इलाके में स्थित ईदगाह में जुमे की नमाज के बाद हुए इस प्रदर्शन में एक बच्चे की मौत हो गयी थी। सबसे पहले इसकी खबर बीबीसी ने दी थी। लेकिन केंद्र सरकार ने उसका खंडन करते उसे पूरी तरह मनगढ़ंत करार दिया था। बावजूद इसके बीबीसी अपने रुख पर कायम रहा। बाद में अन्य मीडिया संस्थानों को भी मजबूर होकर उस खबर को प्रकाशित-प्रसारित करना पड़ा। आखिर में गृह मंत्रालय को भी दबी जुबान से कुबूल करना पड़ा कि सौरा में कुछ लोग सड़कों पर आए थे और उन्होंने नारेबाजी की थी।

सौरा में किसी भी गैर कश्मीर पत्रकार के लिए जाना बेहद चुनौती और जोखिम भरा है, क्योंकि वहां के लोग खासकर नौजवान मुख्यधारा के मीडिया खासकर टीवी चैनलों से बेहद खफा हैं। उनका कहना है कि राष्ट्रीय स्तर के तमाम चैनल और ज्यादातर अखबार सरकार के कश्मीर के बारे झूठी खबरें प्रकाशित-प्रसारित कर रहे हैं। वे कश्मीर की हकीकत पेश करने के बजाय वही सब कुछ पेश कर रहे हैं।

इस इलाके में जाना हमारे लिए भी आसान नहीं रहा। अव्वल तो हमारे साथ वहां जाने के लिए कोई स्थानीय पत्रकार तैयार ही नहीं हो रहा था। हमारी यात्रा के दूसरे दिन प्रेस क्लब में मौजूद कुछ स्थानीय पत्रकारों से बातचीत के दौरान संयोग से एक पत्रकार ने खुद ही हमें अपने साथ अगले दिन सौरा चलने का प्रस्ताव दिया। लेकिन अगले दिन जिस समय हमें वहां जाना था, उस पत्रकार ने आकर बताया कि आज वहां जाना ठीक नहीं रहेगा, क्योंकि कल रात वहां सुरक्षाबलों और स्थानीय युवकों के बीच झड़प होने की वजह से माहौल बेहद गर्म है। हम लोगों के सामने कोई विकल्प नहीं था, लिहाजा हम लोगों ने उस दिन सौरा जाना मुल्तवी किया और अगले दिन ही वहां जा पाए।

दरअसल सौरा एक विशाल और सघन बस्ती है, जिसमें प्रवेश करने के सात रास्ते हैं। बस्ती में गलियां ही गलियां हैं बिलकुल भूलभुलैया की तरह। सौरा के युवकों ने सातों रास्तों को तरह-तरह की जुगाड़ से इस तरह बंद कर रखा है कि सुरक्षाबलों के लिए बस्ती में प्रवेश करना आसान नहीं है। कहीं पेड़ काटकर गिरा दिए हैं, तो कहीं रिलायंस समूह की जियो मोबाइल कंपनी द्वारा बिछाई जा रही भूमिगत केबल को उखाड़कर उनसे रास्ते को बंद कर दिया गया है कहीं रास्ते को इस तरह खोद दिया गया है कि सुरक्षा बलों के वाहन बस्ती में प्रवेश न कर सके। कुल मिलाकर पूरी बस्ती एक किले में तब्दील कर दी गई है और बस्ती के बाहर भारी मात्रा में सुरक्षाबल तैनात हैं। स्थानीय लोगों के बस्ती में आने-जाने के लिए अलग से कुछ गुप्त रास्ते बनाए गए हैं, जिनकी जानकारी सिर्फ इलाके के लोगों को ही है।

स्थानीय पत्रकार की कार में बैठकर हम सौरा पहुंचे थे। चूंकि सभी रास्ते ब्लॉक कर रखे थे, लिहाजा हमारी कार भी बस्ती के बाहर ही खड़ी कर दी गई थी। हमें सुरक्षाबलों की निगाह से बचकर बस्ती के भीतर जाने के लिए करीब डेढ़ किलोमीटर पैदल चलना पडा। स्थानीय लोगों के मुताबिक बस्ती में प्रवेश करने के सभी रास्तों को बंद करने का मकसद सुरक्षाबलों को बस्ती में घुसने से रोकना है, क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि सुरक्षा बलों के जवान एकाएक बस्ती में धावा बोल देते हैं। सीआरपीएफ के जवान बस्ती में आते हैं तो तलाशी के नाम पर किसी भी घर में घुस जाते हैं और मनमानी करते हैं। वे न सिर्फ लोगों के साथ मारपीट करते हैं, बल्कि जवान लड़कियों के साथ भी बदसुलूकी करते हैं। ऐसी स्थिति में महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों को बाहर निकल कर भागना पड़ता है। फिर दोनों पक्षों के बीच टकराव शुरु हो जाता है। एक तरफ से पथराव होता है तो दूसरी तरफ से पैलेट गन चलाई जाती हैं। इस तरह के संघर्ष में 100 से ज्यादा लोग घायल हो चुके हैं। एक तरह से यहां आम लोगों और सुरक्षाबलों के बीच युद्ध जैसा माहौल बना हुआ ळें

किले में तब्दील श्रीनगर के सौरा में प्रवेश करने पर एक तिराहे पर कुछ युवकों का समूह मिला। उनसे बातचीत शुरू की। देखते ही देखते वहां 15-20 लोग और जुट गए। उन सभी में ज्यादातर लोग हैंडीक्राफ्ट का काम करने वाले थे, लेकिन सभी काम इन दिनों बंद है। हमने उनकी तस्वीर लेनी चाही लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। उनका कहना था कि उनकी तस्वीर सार्वजनिक होने पर उनकी मुश्किलें बढ़ जाएंगी।

बस्ती में कई लोगों ने बताया कि उन्हें यहां से बाहर निकले 50 दिन से ज्यादा हो गए। यहां से बाहर निकलने का मतलब है बिना वजह गिरफ्तारी। सीआरपीएफ के जवान लडकों को ही नहीं बल्कि लडकियों को भी नहीं छोड़ रहे हैं। एक महिला ने बताया कि कुछ दिन पहले किसी काम से बाहर गई एक लड़की को सीआरपीएफ के जवानों ने पकड लिया और उसे पुलिस के हवाले कर दिया।

तीन साल पहले सुरक्षाबलों के साथ हुई मुठभेड में मारा गया 24 वर्षीय मिलिटेंट बुरहान वानी इसी बस्ती का रहने वाला था। बस्ती के अधिकांश नौजवान बुरहान वानी को अब अपना हीरो मानते हैं। बस्ती के नौजवानों ने बताया कि हर समय सुरक्षाबलों का खौफ बना रहता है, लिहाजा उन्हें दिन-रात बारी-बारी से जागते हुए रहना पड़ता है। इसके लिए सातों प्रवेश द्वारों पर नौजवानों की ड्यूटी लगती है। पूरी बस्ती में भी रात भर इधर से उधर नौजवानों की टोलियां घूमती रहती हैं। यह सब कुछ बेहद संगठित तरीके से अंजाम दिया जाता है।

हम जिस दिन सौरा के लोगों के बीच पहुंचे वह तनाव, टकराव और खौफ का 51वां दिन था। लोगों ने बताया कि इस दौरान बस्ती के लोगों के सामने अनाज और खाने पीने के अन्य सामानों तथा दवाई आदि जीवनोपयोगी वस्तुओं का संकट खड़ा हो गया है। सौरा से सटी एक झील है, जो डल झील से भी बड़ी है। इस झील में कमल के फूलों से लेकर दूसरी सब्जियां उगाई जाती हैं। झील के आसपास खेत हैं, जिसमें अनाज उगाया जाता है। इसके अलावा कुछ खेती है जिसमे सौरा के लोग अनाज पैदा करते है। इसके अलावा बस्ती के कई घरों में बेहद महंगी पश्मीना शालों के बुनने का काम भी होता है।

बस्ती के ठीक बाहर ही मशहूर शेर-ए-कश्मीर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज अस्पताल है, जिसका प्रचलित नाम है एसकेआईएमएस। इस अस्पताल के निर्माण के लिए शेख अब्दुल्ला ने लोगों से चंदा जुटाया था। बताते हैं कि शेख अब्दुल्ला के आह्वान पर अस्पताल के निर्माण के लिए गांव की कई महिलाओं ने अपने गहने तक दान में दे दिए थे। इसी अस्पताल से होते हुए हम सौरा से बाहर निकले। अस्पताल में मरीजों, उनके परिजनों, डॉक्टरों तथा अस्पताल के अन्य कर्मचारियों की चहल-पहल बनी हुई थी। अस्पताल में किसी मरीज या डॉक्टर से बात करना आसान नहीं था, क्योंकि वहां भी चप्पे-चप्पे पर स्थानीय पुलिस और सीआरपीएफ के जवान तैनात थे, जो हर गतिविधि पर अपनी नजरें गड़ाए हुए थे।

हमारे साथ मौजूद स्थानीय पत्रकार ने बताया कि सुरक्षाबलों से टकराव के दौरान जिन लोगों को पैलेट गन के छर्रे लग जाते हैं, उनमें से ज्यादातार लोग यहां इस अस्पताल में इलाज के लिए आने में डरते हैं, क्योंकि पुलिस उन्हें पत्थरबाज मानकर गिरफ्तार कर लेती है। ऐसी स्थिति में यहां बस्ती के वही लोग इलाज के लिए आते हैं जो बहुत ज्यादा जख्मी हो जाते हैं। अस्पताल में भर्ती ऐसे जख्मी लोगों से बात करना भी हमारे लिए आसान नहीं था, क्योंकि ऐसे लोगों को अलग वार्ड में रखा जाता है, जहां पुलिस का सख्त पहरा होता है। (संवाद)