निवासियों के इस दर्द के लिए यहां की शासन व्यवस्था जिम्मेदार है जो लोगों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रही है कि सारी समस्याएं बाहर के लोगों के यहां आने के कारण है।
यहां सिर्फ मुख्य मंत्री शीला दीक्षित, जो लगातार दूसरी बार कांग्रेस सरकार का नेतृत्व कर रही हैं, के क्रियाकलापों तक ही चर्चा को सीमित रखना उचित होगा ताकि यह पता चल सके कि दिल्ली की दुर्दशा के लिए वह स्वयं कितनी जिम्मेदार हैं।
चंद वर्ष पहले 2001 में, जिस समय उनकी ही सरकार थी, इस राज्य में कुल लगभग 34 लाख घर थे। उनमें लगभग ढाई लाख घर ग्रामीण क्षेत्रों में थे। लेकिन पौने चार लाख से ज्यादा घर खाली थे और उनमें रहने वाला कोई नहीं था। यह सब जनगणना रपट में है। यहां के गांव उजड़ते चले गये। एक दशक पहले ही 10 प्रति शत गांव थे जो सात प्रति शत रह गये हैं। ध्यान रहे ये गांव के लोग ही यहां के मूल निवासी थे, और स्वयं शीला दीक्षित बाहर से आकर शहर की हो गयीं और उनकी नीतियां स्वाभाविक तौर पर ग्रम्य विरोधी हो गयीं। यदि इन गांवों का दुख-दर्द देखा जाये तो इसकी पूरी जिम्मेदारी सरकार को ही लेनी पड़ेगी क्योंकि नीतियां ही गांवों और ग्रामीणों के प्रति पूर्वाग्रहपूर्ण रही हैं। फिर इस सवाल को भी नीतियों से ही लेना देना है कि जिस राज्य में पौने चार लाख से ज्यादा घर खाली पड़े हों उस राज्य में सड़कों पर लाखों लोगों को क्यों रहने को मजबूर होना पड़ रहा है ?
दिल्ली में जो घर आबाद हैं उनमें 77.2 प्रति शत ही आवासीय हैं। शेष में अन्य गतिविधियां चल रही हैं। कुल 4.5 प्रति शत आवासों अर्थात 1,35,406 में लोग रोजगार चला रहे थे तथा अन्य तरह के अवैध घरों की संख्या भी लाखों में है। पिछले कुछ समय से लाखों लोगों को उजाड़ने को जो अभियान चला उनसे नाराज लोगों की संख्या काफी बढ़ गयी है। लेकिन लोगों की इस पीड़ा को दूर करने के बजाय बाहरी लोगों पर मुख्य मंत्री का दोषारोपण कुप्रशासन के अतिरिक्त और क्या हो सकता है।
दिल्ली शहर के सिर्फ 58 प्रति शत घर ही अच्छे हालत में हैं। वर्तमान शासन में लोगों की दुर्दशा इतनी की वे इतना धन नहीं जुटा पा रहे कि अपने घर ठीक करा लें। उसी में किसी तरह रहने को मजबूर हैं। महंगायी और बेरोजगारी की मार से वे त्रस्त हैं। दोनो शासन व्यवस्था के दायरे में ठीक होने की चीज है। यदि इसे सरकार नहीं सुधार पाती तो दोषी कौन है? एक आकलन के अनुसार ऐसे हालात में रहने वाले परिवारों की संख्या कोई दस लाख से ज्यादा है।
कंक्रीट की छतों के नीचे रहने वाले दिल्ली के निवासी परिवारों की संख्या भी मात्र 54.7 प्रति शत है। शेष लोग किसी तरह के कामचलाऊ मकानों में रहते हैं। योजनाबद्ध विकास की कलई खोलने के लिए और क्या प्रमाण चाहिए। घास, फूस, बांस, लकड़ी और मिट्टी आदि के मकानों में 3.3 प्रति शत, प्लास्टिक और पॉलिथीन की छतों के नीचे 2.6 प्रति शत, और अन्य स्लेट, टाईल, ईंट और अन्य संसाधनों से बनी छतों के नीये गुजर-बसर करने को विवश हैं। लगभग पौने दो लाख से ज्यादा घरों में फर्श मिट्टी का ही है। शीला जी, आप लोगों को जो मोजाईक और फ्लोर टाईल्स के घरों की चकाचौंध को विकास के रुप में दिखाना चाह रही हैं वह एक धोखा है क्योंकि दिल्ली में ऐसे घर मात्र 13.8 प्रति शत हैं, अर्थात मात्र साढ़े तीन लाख से थोड़ा ज्यादा।
इस राज्य में कुल घरों में आठ प्रति शत से थोड़ा ज्यादा स्थायी ढांचे का नहीं है। इनका स्थायी ढांचा नहीं बना तो इसका कारण इनमें रहने वाले परिवारों की दुर्दशा है। अधिकांश परिवारों में लगभग 54 प्रतिशत घरों में पांच या उससे ज्यादा सदस्य रहते हैं। छोटी आवासीय इकाइयों में ज्यादा लोगों का रहना कितना कष्टकर होता है इससे शायद शीला सरकार उदासीन रही है। कुल 25.6 प्रति शत लोग किराये के मकानों में रह रहे हैं और 7.3 प्रति शत अन्य का अपना कोई घर नहीं है। कुल 22 हजार परिवारों का कोई अलग से कमरा नहीं है। लगभग 10 लाख परिवार एक ही कमरे में रहने को विवश हैं। दिल्ली की प्रगति तो महज इतनी ही है कि मात्र 75 हजार लोगों के पास ही पांच कमरे के मकान है और कोई एक लाख पांच हजार के पास ही छह या उससे ज्यादा कमरे के मकान। मात्र 68 प्रति शत विवाहित जोड़ों को ही अलग से अपना कमरा नसीब है। लगभग 25 प्रति शत घरों में पानी का कोई कनेक्शन नहीं है। उन परिवारों को पानी के लिए बाहर पड़ोस में 18 प्रत शत को और दूर जाकर सात प्रति शत को पेयजल का जुगाड़ करना पड़ता है। पीने योग्य नल का पानी सिर्फ 75 प्रति शत परिवारों को ही उपलब्ध है, जबकि शेष पीने के लिए अयोग्य घोषित पानी ही पीने को मजबूर हैं। ऐसे दूषित जलस्रोतों में चापा कल , कुआं, तालाब, और नदी तथा नहर भी शामिल है। लगभग सात प्रति शत घरों तक बिजली भी नहीं पहुंचायी गयी है।
बाथरुम की सुविधा लगभग 30 प्रति शत घरों में नहीं है। कुल 22 प्रति शत को तो सड़कों पर पखाना करना पड़ता है क्योंकि उनके घरों में ऐसे सुविधा नहीं है। दस प्रति शत घरों में जल-मल निकासी का भी कोई प्रबंध नहीं है। चौंतीस प्रति शत घरों में कोई रसोईघर नहीं है। आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि दिल्ली के लगभग चार प्रति शत परिवार अब भी लकड़ी से खाना बनाते हैं तथा दो प्रति शत गोंईठे या सूखे गोबर से। किरासन तेल से खाना बनाने वालों की संख्या 24.4 प्रति शत है तथा सिर्फ 68 प्रति शत को रसोई गैस उपलब्ध है।
विकास की एक और झलक आपको चौंका सकती है। कार, जीप और वैन से भरी दिखती दिल्ली का एक सच यह है कि मात्र 13 प्रति शत के पास ऐसी संपदा उपलब्ध है जबकि स्कूटर, मोटरसाइकिल और मोपेड मात्र 28 प्रति शत के पास।
दिल्ली के मात्र इस विकास को भी संभालने की क्षमता यदि राज्य सरकार के पास नहीं है तो इसमें किसकी गलती है? मुख्य मंत्री जी, दूसरों पर कालिख पोतने से अच्छा होता कि आप अपने और अपनी सरकार के निकम्मेपन पर खुद अपने मुंह पर कालिख पोत लेतीं। ये चंद आंकड़े खुलासा कर देते हैं कि दिल्ली का कितना और किस तरह का विकास हुआ है।#
ज्ञान पाठक के अभिलेखागार से
दिल्ली का संकट ...
System Administrator - 2007-10-20 06:49
दिल्ली की बदहाली के लिए बाहर से आने वाले लोगों, विशेषकर बिहार और उत्तर प्रदेश से, को दोषी ठहराने वाले अपने बयान पर मुख्य मंत्री शीला दीक्षित ने माफी मांग ली, लेकिन इससे मूल मुद्दा खत्म नहीं होता। लोक सभा में उनके बयान पर हंगामा होने और सदन में उन्हें तलब किये जाने के बाद उनके पास माफी मांगने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था, लेकिन दिल्ली की बदहाली के लिए उनकी सरकार को माफ नहीं किया जा सकता।