श्री सिन्हा अपनी पार्टी से बहुत दिनों से नाराज चल रहे हैं। बिहार चुनाव प्रचार में भाजपा ने यदि किसी स्ािानीय नेता का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है, तो वे शत्रुघ्न सिन्हा हैं। श्री सिन्हा का इस्तेमाल पार्टी दो दशकों से कर रही है। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भी उनका इस्तेमाल होता रहा है। देश के इन्य हिस्सों में भी पार्टी के प्रचारक के रूप में उन्हें उतारा जाता है, पर बिहार मे तो वे भाषणों के लिए सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले लोकल नेता रहे हैं, लेकिन पार्टी के अंदर उनको वह रुतवा नहीं मिलता है, जो पार्टी का प्रचार करने वाले नेता को मिलना चाहिए। श्री सिन्हा का दुख यही है।
उन्हें पार्टी राज्य सभा का सदस्य भी बना चुकी है, लेकिन बीच में उन्हें संसद से बाहर भी रहना पड़ा। जो जगह पार्टी में उन्हें मिलनी चाहिए, वह जगह रविशंकर प्रसाद को मिल जाता है, जबकि पाटी्र के लिए उनकी उतनी उपयोगिता नहीं है, जितना २ाशत्रुघ्न सिन्हा की। श्री सिन्हा रविशंकर प्रसाद से बहुत सीनियर भी हैं, लेकिन फिर भी पार्टी उन्हें अहमियत नहीं देती। पिछले लोकसभा चुवाव के पहले टिकट वितरण के समय रविशंकर प्रसाद भी पटना साहिब से पार्टी के टिकट के उम्मीदवार बन गए, जबकि उस समय वे राज्य सभा में पहले से ही थे। तब श्री सिन्हा ने अमर सिंह कार्ड खेला था।
अमर सिंह से मुलाकात कर उन्होंने भाजपा नेताओं को संकेत दे डाला था कि यदि पटना साहिब से उन्हें टिकट नहीं मिला, तो वे वहां से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार भी बन सकते हैं। पटना २ात्रुध्न सिन्हा का गृहक्षेत्र भी है और बिहार के अंदर उनकी लोकप्रियता पटना में संभवतः सबसे ज्यादा है। जाहिर है भाजपा को बगावती तेवर दिखा रहे बिहारी बाबू के सामने झुकना पड़ा और उनकी उम्मीदवारी पर मोहर लगाना पड़ा। यानी श्री सिन्हा को वहां से टिकट प्राप्त करने के लिए पार्टी को अपनी उस ताकत का इस्तेमाल करना पड़ा, जिसे आमतौर पर किसी पार्टी में उचित नहीं माना जाता है।
नितिन गडकरी के पहले से ही पटना के सांसद भाजपा नेताओं से नाराज चल रहे है। वे अपने असंतोष को छिपाते भी नहीं। उनकी नाराजगी सिर्फ अपनी पार्टी से ही नहीं है, बल्कि बिहार के मुख्यमंत्री से भी वे नाराज रहते हैं। वे बिहार के राजधानी क्षेत्र के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए उन्हें सरकार से ज्यादा अपेक्षाएं रहती है। यह स्वाभाविक भी है, लेकिन उनकी अपेक्षाएं पूरी होना तो दूर उन्हें सरकार की उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों का नेक्सस तोड़ने के लिए नौकरशाहों को राजनीतिज्ञ हस्तक्षेप से मुक्त करने की व्यवस्था कर रखी है और उसके कारण राज्य के अघिकारियों ने विधायकों और सांसदों को तव्वजो देना बंद कर दिया है।
इस नई व्यवस्था के शिकार शत्रुघ्न सिन्हा भी हुए होंगे। इसमें सत्ता का केन्द्रीकरण नीतीश कुमार में हो गया है। नीतीश कुमार के बाद यदि किसी अन्य मंत्री के पास सत्ता यदि सही मायने में है, तो वे उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी हैं। जाहिर है, अन्य अनेक सांसदों की तरह श्री सिन्हा की भी मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री से नाराजगी है। श्री सिन्हा चूंकि पटना के ही सांसद हैं और वहां के सरकारी आयोजनों में उनकी भी उपस्थिति होनी चाहिएण् लेकिन उनकी उपस्थिति की भी जरूरत नहीं समझी जाती, इसलिए वे बिहार के मुख्यमंत्री से भी नाराज हैं।
यही कारण है कि जब बिहार दिवस मनाया जा रहा था, तो पटना के सांसद ही समारोहों से नदारत थे। सिर्फ नदारत रहते तब भी गनीमत थी, लेकिन वे तो राज्य सरकार के खिलाफ आग भी उगल रहे थे। यानी जब राज्य सरकार अपनी उपलब्धियों का बखान कर रही थी, तो उसी समय श्री सिन्हा कहीं और बैठकर बिहार सरकार को एक नकारा सरकार बता रहे थे। बिहार सरकार की आलोचना वे जिन लहजों में करते हैं, उसके सामने तो लालू यादव का सरकार विराधी लहजा भी कमजोर पड़ जाता है। वे कहते हैं कि बिहार सरकार हर मोर्चे पर विफल रही है और मीडिया का प्रबंधन कर बिहार के बिकास के बारे मे गलत सलत खबरें छपवा रही हैं।
अपनी पार्टी के नेतृत्व और बिहार सरकार के खिलाफ खुले शब्दों में बोलने के बावजूद पार्टी उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करती। अब श्री सिन्हा की शिकायत है कि पार्टी उनके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती। वे कहते हैं कि जसवंत सिन्हा ने जिन्ना पर एक किताब लिख और उसके बाद पार्टी ने बिना समय गंवाण् उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। बिारी बाबू की शिकायत है कि उन्होंने तो पार्टी के नेताओं की खुला आलोचना कर दी है और बिहार सरकार के खिलाफ भी बोल रहे हैं। फिर भी उनके जैसे नेता को कारण बताओ नोटिस तक जारी नहीं किया जाता, जबकि उनकी अपेक्षा पार्टी में भारी भरकम रुतवा रखने वाले जसवंत सिंह को पलक झपकते ही पार्टी से निकाल दिया।
यानी अब बिहारी बाबू पार्टी नेतृत्व को एक ऐसी चुनौती दे रहे हैं, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वह चुनौती उन्हें पार्टी से निकाल दिए जाने की है। पार्टी के लिए उन्हें पार्टी से निकालना आसान नहीं होगा, क्योंकि बिहार में चुनावी साल चल रहा है और चुनाव के समय भाजपा व जनता दल (यू) की हवा को खराब करने की क्षमता उनमें है। लेकिन अब सीघी चुनौती मिलने के बाद पार्टी नेतृत्व के लिए चुप बैठना भी आसान नहीं होगा।
सवाल उठता है कि बिहारी बाबू चाहते क्या हैं? क्या वे पार्टी से बाहर होना चाहते हैं? यदि हां, तो क्यों? शत्रुघ्न सिन्हा का व्यक्तित्व इतना उलझा हुआ नहीं है कि इन सवालों का जवाब ढूंढ़े न मिले। सच तो यह है कि वे बिहार सरकार और पार्टी नेतृत्व के व्यवहार से आहत हैं और वे दोनों से अपनी उपेक्षा का बदला लेना चाहते हैं। वे लंबे समय से चुनाव प्रचारक की भूमिका में रहें हैं और उन्हें पता है कि बिहार की जनता उन्हें सुनना पसंद करती है। और उनके पास जनता को सुनाने के लिए बहुत कुछ है।
पार्टी का बंधन उन्हें खुलकर बोलने में बाधा डाल रहा है, हालांकि वे वे अब बंधन को भी तोड़ने लग गए हैं। एक सवाल यह भी है कि पार्टी छोड़कर नीतीश सरकार के खिलाफ अकेले दम मोर्चा निकालना चाहेंगे अथवा किसी और राजनतिक शक्ति से जुडकर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाएंगे? कुछ लोगों के मन में यह भी सवाल उठ रहा है कि कहीं वे कांग्रेस की तरफ तो कदम नहीं बढ़ाना चाह रहे, क्यांेकि यदि कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री का अपना उम्मीदवरी बना दिया तो कांग्रेस और भी ज्यादा बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। (संवाद)
शत्रुघ्न सिन्हा का विद्रोह
आखिर क्या चाहते हैं बिहारी बाबू
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-03-28 09:20
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी के नेत्त्व को फिलहाल सबसे ज्यादा चुनौती बिहार से मिल रही है। बिहार से मिल रही चुनौती का सामना करने के लिए उन्होंने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का विस्तार तक कर डाला और बिहार से दो अतिरिक्त सदस्य उसमें शामिल कर डाले, लेकिन बिहार से चुनौतियां मिलना जारी है। पटना साहिब के सांसद और वरिष्ठ पार्टी नेता शत्रुघ्न सिन्हा ने तो उन्हें पार्टी से निकाल देने की चुनौती तक दे डाली है।