हालांकि, अंतिम एनआरसी का प्रकाशन एनआरसी से बाहर होने के कई रिपोर्टों के साथ था, जिसमें सभी वैध दस्तावेज शामिल थे, लेकिन कुछ विसंगतियों के कारण, अंतिम सूची में उनके नाम शामिल नहीं थे। यहां तक कि भाजपा की अगुवाई वाली असम सरकार ने भी शिकायत की है कि कई कथित वास्तविक नागरिक यानी, बंगाली हिंदुओं ने एनआरसी से अपने नाम गायब पाए हैं, जबकि एनआरसी, यानी असम पब्लिक वर्क्स और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के वर्तमान और पूर्व नेताओं के चेहरों की रंगत भी उड़ गई है। असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के भारी संख्या में होने के उनके दावों की पोल खुल गई है।

अवैध बांग्लादेशियों ’की बयानबाजी ने न केवल असम की राजनीति को परेशान कर रखा था, बल्कि पूरी असम सरकार उससे अस्त व्यस्त हो जाया करती थी। 2016 में किरण रिजुजू ने राज्यसभा में कहा था कि सरकार के अनुसार, वैध दस्तावेजों के बिना, भारत में 2 करोड़ बांग्लादेशी अवैध प्रवासी हैं। वास्तव में, 1997 में, संयुक्त मोर्चा सरकार के तत्कालीन गृह मंत्री स्वर्गीय इंद्रजीत गुप्ता ने संसद में कहा था कि भारत में 10 मिलियन से अधिक अवैध बांग्लादेशी हैं, जिनमें असम में 4 मिलियन लोग हैं। इन सभी बयानों में उर्फ बयानबाजी थी और कोई वास्तविक डेटा सबूत के साथ जारी नहीं किया गया था।

बांग्लादेशी घुसपैठ की आरोपां का पूरी तरह से पर्दाफाश हो गया है, भले ही एनआरसी को व्यापक रूप से एक त्रुटिपूर्ण अभ्यास कहा जाय, जिसने वैसे लाखों लोगों को बाहर रखा है जो पैदा होकर पीढ़ियों से असम में रह रहे हैं। यदि ऐसा है, तो विदेशी घुसपैठियों की वास्तविक संख्या बहुत कम होगी। अंतिम एनआरसी ने इन सभी समूहों को इतना परेशान कर दिया है कि एनआरसी के फिर से सत्यापन के लिए फिर से उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की योजना बन रही है।

यह हमें इस सवाल पर लाता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट को कभी एनआरसी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना चाहिए था। एक तरफ, एक अदालत की निगरानी प्रक्रिया होने के नाते सारी कसरत को यह वैधता प्रदान करता है, और इसके कारण निष्पक्ष होने की धारणा भी बनती है, जबकि दूसरी ओर, यह सवाल बना हुआ है कि क्या न्यायालय को इस प्रक्रिया की सुविधा प्रदान करनी चाहिए या पूरे विचार पर सवाल उठाना चाहिए, जो विसंगतियों से भरा हुआ है।

सर्बानंद सोनोवाल बनाम भारत संघ (2005) मामले में सुप्रीम कोर्ट अवैध प्रवासियों (ट्रिब्यूनल द्वारा निर्धारण) अधिनियम, 1983 (आईएमडीटी अधिनियम) की संवैधानिक वैधता पर विचार कर रहा था, जो न्यायाधिकरणों की स्थापना के लिए एक उचित फ्रेमवर्क तैयार करता है।

यह तर्क दिया गया था कि वह अधिनियम बहुत सख्त था, और अवैध प्रवासियों की पहचान जल्दी से नहीं करता है,। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसपर सहमति व्यक्त की गई थी। उसमें उल्लेख किया गया था कि “आपराधिक मुकदमे में किसी व्यक्ति को दोषी ठहराना कहीं अधिक आसान है आईएमडीटी अधिनियम और वहां बनाए गए नियमों के तहत पहचान निर्धारित करना अत्यंत कठिन। इसे बोझिल और समय लेने वाली प्रक्रिया माना गया।

इस प्रकार, आईएमडीटी अधिनियम के कार्यान्वयन में नियत प्रक्रिया का पालन करने के बजाय, न्यायालय इस बात से नाराज था कि अधिनियम ंठीक ढंग से काम नहीं कर रहा है। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि “असम में अवैध रूप से पलायन करने वाले बांग्लादेशी नागरिकों की आमद उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की अखंडता और सुरक्षा के लिए खतरा है। उनकी उपस्थिति ने उस क्षेत्र के जनसांख्यिकीय चरित्र को बदल दिया है और असम के स्थानीय लोगों को कुछ जिलों में अल्पसंख्यक की स्थिति में ला दिया है। ”यह आसु और अन्य असमिया समूहों और भाजपा को पूरी तरह से प्रेरित करने वाले समूहों की सटीक भावना थी।

सोनोवाल ने बांग्लादेश के अवैध प्रवासियों के बड़े पैमाने पर भ्रामक और खतरनाक बयानबाजी की न्यायिक आधारशिला रखी, जो बिना किसी तथ्यात्मक आधार के, भारत की सीमाओं को असुरक्षित और कमजोर कह रहे थे और इस खतरनाक विरासत को असम लोक निर्माण बनाम भारम संघ में आगे बढ़ाया गया था। नागरिकता अधिनियम की धारा 6 ए को चुनौती दी गई है, और अभी भी वह उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के समक्ष लंबित है। (संवाद)