यह प्रासंगिकता इसलिए है क्योंकि इस समय केन्द्र और अनेक राज्यों में ऐसी पार्टी की सरकार काबिज है जो वर्षों से धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को न सिर्फ भारत के लिए अनुपयुक्त मानती हैं वरन् उसे बदनाम करती रही है। भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनैतिक शाखा है। संघ स्पष्ट रूप से कहता है कि वह भारत को हिन्दू राष्ट्र में परिवर्तित करना चाहता है। हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को अमली जामा पहनाने के लिए आवश्यक है कि धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को नकारा जाए। भारत उसी स्थिति में हिन्दू राष्ट्र बन सकता है जब वह धर्मनिरपेक्ष न रहे। इसलिए प्रारंभ से ही संघ और भाजपा के नेता कांग्रेस, अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों और संगठनों को ‘सूडो सेक्युलर‘ अर्थात बनावटी धर्मनिरपेक्ष संगठन बताते रहे हैं। वे लगातार यह कहते रहे हैं कि धर्मनिरपेक्षता दरअसल मुसलमानों का तुष्टिकरण करने का सिद्धांत है। वे यह भी कहते हैं कि भारत में मुसलमान रह तो सकते हैं परंतु दोयम दर्जे के नागरिक की हैसियत से। यह बात संघ के दूसरे सरसंघ चालक गुरू गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच आॅफ थाट्स‘ में स्पष्ट रूप से कही है। इसके अतिरिक्त संघ और भाजपा क्षमावीर सावरकर की विचारधारा मंे अगाध विश्वास रखते हैं। सावरकर ने दशकोें पहले यह सिद्धांत स्थापित किया था कि भारत मंे केवल वे लोग रह सकते हैं जिनकी जन्म भूमि और पुण्य भूमि दोनो भारत में है। अर्थात जिसका जन्म भारत के हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिक्ख परिवार में हुआ हो। अतः मुस्लिम या ईसाई परिवार में पैदा हुआ बच्चा भारत का नागरिक नहीं हो सकता। संभवतः सावरकर और संघ के इसी सिद्धांत के कारण मुसलमानों को अपना पृथक घर (पाकिस्तान) ढूंढ़ना पड़ा।

सावरकर और संघ के सोच के ठीक विपरीत गांधीजी हर उस व्यक्ति को भारत का नागरिक मानते थे जो यहां पैदा हुआ, पला और विकसित हुआ। गांधी धर्म को नागरिकता का आधार नहीं मानते थे।

गांधीजी का अटूट विश्वास था कि हिन्दू-मुस्लिम एकता की नींव पर ही भारतीय राष्ट्र की इमारत खड़ी की जा सकती है।‘‘हम जो एकता चाहते हैं वह मजबूरी में किया गया समझौता नहीं है। हम दिलों की एकता चाहते हैं। हम ऐसी एकता चाहते हैं जिसका आधार यह स्पष्ट मान्यता हो कि स्वराज, भारत के लिए तब तक एक स्वप्न बना रहेगा जब तक कि हिन्दू व मुसलमान अपनी एकता के कभी न टूटने वाले बंधन में नहीं बंध जाते। हम हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच संधि नहीं चाहते। हिन्दू-मुस्लिम एकता एक-दूसरे के भय पर आधारित नहीं होनी चाहिए। वह बराबरी पर आधारित होनी चाहिए। यह एक-दूसरे के धर्म के सम्मान पर आधारित होनी चाहिए।‘‘ (यंग इंडिया, 6 अक्टूबर 1920, पृष्ठ 4)

धार्मिक सहिष्णुता के प्रति अटूट प्रतिबद्धता गांधीजी की धर्मनिरपेक्षता का मुख्य आधार थी। वे सभी लोगों, चाहे वे किसी भी धर्म, पंथ जाति या रंग के हों, को सम्मान की दृष्टि से देखने के पैरोकार थे। विभिन्न धर्मों के मानने वालों के बीच आपसी संदेह और बैर-भाव की दीवारों को ढहाने के लिए वे सभी समुदायों के बीच आपसी संवाद पर बहुत जोर देते थे। इसकी जरूरत आज भी है। यही आपसी संदेहों के निवारण का सबसे अच्छा उपाय है। ‘‘हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के बारे में यह सच है। मुसलमानों के नेताओं को आपस में मिल बैठकर इस प्रष्न पर विचार करना चाहिए कि हिन्दुओं के प्रति उनका क्या कर्तव्य है। जब दोनों समुदाय एक-दूसरे के लिए त्याग करने को तत्पर होंगे, केवल अपने अधिकारों के बारे में बात करने की बजाए दूसरे समुदाय के प्रति अपने कर्तव्यों पर विचार करेंगे, तभी दोनों समुदायों के बीच लंबे समय से चले आ रहे मतभेद समाप्त होंगे। दोनों को एक-दूसरे के धर्मों का सम्मान करना चाहिए और अन्य धर्मावलंबियों का बुरा हो, ऐसा विचार भी उनके मन में नहीं आना चाहिए। हमें दोनों समुदायों के सदस्यों को एक-दूसरे के बारे में अपषब्दांे का इस्तेमाल करने से बचने की सलाह देनी चाहिए। इस दिषा में गंभीर प्रयास करने से ही दोनों समुदायों का मेल-मिलाप संभव हो सकेगा और उनके बीच की दूरियां कम हो सकेंगीं।‘‘ (यंग इंडिया, 7 मई 1917)। लगभग एक सदी पहले गांधीजी द्वारा की गई यह टिप्पणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। बल्कि आज शायद उसकी जरूरत उस काल से कहीं ज्यादा है।

गांधीजी से एक विदेशी पत्रकार ने पूछा कि यह कैसे है कि एक तरफ आप धार्मिक होने का दावा करते हैं वहीं दूसरी ओर धर्मनिरपेक्ष होने का दावा भी करते हैं। इसका उत्तर देते हुए गांधीजी ने कहा कि ये दोनों बातें पूरी तरह सच हैं। ‘‘मेरा धर्म सनातन धर्म है। यदि कोई मेरी आस्था पर हमला करता है तो मैं अपनी आस्था की रक्षा करते हुए अपनी जान तक देने को तैयार हूं। परंतु यदि मेरे पड़ोस में कोई ऐसा व्यक्ति रहता है जिसकी आस्था किसी अन्य धर्म में है और यदि उसकी आस्था पर आक्रमण होता है तो मैं उसकी आस्था की रक्षा करते हुए भी अपनी जान देने के लिए तैयार हूं।‘‘ यह है गांधी की धर्मनिरपेक्षता।

जब देश के विभाजन के दौरान दंगे हो रहे थे तब गांधीजी नोआखली, कलकत्ता और अन्य दंगा प्रभावित स्थानों पर थे। वे आजादी के समारोह में शामिल नहीं हुए थे। इन दंगांे के दौरान अपनी जान जोखिम में डालकर वे दंगों पर नियंत्रण पाने का प्रयास कर रहे थे। वे हिंसा में लिप्त लोगों का मन जीतने का प्रयास करते थे। उनके अथक प्रयासों से दंगे शांत हुए। उनके प्रयासों की तत्कालीन वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। माउंटबेटन ने कहा था कि ‘‘जो पुलिस नहीं कर सकी, जो मैं नहीं कर सका, वह गांधीजी ने कर दिखाया। अद्भुत ताकत है गांधीजी की‘‘।

गांधीजी कीे धर्मनिरपेक्षता में धर्मों की एकता तो शामिल थी ही परंतु साथ ही उनके सपनों का भारत छुआछूत विहीन भारत होता। उनका सपना था कि आजाद भारत जाति विहीन होगा। हिंदू समाज का यह कलंक सदा के लिए समाप्त हो जाएगा। परंतु आज की हकीकत यह है कि ये दोनों - दलित और मुसलमान - अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। आए दिन माॅब लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं। गौरक्षा के नाम पर हत्याएं की जा रही हैं। दुःख की बात है कि कई मामलों में इन अपराधों में लिप्त व्यक्ति अदालतों द्वारा दोषमुक्त घोषित कर दिए गए हैं। आज मुसलमानों को हिन्दू बहुल क्षेत्रों में किराए का मकान नहीं मिल पाता है। संसद एवं विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व कम होता जा रहा है। यदि हमें अपने देष के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बचाना है तो गांधीजी के बताए हुए रास्ते पर चलने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। (संवाद)