इस उपचुनाव में समाजवादी पार्टी का मतप्रतिशत काफी बढ़ गया, जबकि बसपा उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई और वह पीछे तीसरे स्थान पर रहा। वैसे बहुजन समाज की नीति रही है कि सत्ता से बाहर रहने की सूरत में वह उपचुनाव नहीं लड़ती। उसका मानना है कि सत्तारूढ़ दल किसी तरह चुनाव जीत जाता है और विपक्षी उम्मीदवार की जीत की कोई संभावना नहीं रहती। लेकिन इस बार मायावती की पार्टी चुनाव लड़ रही थी। जाहिर है, यह चुनाव जीतने के लिए वह नहीं लड़ रही थी, बल्कि उसे साबित करना था कि उत्तर प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी वही है और भारतीय जनता पार्टी को आगामी विधानसभा आमचुनाव में वही पराजित कर सकती है। मतलब उसक उद्देश्य समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार से अधिक वोट लाकर दूसरा स्थान प्राप्त करना था।

पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने वाली बसपा को उत्तर प्रदेश में 10 सीटे मिली थीं, जबकि सपा को मात्र 5। इसे मायावती अपनी भारी जीत समझ रही थी और उत्तर प्रदेश के भाजपा विरोधियों को संदेश दे रही थीं भाजपा को हराने की क्षमता उन्हीं में है, इसलिए जो किसी भी कीमत पर भाजपा को हारते देखना चाहते हैं, वे उनकी पार्टी को वोट करें न कि समाजवादी पार्टी को। मुस्लिम मतदाता भाजपा विरोधी हैं और उनकी आबादी उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 19 फीसदी से भी ज्यादा है। मायावती मुख्य रूप से मुसलमानों को ही यह संदेश देना चाहती थी।

अपने दावे को पुख्ता करने के लिए कि वह ही भाजपा को हराने वाली मुख्य विपक्षी पार्टी है, मायावती ने उपचुनाव न लड़ने की नीति का त्याग कर दिया और इस बार उपचुनाव लड़ने का फैसला ही नहीं किया, बल्कि समाजवादी पार्टी के साथ बहुत ही भौंडे तरीके से अपने गठबंधन को तोड़ने की घोषणा भी कर दी। उनका आकलन था कि उपचुनाव में अकेली लड़कर वह समाजवादी पार्टी से ज्यादा वोट हासिल करेंगी और फिर प्रदेश के 19 फीसदी मुसलमान पूरी तरह से उनके साथ आ जाएंगे। अबतक मुसलमानों का बहुमत समाजवादी पार्टी का समर्थन करता रहा है। जब 2007 में मायावती पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थीं, तब भी मुसलमानों ने सामान्य तौर पर समाजवादी पार्टी का ही समर्थन किया था। लेकिन मुसलमानों का वोट पाने के लिए मायावती भारी संख्या में उन्हें टिकट देती हैं, लेकिन फिर भी उन्हें वांछित सफलता नहीं मिलती और मुसलमानों की अधिसंख्या समाजवादी पार्टी को ही वोट देती है। इसका कारण यह है कि मायावती तीन बार भाजपा के समर्थन से प्रदेश की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं और मुसलमानों के बीच उनकी विश्वनीयता का ग्राफ बहुत ही गिरा हुआ है।

बहरहाल, मुलायम सिंह के राजनीति से लगभग बाहर हो जाने और समाजवादी पार्टी के शीर्ष पर अखिलेश के बैठ जाने के बाद मायावती को यह लग रहा है कि मुस्लिम उनके साथ अब आ जाएंगे, इसलिए उपचुनावों में दूसरा स्थान हासिल करना उनके लिए जरूरी है। अभी तो एक ही विधानसभा क्षेत्र का उपचुनाव हुआ है और 12 विधानसभा क्षेत्रों के लिए उपचुनाव होने बाकी हैं। उन सभी सीटों से भी मायावती अपनी बसपा की उम्मीदवार खड़ी करेंगी और उनकी कोशिश यह रहेगी कि उनका उम्मीदवार जीते या न जीते कम से कम समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार से ज्यादा सीटें लाए, ताकि वे मुस्लिम और दलित समीकरण के बूते भाजपा को सत्ता से बेदखल करने का दावा कर सकें।

उत्तर प्रदेश में 21 फीसदी दलित और 19 फीसदी मुस्लिम हैं। दोनों की सम्मिलित आबादी 40 फीसदी होती है। यदि इसका 75 फीसदी मत भी मायावती को हासिल हो जाए, तो 30 फीसदी मत पाकर बहुकोणीय मुकाबले में विधानसभा में पूर्ण बहुमत हासिल कर सकती हैं। 2007 में उन्हें बहुमत लगभग इतने वोटों के साथ ही प्राप्त हुआ था। पर मायावती की समस्या यह है कि अब वह उत्तर प्रदेश की दलित नेता भी नहीं रह गई हैं। उनकी अपील सिर्फ जाटव और चर्मकार तक रह गई है, जो उत्तर प्रदेश की आबादी का 12 प्रतिशत हैं। जाटव और चर्मकार सामाजिक रूप से दो अलग अलग जातियां हैं, हालांकि राजनैतिक रूप से एक ही जाति है। इन दोनों में आपस में शादी विवाह नहीं होते और जाटव अपने आपको चर्मकारों से श्रेष्ठ मानते हैं। मायावती के कमजोर पड़ने के साथ इन दोनों के बीच भी अब संदेह का माहौल बनने लगा है कि चर्मकारों को लग रहा है कि मायावती ने सिर्फ जाटवों को फायदा पहुंचाया। इसके कारण मायावती उनके बीच में भी धीेरे धीरे अलोकप्रिय होने लगी हैं।

इन राजनैतिक सच्चाइयों से मायावती लगातार कमजोर होती जा रही हैं। वह अपने आपको इतनी कमजोर पा रही हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन के बावजूद उत्तर प्रदेश के किसी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं हुई। यदि सपा के साथ वह गठबंधन नहीं करती, तो फिर खतरा था कि उनकी पार्टी को इस बार भी एक भी सीट नहीं आती। बहरहाल, अखिलेश की राजनैतिक अपरिपक्वता का लाभ उठाते हुए मायावती ने उत्तर प्रदेश में 10 लोकसभा सीटें हासिल करने का सुख तो प्राप्त कर लिया, लेकिन हमीरपुर उपचुनाव के नतीजे ने साबित कर दिया है कि उनके पांव के नीचे की जमीन खिसक चुकी है। मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा कर भी वहां सारे मुसलमानों का वोट नहीं प्राप्त कर सकी और दलितों का पूरा वोट भी अपने उम्मीदवार को ट्रांसफर नहीं करवा सकी। इससे स्पष्ट हो गया है कि अब भी यूपी में मुस्लिम की पसंद समाजवादी पार्टी ही है। सहज सवाल उठता है कि क्या मायावती का खेल अब समाप्त हो चुका है? इसका और स्पष्ट जवाब 12 विधानसभा सीटों के आगामी उपचुनाव के नतीजे से मिलेगा। (संवाद)