भाजपा नेताओं की चुप्पी, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की मुख्यमंत्री कमलनाथ से नाराजगी की खबरों और खुद कमलनाथ की कुछ राजनीतिक भाव-भंगिमाओं को लेकर यह कयास लगाए जाने लगे थे कि मध्य प्रदेश में भी चार दशक पुराना हरियाणा का ऐतिहासिक ‘भजनलाल प्रसंग’ दोहराया जा सकता है। यानी मुख्यमंत्री कमलनाथ बडी संख्या में अपने समर्थक मंत्रियों-विधायकों के साथ कांग्रेस से अलग हो सकते हैं और भाजपा के बाहरी समर्थन से सरकार बना सकते हैं। हालांकि ऐसा कुछ नहीं हुआ।
इस समय प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद को लेकर पार्टी में सूबे के शीर्ष नेताओं के बीच जबरदस्त घमासान मचा हुआ है। इस घमासान से सूबे की राजनीति में पिछले कई दिनों से पसरा सन्नाटा टूटा है। इस सन्नाटे को तोडा है ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों के आक्रामक तेवरों ने। सूबे का मुख्यमंत्री बनने की दौड में पिछड जाने और फिर लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद सिंधिया इस समय पार्टी एक तरह से भूमिका विहीन हैं। हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चयन के लिए बनी छानबीन समिति का अध्यक्ष बनाया है, लेकिन सिंधिया इससे संतुष्ट नहीं। वे अपने गृह प्रदेश में कांग्रेस का मुखिया और राज्य में सत्ता का दूसरा केंद्र बनना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि सत्ता का दूसरा केंद्र बनकर ही वे राज्य में सत्ता का पहला केंद्र यानी मुख्यमंत्री बन सकते हैं।
सिंधिया की मुख्यमंत्री बनने की हसरत पुरानी है। विधानसभा चुनाव से पहले भी उनके समर्थकों की ओर से सिंधिया को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिए पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाया गया था। उनकी यह मांग नहीं मानी गई थी, लेकिन गुटीय संतुलन बनाने के मकसद से सिंधिया को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया गया था। जिस तरह के नतीजे आए, उसके मद्देनजर कांग्रेस नेतृत्व ने अनुभव को तरजीह देते हुए कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाना उचित समझा। दिग्विजय ने भी सिंधिया को मुख्यमंत्री पद से दूर रखने और कमलनाथ की ताजपोशी कराने में वही भूमिका निभाई, जो भूमिका एक समय दिग्विजय सिंह को मुख्यमंत्री बनवाने में कमलनाथ ने निभाई थी।
कमलनाथ नया अध्यक्ष ऐसा चाहते हैं, जो उनके अनुकूल होे। इसमें दिग्विजय भी उनके साथ हैं। दिग्विजय की कोशिश इस पद पर दिवंगत कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह के बेटे और पिछली विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे अजय सिंह को बैठाने की है। अजय सिंह रिश्ते में दिग्विजय सिंह के दामाद हैं। कमलनाथ आदिवासी कार्ड खेलते हुए राज्य के गृह मंत्री और अपने विश्वस्त बाला बच्चन का नाम अध्यक्ष पद के लिए आगे कर चुके हैं। कुल मिलाकर सिंधिया को रोकने के लिए कमलनाथ और दिग्विजय ने तगडी घेराबंदी की है।
दूसरी ओर सिंधिया इस बार ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ या ‘करो या मरो’ के अंदाज में हैं। उनके समर्थक अब हर हाल में अपने नेता को प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और आगे चलकर मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। इस सिलसिले में सिंधिया समर्थक मंत्रियों और विधायकों ने जिस तरह के आक्रामक तेवर अपना रखे हैं, वे अभूतपूर्व हैं।
सिंधिया समर्थक वन मंत्री उमंग सिंघार ने तो सीधे-सीधे दिग्विजय सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने मीडिया से बातचीत में न सिर्फ दिग्विजय की नर्मदा यात्रा को ‘रेत सर्वे यात्रा’ बताया, बल्कि उन पर शराब व खनन माफिया को संरक्षण देने, ट्रांसफर-पोस्टिंग के धंधे में लिप्त रहने और मंत्रियों के साथ सुपर मुख्यमंत्री की तरह व्यवहार करने का भी आरोप लगाया। अपेक्षा की जा रही थी कि सिंधिया अपने समर्थक मंत्री के इन आरोपों से पल्ला झाड लेंगे। ऐसा नहीं हुआ। सिंधिया से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि आरोपों में कुछ तो सच्चाई है ही और जिन पर आरोप लगे हैं, उन्हें इस बारे में सफाई देनी चाहिए।
इसलिए कहा जा रहा है कि अगर प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए सिंधिया के दावे को अनदेखा किया गया तो वे अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस से अलग होकर कमलनाथ सरकार को गिरा देंगे और कांग्रेस से अलग होकर सिंधिया क्षेत्रीय पार्टी का गठन कर भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने का दावा कर सकते हैं। गौरतलब है कि ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया ने भी 1996 के लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस से अलग होकर श्मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस’ का गठन किया था और उसी पार्टी से चुनाव लडकर लोकसभा में पहुंचे थे। उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने उन सभी कांग्रेस नेताओं को टिकट देने से इनकार कर दिया था जिनके नाम जैन हवाला डायरी कांड में आए थे। माधवराव सिंधिया भी टिकट से वंचित उन नेताओं में से एक थे।
बहरहाल, ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से बगावत किए जाने की अटकलों के सिलसिले में ही उनके परिवार की राजनीतिक पृष्ठभूमि का भी उल्लेख किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि सिंधिया घराने की जडे वैसे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ और भाजपा से जुडी हुई हैं। सिंधिया राजघराने और संघ का तो देश की आजादी के पहले से एक विशिष्ट रिश्ता रहा है। ज्योतिरादित्य की दादी विजयाराजे सिंधिया जरुर अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती वर्षों में कांग्रेस से जुडी रहीं, लेकिन वे भी कांग्रेस से अलग होने के बाद जनसंघ से ही जुडीं और भाजपा के संस्थापक नेताओं में से एक रहीं। उनके पुत्र और ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया ने भी अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत जनसंघ से ही की थी और 1971 में पहली बार जनसंघ के टिकट पर ही चुनाव लडकर लोकसभा पहुंचे थे। इस समय भी ज्योतिरादित्य सिंधिया की दोनों बुआएं वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे भाजपा में ही हैं। इसलिए ज्योतिरादित्य भी अगर कांग्रेस से अलग होकर भाजपा में जाते हैं या नई पार्टी बनाकर भाजपा के सहयोगी बनते हैं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। (संवाद)
क्या भाजपा में जाएंगे सिंधिया?
मध्यप्रदेश कांग्रेस में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है
अनिल जैन - 2019-09-09 11:08
भीतरी कलह से ग्रस्त मध्य प्रदेश कांग्रेस की हालत संगीन है, जहां कांग्रेस चंद महीनों पहले ही पूरे डेढ दशक के अंतराल के बाद जैसे-तैसे सत्ता में आई है।पहले दिन से अल्पमत की सरकार करार देते हुए भाजपा के नेताओं ने उसकी बिदाई का गीत गाना शुरू कर दिया था। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विधानसभा चुनाव का प्रदर्शन भी नहीं दोहरा सकी और उसका पूरी तरह सफाया हो गया। हालांकि भाजपा की ओर से न तो सरकार गिराने की कोशिश की गई और न ही उसके किसी नेता ने इस आशय का कोई बयान दिया। इसके बावजूद राजनीतिक हलकों में माना जाने लगा कि अब सूबे में कांग्रेस की सरकार के दिन करीब आ गए हैं।